Sunday, November 18, 2007

क़िस्सा- ए - इंतखाब : भाग एक

मल्लीताल बङा बाजार से अशोक सिनेमा हाल की ओर नीचे उतरती ढलवां सङक के दांई ओर मुङती संकरी गली के नुक्कङ पर है मामाजी की चाय के दुकान। इसी के बाद वाली दुकान ही है जहूर दा की दुकान इंतखाब। कौन जहूर दा ? इंतखाब ? अगर आप नैनीताल में रहते हैं या कभी रह चुके हैं और साहित्य, कला, लिखने- पढने से आपका दूर-दूर से भी संबंध रहा है तो यह मानना थोङा मुश्किल लगता है कि आप उनसे परिचित न हों। अगर आप कभी भी नैनीताल और उसकी सांस्कृतिक हलचलों से वाकिफ नहीं रहे तो माफ कीजिएगा आप इंतखाब नाम की दुकान और जहूर आलम नाम के इसके दुकानदार को नहीं जानते होंगे।

वैसे इंतखाब कपङे की दुकान है लेकिन हमेशा भरी रहने वाली उस दुकान में ग्राहकों के दर्शन मुश्किल से ही होते हैं। ग्राहक बेचारा करे भी तो क्या, एक तो दुकान इतनी छोटी सी, उस पर ना जाने कौन-कौन से लोग हमेशा वहां आ कर अड्डा जमाए रहते हैं। हमेशा ही बहस- बतकहियों की महफिल सी जमी रहती है, हिम्मत करके कोई दुकान में आ भी जाता है तो दुकान में बैठे और लोगों से ज्यादा खुद दुकानदार के चेहरे पर हल्की सी खीझ के भाव आ जाते है कि अरे यार ये क्यों आ गया अभी।

जहूर आलम को बहुत कम लोग ही उनके पूरे नाम से बुलाते होंगे, वो जहूरदा के नाम से ही जाने जाते हैं। पिछले १५ साल से, जब से मैं उन्हें जानती हूं हिना से रंगे लाल बालों और छोटी कद-काठी वाले जहूर दा के चेहरे पर समय के ब्रश का एक हल्का सा स्ट्रोक भी नहीं पङा है। उम्र जैसे साल दर साल बिना छुए आगे बढ जा रही है। हर बार उनसे मिलने पर उसी गर्माहट वाली कुछ-कुछ शर्मीली सी लगने वाली मुस्कराहट के साथ आपका स्वागत होता है। हर बीतते साल के बाद अजनबी से लगने वाले नैनीताल में यह स्वागत भरी मुस्कान तसल्ली देती है आपको घर वापसी का अहसास दिलाती है।
नैनीताल में रहने वाले या पढाई-नौकरी के दौरान कुछ अरसा बिता चुके लोग या कहूं कि थोङा संवेदनशील किस्म के लोग जानते हैं कि यह पहाङी शहर कुछ खास है। इसका अपना एक अलग सा मिज़ाज है जो मौसमों के साथ बदलने के बावजूद एक शाश्वत भाव के साथ आपकी आत्मा से चिपका रहता है। नैनीताल की हवाओं में एक उर्जा हमेशा चलायमान रहती है। एक छोटे शहर के शांत ठहराव के बावजूद नैनीताल में हमेशा कुछ न कुछ बजबजाता रहता है। इंतखाब यानी जहूर दा की दुकान भी नैनीताल के इस मूलभूत विशेषता को अपने में समाए हुए है।

दुकान बहुत छोटी सी है, मुख्य काउंटर के पीछे जहूर दा या असल में इंतखाब के कारोबार की जिम्मेदारी निभाने वाले देवेंद्र पांडे खङे रहते हैं या अपने पीछे वाली रैक की निचली संकरी पट्टी पर तशरीफ टिकाए बैठे होते हैं। जो लोग जहूर दा से परिचित है वह पांडे जी को भी जानते है। दुकान में होने वाली बौद्धिक व अबौद्धिक हर तरह की चर्चाओं के दौरान वह केवल मूकदर्शक बन कर नहीं बल्कि एक सक्रिय वक्ता की तरह हिस्सेदारी करते हैं।

