Monday, July 7, 2008

यह संगीत केवल मर्मज्ञों के लिए है साधारण जन तो इसे जानते-सुनते ही हैं.


पिछले कुछ दिनों से अपने 'कबाड़खाना' पर कुछ गंभीर-गंभीर मसला चल रहा है। वैसे यह गंभीर तो है किंतु गरिष्ठ नही. जीवन,जगत,जन और जिजीविषा से जुड़ी कोई भी चीज गरिष्ठ कैसे हो सकती है? रोज बनती हुई इस दुनिया में किसिम-किसिम के दृष्य अवतरित होते रहते हैं,उन्हें देखने- परखने-पहचानने के लिए चार आंखें नहीं चाहिए. हमारी अपनी दो आंखें ही बहुत हैं. बहुत ही उम्दा,स्तरीय और उत्कृष्ट कवितायें विश्व पटल से उठाकर पाठकों के सामने परोसने का पुण्यकर्म अशोक पांडे कर रहे हैं. टिप्पणियां देखकर इस बात की आश्वस्ति होती है कि अच्छी कविता के अच्छे पाठकों की कतई कमी नहीं है. बची रहे कविता ,बने रहें पाठक!

लो साहब! अब मैं भी कुछ गंभीर-सी बात करने लगा। आज तो यह सोचकर लिखने बैठा था कि कोई हल्की-फुल्की चीज की याद दिलाई जाय.बचपन में हमारे गांव में बिजली नहीं थी.रोशनी के लिए हम लोग लालटेन जलाया करते थे और मनोरंजन के लिये रेडियो सुना करते थे. रात पौने नौ बजे आकाशवाणी पर समाचार और उसके बाद बीबीसी हिन्दी सुनना हमारे 'दुआर' की एक विशिष्ट पहचान थी. उसके बाद भाई लोग देर रात तक धीमी आवाज में फिल्मी गाने सुना करते थे. अक्सर इस कार्यक्रम का समापन बड़े-बुजुर्गों की डांट खाकर ही संपन्न होता था. जाड़े के दिनों में हम लोग पुआल डालकर सोते थे. इस समय युवाओं और किशोरों का सामूहिक शयनकक्ष बड़े-बुजुर्गों से से अलग हो जाता था-थोड़ा तनहाई भरा. फिर तो आधी रात तक रेडियो और फिल्मी गाने, उन पर चर्चा-परिचर्चा, हीरो-हीरोइनों के किस्से आदि-इत्यादि.

आजकल मैं उन फिल्मी गानों की सूची बनाने के काम में लगा हूं जो हमारे बचपन के संगी-साथी हुआ करते थे. जब भी वे आसपास बजते थे तो हमें एक नई दुनिया में खीच ले जाते थे.यह एक ऐसी दुनिया होती थी जो हमारी अपनी दुनिया से निहायत अलग और आकर्षक होती थी लेकिन हमसे कोसों दूर, इतनी दूर कि उसके भीतर केवल कल्पना के पंखों पर सवार होकर प्रविष्ट हुआ जा सकता था. जैसे-जसे उम्र बढ़ती गई और अक्ल आती गई वैसे-वैसे 'वो दुनिया' दूर होती गई. रजाई के भीतर रेडियो घुसाकर फिल्म संगीत सुनने का सौभाग्य तो बहुत बाद में मिला. शुरुआत में तो बस दूर से ही सुनना होता था. कभी-कभार गांव में किसी कार्यक्रम में 'मैक' (लाउडस्पीकर) लगता था तो तो रेडियो पर सुने गानों को घूमते हुए तवे और भोंपू के जरिए तेज आवाज में सुनना एक अलग किस्म का अनुभव होता था. मजे की बात यह थी कि इस तरह के आस्वादन से कोई रोकता-टोकता भी नहीं था.

