Monday, July 14, 2008

पर मैं हाथ तक नहीं लगाऊंगा चीज़ों को नष्ट करने के लिए

15 जून 1970 मध्य प्रदेश के सतना ज़िले में जन्मे विजयशंकर चतुर्वेदी को ब्लॉगजगत में उनके बेबाक आज़ाद लब के माध्यम से जाना जाता है. कुछ दिन पहले उनके कवि रूप से एक बार आपको कबाड़ख़ाना में परिचित कराने की छोटी सी कोशिश की थी. घरेलू फ़ोटो अलबम को लेकर लिखी उनकी एक कविता को बहुत पसन्द किया गया था.

सदियों से भारतीय पारम्परिक समाज की धुरी का काम कर रही परिवार नाम की इकाई विजयशंकर को बहुत गहरे छूती है और इस बेहद व्यक्तिगत संसार में अपनी और अपने समाज की जड़ें तलाशते हुए वे कितनी ही सारी अनचीन्ही, अजानी जगहों की तरफ़ जा रहे रास्तों पर निकल आते हैं. इस काम को कविता में कर पाना बहुत मुश्किल का काम है. एक तो ख़तरों से भरी इस डगर पर किसी भी पहली सुरक्षित मांद में घुस जाना सबसे सहूलियतभरा होता है और इस विषय पर कलम चलाते हुए हमारे यहां हिन्दी में बड़े-बड़े स्वनामधन्य महाकवि टें बोल चुके हैं. बहुत साहस और सतर्कता के साथ आगे बढ़ते हुए किसी गुप्त ख़ज़ाने की सी तलाश में निकले कवि को अपने चोर दरवाज़े ख़ुद तलाशने होते हैं. इस लिहाज़ से मुझे विजयशंकर चतुर्वेदी एक अति साहसी कवि नज़र आते हैं.

उनकी एक अति विलक्षण कविता है 'साहचर्य'. मुझे व्यक्तिगत रूप से यह मानने में कोई हिचक नहीं कि आज तक पढ़ी हज़ारों प्रेम कविताओं के बीच से अगर कोई दस श्रेष्ठतम कविताएं चुनने को कहा जाए तो मैं बेशक इसे उस लिस्ट में जगह दूंगा. ज़रा देखिये इस कविता का ग़ज़ब का फ़ॉर्मेट और क्या अंडरस्टेटेड सेंसुअलिटी:


आल्मारी बन्द थी कस के
और पत्नी से चल रही थी खटपट
भीतर बंद थीं बहुत ज़रूरी चीज़ें हमारी

पहले तो वह झूलती रही हत्थे से
धरती पर पांव गड़ाकर
ज़ोर लगाया दीवार ठेलकर
और फिर मेरी तरफ़ देखा कातर
मैं साथ देने उठा हंसकर
खुल गए कपाट दुनिया के
धड़ाम से पीछे गिरे हम
जाने कितनी यादें आ गिरीं हम पर.

इसी क्रम में संसार भर की चीज़ें शनैः शनैः विजयशंकर के ख़ज़ाने में प्रवेश होती चली आती हैं और कविता से यह कवि किसी उस्ताद जासूस के औज़ारों का सा काम ले लेता है. बीसवीं सदी की सारी चिन्ताएं, सारे सरोकार एक अलग ज़ुबान में इस कवि के हाथों अद्वितीय कोणों से झलमल करने लगती हैं जैसे कि आप उन्हें किसी कैलाइडोस्कोप के भीतर से देख रहे हों.

अपने कविकर्म को लेकर विजयशंकर का क्या मानना है, यह उनकी 'बीज' शीर्षक छोटी सी कविता में देखिये:


हटो ... हटो ... हटो
पृथ्वी बेपर्द
उठो ... उठो ... उठो हिमालय
ओ ज्वालामुखी मुझे उगने दो
पाताल लोक फटो ...

कविता का जादू इस में है कि कवि हिमालय से ऊंचा उठ पाने के साथ साथ पाताल के खड्डे के बारे में भी सोच सकता है. ख़ैर, ज़्यादा बकबक नहीं करूंगा ताकि आप उनकी कविताओं का आनन्द ले सकें. बस एक ज़रूरी ख़बर यह है कि विजयशंकर चतुर्वेदी का संग्रह 'पृथ्वी के लिए तो रुको' बहुत जल्द ही छप कर आने को है. हमारे समय के बड़े कवि श्री लीलाधर जगूड़ी ने इस संग्रह की भूमिका लिखी है. कवि को कबाड़ख़ाने की शुभकामनाएं.

