Friday, May 9, 2008

मुमकिन नहीं अड़े रहना इस टेक पर कि सिर्फ एक ही रास्ता सही है

कुछ माह पहले मोहल्ले पर मैंने निकानोर पार्रा की एक कविता पोस्ट की थी

देखता हूं इधर के कुछ हफ़्तों/महीनों में कबाड़ख़ाने के ज़्यादातर कबाड़ी ख़ामोश बैठे हैं. बहुत ज़्यादा ऐसा कुछ हो भी नहीं रहा जो आत्मा को तसल्ली दे. मैं उसी कविता को सारे मित्रों को दुबारा से पढ़वाना चाहता हूं.

पाब्लो नेरुदा के बाद चिले के सबसे महत्वपूर्ण कवि माने जाते हैं निकानोर पार्रा (जन्म: 5 सितम्बर 1914). उनकी यह अति चर्चित आप सभों के लिए.

युवा कवियों से

जैसा चाहे लिखो
पसन्द आये जो शैली तुम्हें,
अपना लो
पुल के नीचे से बह चुका है इतना खून
मुमकिन नहीं अड़े रहना इस टेक पर
कि सिर्फ एक ही रास्ता सही है
कविता में हर बात की इजाज़त है
बस, शर्त है सिर्फ यही
कि तुम्हें कोरे कागज़ को बेहतर बना देना है


(नोट: मुझे इस कविता के अनुवादक का नाम मालूम नहीं है. वैसे इसका स्व हरजीत समेत कई कवि-लेखकों ने हिन्दी अनुवाद किया था. कॉलेज के दौर की एक डायरी में अचानक मिली इस कविता के अनुवादक का नाम लिखना भूल गया था. वैसे भी अनुवादक को ज्यादा याद रखने का हमारे यहां रिवाज़ कम है.)

4 comments:

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

आज के दौर में और भी प्रासंगिक बात! अगर कोरे कागज़ को बेहतर बनाने की सीख मान ली जाए तो अनगिनत वृक्षों की जान बच जायेगी.

Priyankar said...

कवियों को,खासकर नए कवि को अपने गीत इसी टेक पर गाने चाहिए . पार्रा की ये पंक्तियां जितनी बार पढी हैं, और ताजी और सार्थक लगी हैं .

Rachna Singh said...

kyaa baat haen as many times i will read it i will keep reading it

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

बस कोरे कागज को बेहतर बना देना है?
यह शर्त छोटी नहीं,
काफ़ी कुछ मांगती है कविता
अपने जन्म से पहले
इसका अंकुर फूटता है
हृदय की तलहटी में
जब अंदर की जोरदार हलचल
संवेगों का सहारा पाकर धर लेती है रूप
एक भूकंप का
जो हिला देता है गहरी नींव को
गिरा देता है दीवारें
विदीर्ण कर देती है अन्तर्मन के स्रान्त कलश
बिंध जाता है मर्मस्थल,
तन जाती हैं शिरायें
फड़कती हैं धमनियाँ
जब कुछ आने को होता है

यह सिर्फ़ बुद्धि कौशल नहीं
आत्मा को पिरोकर
मन के संवेगो से
इसे सिंचित करना पड़ता है।
देनी पड़ती है प्राणवायु
पूरी ईमानदारी से
ख़ुदा को हाज़िर नाजिर जानकर
अपने पर भरोसा कायम रखते हुए
भोगे हुए संवेगों को
जब अंदर की ऊष्मा से तपाकर
बाहर मुखरित किया जाता है
तो कविता जन्म लेती है।

माँ बच्चे को जन्म देकर
जब अपनी आँखों से देख लेती है
उसका मासूम मुस्कराता चेहरा
तो मिट जाती है उसकी सारी थकान
पूरी हो जाती है उसकी तपस्या
खिल जाता है उसका मन।
लेकिन प्रसव-वेदना का अपना एक काल-खण्ड है
जो अपरिहार्य है।

कविता पूरी हो जाने के बाद वह
मंत्रमुग्ध सा अपलक देखता रहता है
उस कोरे काग़ज को
जिसे अभी-अभी बेहतर बना गया है
उसके भीतर उठने वाले ज्वार ने,
जो छोड़ गया है
कुछ रत्न और मोती
इस काग़ज के तट पर।
या उसने गहराई में डूबकर
निकाले हैं मोती
किन्तु जो वेदना उसने सही है
उसका भी एक काल-खण्ड है।

फिर कैसे कहें
कविता में हर बात की इज़ाजत है?