Monday, March 24, 2008

हमेशा की तरह जाते जाते उदास बना जाती है होली

गई होली भी। लम्बी उनींदी दोपहरों वाली गर्मियाँ दस्तक देने को हैं। इस बार तो वसंत भी ज्यादातर जगहों पर बिना शकल दिखाए निकल गया।

वो बड़ा जाना पहचाना गीत है ना अपने अहमद हुसैन - मोहम्मद हुसैन बंधुओं का " ... जब गरमी के दिन आयेंगे, तपती दोपहरें लायेंगे, सन्नाटे शोर मचाएंगे ... "। कुछ वैसा ही छोड़ जाती है होली अपने पीछे।

राजस्थान से एक बेहद मशहूर लोक धुन प्रस्तुत है : "दूधलिया बन्ना"। वादक हैं शकर खान और लाखा खान।

आइये आती गर्मियों का इंतज़ार किया जाए और थोड़ा उदास हुआ जाए।


3 comments:

अजित वडनेरकर said...

हवेली के गवाक्ष से झांकती दो जोड़ी आंखे...रेतीले धोरों के सीमांत से आती सुर-ताल की लहरियां...मन की गहराइयों में हिलोर लेता रंगों का सैलाब...इसी गहराई से सतह पर उभर आएंगे उदासी के विशाल बुलबुले जिसकी पारदर्शी सतह पर बनती-मिटती-नर्तन करती छवियां होंगी...आने वाले कल का सुखद दृश्य दिखाती हुई सी...आज का सुख तो बिला गया शायद कहीं...सांझ हो चली है...ये कल इतनी आस क्यों जगाता है हमेशा ?

Priyankar said...

हां! यह राजस्थान में शादी-ब्याह के अवसर पर गाया/बजाया जाने वाला मांगलिक गीत 'बन्ना' है . अच्छा लगा .

anuradha srivastav said...

लोकधुन सुनाने के लिये धन्यवाद।