Wednesday, May 14, 2008

धूमिल की डायरी के दो अंश


हिन्दी कविता में विशिष्ट स्थान रखने वाले कवि के तौर पर प्रतिष्ठित सुदामा पाण्डेय 'धूमिल'को मुख्यतः उनके संग्रह 'संसद से सड़क तक' के लिये याद किया जाता है. आज़ाद भारत की भोथरी पड़ चुकी राजनीति से खिन्न हो कर उन्होंने एक दफ़ा लिखा था:

बीस साल बाद
सुनसान गलियों से
चोरों की तरह गुजरते हुए
अपने आप से सवाल करता हूँ
क्या आज़ादी तीन थके हुए रंगों का नाम है?
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है ?


कल यूं ही पुरानी पत्रिकाएं पलटते हुए मेरी निगाह उनकी डायरी के कुछ अंशों पर टिक गई. एक जगह वे महान रचना की मूलभूत परिभाषा देते हैं और फिर उस परिभाषा की सान पर प्रेमचन्द के लेखन को परखते हैं :

"जिस लेखक का खलनायक जितना सशक्त होता है उसका लेखन उतना ही विस्तृत, गहरा और सक्षम होता है क्योंकि उस खलनायक के घेराव और पतन के किये अत्यधिक जागरूकता, समझ से भरी हुई साहसिकता और संघर्ष के सटीक और सही कौशल से भरी कारगर कल्पनाशीलता की ज़रूरत होती है. ये सारी बातें सर्जनात्मक स्तर पर सार्थक होकर एक 'महान' रचना बन जाती हैं.

प्रेमचन्द में, आप उनका समूचा लेखन देख जाइये, कहीं भी खलनायक पात्र के रूप में नहीं हैं. बनिये, ज़मींदार, ब्राह्म, सरकारी कर्मचारी, ये सब उनके यहां सामाजिक प्राणी हैं. ये खलनायक नहीं हैं बल्कि खलनायक के हथियार हैं. फिर खलनायक कौन हैं वहां? मेरे विचार से प्रेमचन्द के लेखन में हिन्दुस्तानी आदमी, हिन्दुस्तानी कौम के भीतर का दास मन है."

हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के अन्तिम दिनों और उनके शिष्य नामवर सिंह को लेकर उनके विचार बेबाक हैं और आप देख सकते हैं कि आज से छत्तीस साल धूमिल नामवर सिंह के 'नामवर' बने रहने की ट्रिक को ताड़ गये थे:

"डा. हज़ारीप्रसाद द्विवेदी को लगातार इस्तेमाल होते रहने की लत पड़ गई है. जब उनका इस्तेमाल होता है यानी जब वे दो-चार आदमियों से घिरे रहते हैं वे बेहिसाब ठहाके लगाते हैं और गूंजते हुए बैठे रहते हैं. लेकिन जब उनका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा होता है, वे एक अजीब सी बेचैनी से भर जाते हैं छूछे घड़े में भरी हवा की तरह उनकी देह हाय-हाय करती हुई. वे तब एक पल भी बैठ नहीं पाते. तुम ध्यान से उन्हें कभी कभार सड़क की पटरी पकड़ कर जाते हुए देखो- ऐसा मृत मुख अधखुला और सांयसांय ... कि हाय! जैसे कोई मर गया है और चल रहा है.

नामवर के साथ अभी यह हुआ नहीं है. नामवर का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. उनके बाप तक ने उनका इस्तेमाल कर पाने में अपने को असमर्थ पा लिया है. इस्तेमाल से बचते रहना नामवर की आदत नहीं तरकीब का हिस्सा है. दिक्कत सिर्फ़ तभी होती है कि एक तरकीब से दूसरी तरकीब निकालते रहने की आदत का शिकार वे अकसर हो जाया करते हैं."

(इण्डिया टुडे साहित्य वार्षिकी १९९५-९६ से साभार. धूमिल का स्केच www.anubhuti-hindi.org से साभार)
संबंधित सामग्री इन जगहों पर भी देखें:
http://www.anubhuti-hindi.org/gauravgram/dhoomil/index.htm
http://hindini.com/fursatiya/?p=129
http://hindini.com/fursatiya/?p=130

7 comments:

Priyankar said...

धूमिल में एक खांटी आदमी की अन्तर्दृष्टि थी . इधर लेखक का अपने समाज से अलगाव बढा है . बल्कि इधर फेन की तरह सतह के ऊपर रहने वाले लेखकों की संख्या बढी है उसी अनुपात में प्रामाणिकता और सच्चाई घटी है .

Dr. Chandra Kumar Jain said...

धूमिल मेरे पसंदीदा कवि हैं.
आपकी इस पोस्ट के बहाने इंडिया टू डे
की साहित्य-वार्षिकी एक बार फिर पढ़ गया.
आपने नायाब मोती चुनकर यहाँ बिखेर दिया है.
दरअसल धूमिल भाषा के भी डिक्टेटर हैं.
===============================
धन्यवाद
डा.चंद्रकुमार जैन

अनूप शुक्ल said...

धूमिल की डायरी पढ़वाने के लिये शुक्रिया। दूसरे लेख का लिंक सही कर दें।
सही लिंक है:-http://hindini.com/fursatiya/?p=129
एक और लिंक है : http://hindini.com/fursatiya/?p=130

Anonymous said...

post ke liye dhanyavad

Shrikant Pandey said...

ek achche post ke liye aap ko dhanyavad

Shrikant Pandey said...

http://dhoomil.blogspot.com/

Shrikant Pandey said...

http://dhoomil.blogspot.com/