Monday, March 24, 2008

धर्म खाओ, राजनीति पियो और अपनी भाषा पर थूकते चलो


केरल यात्रा का ख़ुमार अभी उतरा नहीं है। त्रिचूर में बिताए आखिरी दिनों में मेरी मुलाकात एकाध महत्वपूर्ण लोगों से हुई. एक पोस्ट में मैंने बताया था कि साहित्य अकादमी पुरुस्कार प्राप्त मलयालम लेखिका श्रीमती सारा जोसेफ़ से उन के घर मिलने गये थे हम लोग. असल में उन से मिलना बेहद इत्तेफ़ाक़ से हुआ. मेरे साथ इस पूरी यात्रा में मेरे हल्द्वानी निवासी मित्र गिरीश मेलकानी थे. गिरीश जल्दी ही अपना घर बनाने का इरादा रखते हैं. इस सिलसिले में वे कई दिनों से लॉरी बेकर के 'लो-कॉस्ट हाउसिंग' वाले मॉडलों का अध्ययन करते रहे थे और केरल यात्रा का एक प्रमुख उद्देश्य इन मकानों को अपनी आंखों से देखना भी था.

लॉरी बेकर के मकानों को हम तिरुअनन्तपुरम में देख आए थे. त्रिचूर जाना एक अन्य मलयाली मित्र के सौजन्य से हुआ. सन्दीप बाबू नाम के इन मित्र ने राय दी कि एक ज़माने में लॉरी बेकर के साथ काम कर चुके उन के एक मित्र का मकान भी देखा जाना चाहिए. मेरे लिए यह सूचना ज़्यादा महत्वपूर्ण इस लिहाज़ से थी कि इन साहब का एक परिचय और भी था. श्रीनिवास एक जीनियस वास्तुशिल्पी हैं और उन का विवाह श्रीमती सारा जोसेफ़ की बेटी से हुआ है।

बिना ईंटों के, और सिर्फ़ गारे से बना श्रीनिवास का मकान अपने आप में एक शानदार और सुकूनदेह अजूबा लगा, लेकिन बाद में बताया गया कि सारे ग्रामीण केरल में पहले इसी तरह के मकान बनाए जाते थे। ख़ैर! सारा जी भी वहीं रहती हैं. बेहद सादा व्यक्तित्व की स्वामिनी सारा जी ने पूछने पर बताया कि इन दिनों वे रामायण की कथा पर आधारित एक बड़ा उपन्यास ख़त्म करने ही वाली हैं. मेरी पहली केरल यात्रा में हुए अनुभवों को जानने में उन्होंने दिलचस्पी दिखाई. केरल को लेकर बनी मेरी धारणाओं में से ज़्यादातर को लेकर वे मुझसे सहमत थीं अलबत्ता इधर के वर्षों में हो रहे विकास कार्यों को लेकर उन के भीतर क्षोभ था. धान के खेतों और नदियों के जल स्तर में आ रही कमी उन की चिन्ता के मुख्य कारण थे. लेकिन जो भी हो वे किसी भी क़ीमत पर केरल की तुलना उत्तर भारत से या दक्षिण के किसी और प्रांत से करने को तैय्यार नहीं थीं. "केरल फ़र्क़ है और हमें उस पर नाज़ है" यह उनका संक्षिप्त जवाब था.

समय की कमी के कारण उन से ज़्यादा लम्बी बात नहीं हो पाई।

केरल के शहरों-गांवों से गुज़रते हुए जगह-जगह पर छोटे-छोटे मन्दिर, गिरजे और मस्जिदें नज़र आते रहते हैं लेकिन धर्म को लेकर किसी तरह का अतिरिक्त उन्माद कहीं नज़र नहीं आता. क्रिकेट और राजनीति को लेकर बहुत उत्साह नहीं दिखा. राजनैतिक विरोध आम तौर पर आम जनता के हितों को केन्द्र में रखकर सड़क पर आते हैं. शिक्षा और स्वच्छता लोगों के एजेंडे में काफ़ी ऊपर लगते हैं. पेप्सी, कोकाकोला और रीबॉक-नाइकी के होर्डिंग्स नज़र नहीं आते, अलबत्ता त्रिचूर भारत की अर्थव्यव्स्था में बहुत महत्व्पूर्ण नाम है. बैंकिंग और बीमा के क्षेत्र में त्रिचूर बम्बई से भी आगे माना जाता है.
सार्वजनिक जगहों पर लिखी गई मलयालम भाषा हमेशा व्याकरण और वर्तनी के हिसाब से सही होती है। इस तथ्य के बारे में अपनी धारणा मैंने कई लोगों से पूछ कर बनाई.

इन सारे और बाक़ी विषयों पर सन्दीप और श्रीनिवास के साथ लम्बी बातचीत हुई. जीवन का एक हिस्सा उत्तर भारत में बिता चुके इन नौजवानों ने उत्तर भारत के हिन्दीभाषी क्षेत्र को लेकर एक वाक्य भर कहा: "उत्तर भारत में लोग धर्म खाने, राजनीति पीने और अपनी भाषा पर थूकने को ज़्यादा समय और तरजीह देते हैं !"

4 comments:

अजित वडनेरकर said...

बहुत बढ़िया पोस्ट । आपके मित्र महान है जो लॉरी बेकर के पैटर्न पर मकान बनाना चाहते हैं। मेरा भी यही ख्वाब है। बस , ज़मीन का एक टुकड़ा भर खरीद लूं । सचमुच मानवता के लिए बेकर ने महान काम किया है। इस पोस्ट ने केरल के शेष भारतीय राज्यों से फ़र्क को सशक्त ढंग से रेखांकित किया है। उत्तर भारतीय राज्यों के संदर्भ में मलयाली महानुभाव का कथन महत्वपूर्ण और सच्चा है।

Sanjeet Tripathi said...

एक बढ़िया पोस्ट!!!

इन मलयाली सज्जन के कथन से सौ फीसदी सहमत!!

वाकई दक्षिण भारत में वे मुद्दे एक तरह से नज़र ही नही आते जिन पर उत्तर मे मारकाट मच जाती है!!

Vineeta Yashswi said...

अच्छी पोस्ट चिपकायी है आपने केरल यात्रा की। फोटू भी अच्छा चिपका है।

मुनीश ( munish ) said...

haan ji main bhi ye padh kar khush hua hoon.