अब भूमिका/ परिचयात्मक टिप्पणी आदि को पीछे छोड़कर सीधे आपको निरंतर निर्माणाधीन अपनी सूची में से वे दो गीत सुनवाता हूं जो बचपन में मेरे संगी-साथी हुआ करते थे और आज भी जेहन में उनकी स्मति जोर मारती रहती है। ये दो गीत है १९६८ में रिलीज हुई फ़िल्म 'राजा और रंक' के. क्या गाने थे साहब इस फ़िल्म के- एक से बढ़कर एक. एकदम जनता की जुबान पर चढ़े हुए. फ़िल्म तो वही थी राजा-रानी वाली कहानी लेकिन गाने गजब के- 'मेरे राजा मेरे लाल तुझको ढूंढू मैं कहां' , 'तू कितनी अच्छी है कितनी भोली है ओ मां' , 'संग बसंती रंग बसंती छा गया मस्ताना मौसम आ गया' , 'मेरा नाम है चमेली मैं हूं मालन अलबेली' , 'ओ फ़िरकी वाली तू कल फ़िर आना'. इस फ़िल्म के गीत लिखे थे आनंद बक्षी ने और संगीत दिया था लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने. तो सुनते हैं (इसी) फ़िल्म 'राजा और रंक' के दो गीत.

१-'मेरा नाम है चमेली मैं हूं मालन अलबेली' ( लता मंगेशकर)


२-ओ फ़िरकी वाली तू कल फ़िर आना'। (मोहम्मद रफ़ी)


(इस पोस्ट का शीर्षक वीरेन डंगवाल की कविता ' कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा' से लिया गया है .कवि के प्रति आभार!)

3 comments:

Ashok Pande said...

सिद्धेश्वर बाबू,

इन गानों ने मुझे अपने बचपन के शहर रामनगर में ले जा पटका. हमारे घर के नज़दीक पप्पी मान्टेसरी स्कूल था जहां एक अति सुन्दर युवा अध्यापिका का हमारे ही मुहल्ले में रहने वाले एक फ़ुटबॉलर से, लोग बताते थे, कुछ चल रहा था. सुबह इस सुन्दरी का स्कूल की तरफ़ बढ़ना और फ़ुटबॉलर महोदय का अपने टेपरिकॉर्डर पर इस फ़िल्म के गीतों का तेज़ आवाज़ में बजाना एक साथ हुआ करते थे.

मौज आई.

अजीत चिश्ती said...

सर जी "दुआर" तो ठीक है लेकिन "पुआल" की जगह "पुअरा" होता तो "उलटिया/ कलाटिया" मार देते.
मजा आ गया उस दौर मैं जाके

sanjay patel said...

सिध्देश्वर भाई;
रज़ाई में छुपा के रेडियो न सुनता तो पिता की इच्छा के मुताबिक (शायद) चार्टर्ड अकाउंटेंट बन गया होता.लेकिन ऐसा हो जाता तो ये जो सारे संगीत के करम-धरम हैं ये कहाँ से होते.जीवन की बैलेंस शीट में असेट्स के नाम पर क्या होता ? छायागीत के आसपास पिताजी पूछते संजू रेडियो बंद कर दिया..मैं झूठ कहता हाँ पप्पाजी...और ज़ोर से ख़ाँस कर अपना फ़िलिप्स बहादुर बंद कर देता.डर जो रहता था कि पिताश्री आकर कहीं चैक न कर लें..

हाय क्या दिन थे वे अशोक भाई..सिध्देश्वर दा..ख़ूब सायकल चलाते थे और यदि इसी दौरान पानी बरसने लगा तो ज़ोर से चिल्ला चिल्ला कर गाने गाते जिसमें ऐसे गीत भी होते जो आपने आज जारी किये.

मध्यमवर्ग का बड़ा आसरा थे भाईजान ये गीत और रेडियो .ज़िन्दगी की तमाम तल्ख़ियाँ तिरोहित हो जाती थीं जैसे रेडियो सैट में.क़ब्बन मिर्ज़ा,ब्रजभूषण साहनी जैसे लोग जब विविध भारती से ऐसे गीत अनाउंस करते तो कई किशोर/युवा मन अपनी पुस्तक में छुपाए मोर-पंख को निकाल कर न जाने क्या क्या इंतेख़ाब करने लगते.

तकनीक और तत्काल के फ़ेर में हम क्या से क्या हो बैठे...?कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन.