Tuesday, November 6, 2007

मट्टी : खाक मट्टी


क्या आप भइया जी को जानते हैं ? बब्बू भइया को ?

मैं जानता हूं। वैसे मुझसे ज्यादा मेरा बेटा उन्हें जानता है क्योंकि वह उसके भइया जी हुआ करते थे । भइया जी यानी रिक्शावाला ।

मेरे कस्बे में ज्यादातर बच्चे रिक्शे पर स्कूल जाते हैं। एक रिक्शे पर दस-बारह बच्चे । कुछ शान्त कुछ शरारत करते। रिक्शे की चौड़ाई से एक-डेढ़ फुट बाहर निकला पटरा , पटरे के किनारे पर लटके बस्ते , पानी की बोतलें और उचक -उचक कर पैडल मारता एक आदमी । यह एक आम दृश्य है ,कस्बे के भूगोल,इतिहास और नागरिक शास्त्र का एक जरूरी हिस्सा।

बच्चों की शब्दावली में रिक्शेवालों के लिए एक परम्परागत सम्बोधन है-भइया जी ।अगर ढ़ेर सारे भइया जी लोगों के बीच अपने वाले भइया जी को कोई नाम देना पड़े तो सूरज भइया जी,तसव्वर भइया जी, भूरे भइया जी जैसे नाम चलते हैं। इन्हीं में से एक हैं बब्बू भइया जी। उन्हें उचक -उचक कर पैडल मारते देखने के लिए उचकना नहीं पड़ेगा ।

बब्बू भइया जी कोई चालीस - पैंतालिस के लपेटे में हैं । कुरता- पाजामा पहनते हैं , कभी - कभी पैंट - कमीज भी । कद औसत से थोड़ा अधिक है। खिचड़ी बाल -खिचड़ी दाढ़ी । और कुछ ज्यादा तो नहीं है बब्बू भइया के बारे में बताने को।

मेरा बेटा कक्षा एक में पढ़ता है। उसके शब्दों में कहें तो क्लास फर्स्ट बी में । उसे नाइन तक का टेबल याद है। वह डिक्टेशन में स्पेलिंग की गलतियां बहुत कम करता है । उसे पनिशमेंट कभी कभार ही मिलती है । ही इज अ गुड बॉय।

आज से दो बरस पहले की बात है । बेटे की छुट्टी एक बजे होती थी और एक बीस - एक पच्चीस तक वह घर आ जाया करता था । एक दिन काफी देर हुई तो हमें चिन्ता हुई । कई तरह की आशंकायें । मैं अपना स्कूटर निकाल ही रहा था कि गली में रिक्शा धड़धड़ाते भइया जी प्रकट हुए । रिक्शे पर बैठे बेटे को सही- सलामत देखकर जान में जान आई । अंदर गुस्सा भी था । गुस्सा प्रकट हुआ -

मैं - इतनी देर कैसे हुई ?
वह -साब छुट्टी के टैम मैने अपने लड़के को भेजा तो स्कूल वालों ने उसके साथ तुम्हारे लड़के को ना भेजा । कैन लगे अनजान आदमी के संग ना भेजेंगे । बात भी ठीक है साब ! बखत भौत खराब है ।
मैं - फिर ?
वह- फिर क्या ! लड़के ने घर आन के जे बात बताई तो मैं भाज के गया ।
मै - बात क्या थी भइया जी ? तुम क्यों नहीं गए पहले ? इस तरह तो कभी नहीं किया तुमने।

वह - क्या बताएं । आज दुपैर में मेरी लड़की खतम हो गई। दस - ग्यारह साल की थी । मैं उसके कफन - दफन के इंतजाम में लगा था इस मारे लड़के को भेजा था । जब स्कूल वालों ने मना कर दिया तो मैं खुद भाज के गया । क्या है साब ! मेरी लड़की तो खतम हो गई मगर औरों के बच्चे तो टैम से घर आने चइएं । बच्चे हैं भूख लग जाती होगी । मट्टी तो मट्टी है साब ! उसके लिए क्या टैम - क्या देर । चलता हूं । मट्टी घर में पड़ी है ।

क्या आप भइया जी को जानते हैं ? बब्बू भइया को?

7 comments:

Bhupen said...

अंत में कुछ देर के लिए सन्न रह गया. शायद ज़िंदगी को परिभाषाओं में क़ैद कर पाना बहुत मुश्किल है.

नितिन | Nitin Vyas said...

क्या कहूं

काकेश said...

रोचक अंत. जिन्दगी ऎसी ही है.

शिरीष कुमार मौर्य said...

जवाहिर चा ये छोटी सी कथा जीवन के लंबे लंबे फलसफों पर भारी है। अद्भुत और दारूण !

Priyankar said...

स्तब्ध हूं . और मनुष्य होने के गौरव से दिपदिपाता हुआ भी .

Rajesh Joshi said...

प्रेमचंद की मंत्र कहानी के पात्र हमारे और आपके आसपास अब भी हैं. विडम्बना ये है कि हम वैसे पात्र कभी नहीं बन पाते.

दीपा पाठक said...

ऐसे कुछ वाकयात ही इंसानियत पर विश्वास बनाए रखने में मदद करते हैं। कभी-कभी तमाम तरह की अमानवीयताओं के बीच मानवीयता की एक झलक ही काफी होती है हिम्मत बनाए रखने को।