इन दोनों के अलावा दुकान में चार लोग और बैठ सकते हैं, कपङों के डिब्बे इधर-उधर खिसका कर, लेकिन अक्सर सात-आठ लोग जैसे-तैसे अटक कर बैठे मिल ही जाते हैं वहां। दो-चार लोग तो दुकान की दो सीढियों में ही लटक कर काम चला लेते हैं। बीच-बीच में दुकान के सामने से गुजरते लोगों से ओहो पांडे जी, अहा गिरदा, अरे प्रमोद दा की पुकार के साथ कुशल-क्षेम का आदान-प्रदान जारी रहता है। दुकान के बाहर की संकरी सी गली जैसे एक फिल्मी परदे का काम करती है, जिसमें निर्मल वर्मा की कहानियों जैसे पात्र एक कोने से निकल कर दूसरे कोने में छिपते चले जाते हैं। दुकान के ठीक सामने यानी गिन कर तीन कदम की दूरी पर दिवाल से लगभग चिपकी हुई चूढी की दुकान हैं। इंतखाब में बैठ कर केवल इस दुकान में होने वाली हलचल पर नजर टिकाए भी घंटों बिताए जा सकते हैं।

बहरहाल यह तो था दुकान का भौतिक स्वरूप, खास बात है इसकी आत्मा। मेरे जैसे छोटे गांव-कस्बों से नैनीताल पढने आए कई सारे लोगों के लिए यह दुकान जैसे एक दूसरा विश्वविद्यालय थी। मैंने यहीं आ कर जाना कि थियेटर जैसी भी कोई चीज होती है, एक एनएसडी भी है कहीं, कोई कवि हैं वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल, नाज़िम हिकमत, कोई ग्यानरंजन हैं उनकी एक पत्रिका है पहल। यहीं जाना कि एक चीज़ होती है राजनीति और एक राजनीतिक विचारधारा। एक दक्षिण पंथ होता है और एक वामपंथ। एक जनमत भी है। यहीं आ कर पता चला कि फिल्म संगीत से इतर भी संगीत होता है। जैसे बंद कमरे में अनगिनत दरवाजे अचानक खुल गए हों।

ऐसा नहीं था कि सब बातें समझ में आ ही जाती थीं लेकिन जितना भी समझा उसने ही आगे के जीवन की दिशा तय करने में मदद करी ये क्या कम योगदान है एक दुकान का? मैं ही नहीं कुछ और लोग भी हैं जिनकी जिंदगी के रास्ते इंतखाब की रोशनी में तय हुए। जब मैं यह बात कर रही हूं तो इसमें अतिशयोक्ति कतई नहीं हैं। दरअसल इंतखाब बहुत ही सादामिज़ाज सी दुकान है कि वास्तव में इसे खुद भी यह अहसास नहीं होता कि अनजाने में ही यह कितने लोगों को कितनी बातें सिखा देती है। हिंदुस्तान की सांझा संस्कृति देखनी हो तो यहां आइए। जहूरदा की अगुआई में कुमाउंनी होली की रंगत देखनी हो या रामलीला में श्रवण कुमार नाटक का मंचन आप जान जाएंगे कि सांम्प्रदायिक सदभावना कहने-सुनने की नहीं गुनने की चीज़ है।

इंतखाब में आप बातें ही नहीं जानते बल्कि इतने सारे लोगों से, इतनी विधाओं के जानकार लोगों से मिलते हैं कि आप कितने ही आत्मकेंद्रित किस्म के हों आपके दोस्तों का दायरा बढना निश्चित है। कबाङखाने के ज्यादातर साथियों को मैं जहूर दा, युगमंच और इंतखाब के जरिए ही जानती हूं। कुछ साल पहले अवस्थी मास्साब से आप यहीं मिल सकते थे, हमेशा मुस्कराते लगते चेहरे पर मुंदी हुई आंखों के साथ शेक्सपियर के किसी नाटक के किसी हिस्से की दिलचस्प व्याख्या करते हुए। कंधे पर झोला टांगे गिर्दा भी यही मिल जाते हैं कभी-कभार। इंतखाब ही वह जगह हो सकती है जहां आपको असलम के लिखे नोहे का मतला ठीक करते जगमोहन जोशी यानी मंटूदा मिल सकते हैं, या जाङों में अंडे का ठेला लगाने के कारण अनिल अंडा के नाम से मशहूर अनिल, जहूर दा से बहस करता दिख सकता है कि नाटक के काम में राजनीतिक विचारधारा का दखल नहीं होना चाहिए। प्रदीप पांडे किसी नए नाटक के संवादों से माथापच्ची करते यहीं मिल जाएंगे। संजीदा चेहरे के साथ अपनी हंसोङ टिप्पणियों से हंसा-हंसा कर लोट-पोट कर देने वाले हेंमत बिष्ट से या बच्चों वाली सरस मुस्कान वाले मामा जी यानी जितेंद्र् बिष्ट से भी यहीं मुलाकात हो सकती है। किस-किस का नाम लूं, इतने सारे आत्मीय और दिलचस्प लोगों से गुलजार रहती है इंतखाब की महफिल कि यहां से गए लोग सालों-साल यहां की यादों को सहेजे रखते हैं।

बीते सालों में इंतखाब भी काफी उथल-पुथल से हो कर गुज़रा है। कई सारे पुराने साथियों ने यह अड्डा छोङ कर नए मुकाम तलाश लिए। सालों से जुङे दिलों में जब दरारें आईं तो जाहिरी तौर पर तल्खियां भी सामने आईं। कई तरह के गिले-शिकवे हैं दिलों में, रिश्ते जितने गहरे होते हैं चोट भी उतनी ही गहरी होती है इसलिए आपसी कङवाहटें भी स्वाभाविक हैं। लेकिन समय की स्लेट पर सब कुछ अच्छा ही लिखा जाए यह संभव भी तो नहीं इसलिए कुछ अलगाव, कुछ दूरियां, कुछ कङवाहटों के लिए भी अपनी यादों में ही जगह बनानी होगी।

10 comments:

स्वप्नदर्शी said...

deepa thanks
kissaye intkhab likhane baitho to 100 kiste bhii kam padengii.

said...

दीपा जी नमस्कार,
आपका चिठ्ठा पढ़कर नैनीताल की सड़कों की याद हो आई ! अगर मैं सही समझ रहा हूँ तो ये वही मामाजी की दूकान है जिसके सामने टूरिस्ट होटल है ? वैसे मुझे उनकी दूकान पे जाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हो पाया मगर वो लगभग रोज का रास्ता था. अचानक बड़ा बाज़ार - मल्लीताल का नाम सुनकर एकदम पुरानी यादें ताज़ा हो आयीं !
धन्यवाद,
सौरभ

Tarun said...

दीपाजी, आपने एक बार फिर नैनिताल की याद दिलादी, ऐसा लगा फिर से वहीं पहुँच गया हूँ। धन्यवाद :)

कथाकार said...

दीपा जी के संसार में कितने कितने मजेदार चरित्र अपनी दुकानें जमाये बैठे हैं. इसी जुलाई में नैनीताल जाना हुआ लेकिन वो घूमना भी कोई घूमना था लल्‍लू जिसमें इस दुनिया के दरसन नहीं किये. हां इतना जरूर हुआ कि गंभीर सिंह पालनी की वजह से 25000 तितलियों का शानदार संग्रह रखने वाले भीमताल के फ्रेडरिक के दरसन जरूर हो गये. अद्भुत है उनका तितली संग्रह और उससे भी मजेदार उनसे बतियाना.

चंद्रभूषण said...

अहा..हा इंतखाब क्लॉथ हाउस, ओहो..हो जहूरदा। अपन के लिए तो नैनीताल शहर का मतलब जहूरदा ही रहे, बाकी सभी उनके पीछे। अभी कुछ दिन पहले पैसिफिक मॉल में एक बड़े शालीन-से दुकानदार ने जब अपना मूलस्थान नैनीताल बताया तो मुंह से जहूरदा का नाम निकल गया। फिर क्या था, वे सज्जन इतनी गर्मजोशी से मिले कि उसी दिन से उनकी दुकान अपनी हो गई।

आशुतोष उपाध्याय said...

`इंतखाब´ को मैंने बुग्याल के लिए छांटा था और देखो तुम बाजी मार ले गईं। इतने स्नेहिल भाव से मैं नहीं लिख पाता! कुछ जगहें जमीन से कहीं ज्यादा दिल में बसी होती हैं। इतखाब उनमें एक है। और कहना न होगा, इस दुकान की आत्मा जहूर भाई का तो कहना ही क्या। मैंने तो इस दुकान में कई रातें भी गुजारीं हैं। जहूर भाई के साथ कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़ना है और अभी पहला पन्ना भी नहीं पलटा, उनके खर्राटे बजने लगे। अब वो दिलकश दिन फिर कहां आएंगे।

लेकिन यह बहुत गलत बात है तुमने अनिल भुटृटे को अनिल अंडा कर लिया। युगमंच का यह लायक कलाकार और बालनाटकों का विशेषज्ञ कभी सीजन के दिनों मालरोड पर भुट्टे बेचा करता था। दरअसल युगमंच में एक वक्त तीन अनिल काम करते थे। उनमें अंतर करने के लिए ये उपनाम जोड़े गए- अनिल, अनिल भुट्टा और अनिल बैंक।

अलबत्ता, सामने वाली चूड़ी की दुकान को तुम बस छू कर निकल गईं। इंतखाब से कम नहीं है अशफाक यानी कल्लू की चूड़ी की दुकान। कल्लू दुकानदार का पुश्तैनी नाम है। उसके पिता को भी लोग कल्लू चूड़ीवाला बुलाते थे। उनके इंतकाल के बाद अशफाक को यह पदवी मिली। और उसका भाई हनीफ.......। दोनों के झगड़े भी कम दिलचस्प नहीं होते। रमजान के महीने में हम अफ्तारी के वक्त अशफाक से पहले उसका नाश्ता चट कर जाते और वह बेचारा मन ही मन कोसता लेकिन प्रकटत: मुस्कराता रहता। हम इन दिनों अकसर उसे चिढ़ाते- दिन भर पराई बहू-बेटियों के हाथ थामता है। तेरा रोजा तो यूं ही मकरू हो गया। यह सुन कर अशफाक का गुस्सा सातवें आसमान में पहुंच जाता। फिर उसकी दुल्हन तलाशने और बीवी की रुसवाई के किस्से। तुमने तो दीमक की बांबी का ढक्कन ही तोड़ दिया।

देवेंद्र पांडे पहले इंतखाब में जमन दा सेल्समैन का काम किया करते थे। बरसों तक इस दुकान की सोहबत ने उन्हें `बुद्धिजीवी´ बना दिया था। आप कभी भी दुकान में जाओ तो जमन दा अपने सामने एंगेल्स का मोटा सा `ड्युहरिंग मत खंडन´ लिए बैठे मिलते। पता नहीं उन्हें इस किताब से इतना प्रेम क्यों था! उनके जाने के बाद देवेंद्र आए और बहुत जल्दी उनकी `विट´ और सेन्स आफ ह्यूमर ने उन्हें एक जगह दे दी। देवेंद्र `केकड़ा क्लब´ के भी संस्थापक रहे हैं।

मुझे लगता है इंतखाब पर पूरी एक किताब लिखी जा सकती है। कबाड़खाने के सूत्रधार अशोक के पहले कविता संग्रह को लाने का श्रेय युगमंच और जहूर भाई को ही है। इस दुकान में भारतीय साहित्य और रंगमंच की जाने कितनी हस्तियों ने हाजिरी लगाई है।

दीपा पाठक said...

आप सभी की टिप्पणियों के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। आशुदा आपकी पोस्ट किस्सा-ए-इंतखाब भाग दो के रूप में जानी चाहिए। अनिल के नाम में भ्रम इसलिए हुआ कि एक बार उसने अंडों का कारोबार भी किया था और मुझे वही याद रह गया, लेकिन गलती तो हुई है उसके लिए क्षमा। जहां तक चूढी की दुकान का सवाल है उसे मैंने सिर्फ देखा ही है इसलिए उसके बारे में चाह कर भी ज्यादा नहीं लिख सकती थी। लेकिन वहां चूढियां पहनने बैठी औरतों के इतने खूबसूरत बिंब मेरी यादों में बसे हैं क्या कहूं। आपने सच कहा कि इंतखाब के बारे में लिखने बैठो तो पूरी किताब लिखी जा सकती है लेकिन फिलहाल तो मैं एक और पोस्ट ही लिखने की सोच रही हूं उम्मीद कर रही हूं कि उसे भी कुछ लोग तो पढेंगे ही ः)। एक बार फिर से टिप्पणी के रूप में हौसला अफजाई के लिए आप सभी का शुक्रिया।

nainitaali said...

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Unknown said...

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