संबंधीजन

मेरी आंखें हैं मां जैसी
हाथ पिता जैसे हैं
चेहरा-मोहरा मिलता होगा ज़रूर
कुटुंब के किसी आदमी से

हो सकता है मिलता हो दुनिया के पहले आदमी से
मेरे उठने-बैठने का ढंग
बोलने-बतियाने में हो उन्हीं में से किसी एक का रंग
बहुत संभव है मैं होऊं उनका अंश
जिन्होंने देखे हों दुनिया को सुन्दर बनाने के सपने
क्या पता गुफाओं से पहले पहल निकलने वाले रहे हों मेरे अपने
या फिर पुरखे रहे हों जगदगुरु शिल्पी
गढ़ गए हों दुनिया भर के मन्दिरों में मूर्तियां
उकेर गए हों भित्तिचित्र
कौन जाने कोई पुरखा मुझ तक पहुंचा रहा हो ऋचाएं
और धुन रहा हो सिर

निश्चित ही मैं सुरक्षित बीज हूं सदियों से दबा धरती में
सुनता आया हूं सिर पर गड़गड़ाते हल
और लड़ाकू विमानों का गर्जन.

यह समय है मेरे उगने का
मैं उगूंगा और दुनिया को धरती के क़िस्सों से भर दूंगा
मैं उनका वण्शज हूं जिन्होंने चराई भेड़ें
और लहलहा दिए मैदान

संभव है कि हमलावर मेरे कोई लगते हों
कोई धागा जुड़ता दिख सकता है आक्रांताओं से
पर मैं हाथ तक नहीं लगाऊंगा चीज़ों को नष्ट करने के लिए
भस्म करने की निगाह से नहीं देखूंगा कुछ भी
मेरी आंखें मां जैसी हैं
हाथ पिता जैसे.



देवता हैं तैंतीस करोड़

बहुत दिनों से देवता हैं तैंतीस करोड़
उनके हिस्से का खाना-पीना नहीं घटता
वे नहीं उलझते किसी अक्षांश-देशांतर में
वे बुद्धि के ढेर
इन्द्रियां झकाझक उनकीं
सर्दी-खांसी से परे
ट्रेन से कटकर नहीं मरते
रहते हैं पत्थर में बनकर प्राण
कभी नहीं उठती उनके पेट में मरोड़
देवता हैं तैंतीस करोड़

हम ढूंढ़ते हैं उन्हें
सूर्य के घोड़ों में
गंधाते दुखों में
क्रोध में
शोक में
जीवन में
मृत्यु में
मक्खी में
खटमल में
देश में
प्रदेश में
धरती में
आकाश में
मंदिर में
मस्जिद में
दगे में
फ़साद में
शुरू में
बाद में
घास में
काई में
बाम्हन में
नाई में
बहेलिये के जाल में
पुजारी की खाल में
वे छिप जाते हैं सल्फ़ास की गोली में

देवता कंधे पर बैठकर चलते हैं साथ
परछाई में रहते हैं पैबस्त
सोते हैं खुले में
धूप में
बारिश में
गांजे की चिलम में छिप जाते हैं हर वक़्त

नारियल हैं वे
चंदन हैं
अक्षत हैं
धूप-गुग्गुल हैं देवता
कुछ अंधे
कुछ बहरे
कुछ लूले
कुछ लंगड़े
कुछ ऐंचे
कुछ तगड़े
बड़े अजायबघर हैं
युगों-युगों के ठग
जन्मांतरों के निष्ठुर
नहीं सुनते हाहाकार
प्राणियों की करुण पुकार

हम तमाम उम्र अधीर
मांगते वर गंभीर
इतनी साधना
इतना योग
इतना त्याग
इतना जप
इतना तप
इतना ज्ञान
इतना दान
जाता है निष्फल

वे छिपे रहते हैं मोतियाबिन्द में
फेफड़ों के कफ़ में
बालों के तेल में
हमारी पीड़ाएं नुकीले तीर
छोड़ती रहती है धरती से आकाश
और बच-बच निकल जाते हैं तैंतीस करोड़ देवता

हमारा घोर एकान्त
घनी रात
भूख-प्यास
घर न द्वार
राह में बैठे खूंखा़र
तड़कता है दिल-दिमाग़
लौटती हैं पितरों की स्मृतियां
राह लौटती है
लौटते हैं युग
वह सब कुछ लौटता है
जो चला गया है चौरासी करोड़ योनियों का
और तिलमिला उठते हैं
तैंतीस करोड़ देवता.



बयानात

पिता का बयान है-
वह हंसने-खेलने वाली लड़की थी
ज़िन्दगी में कोई तकलीफ़ नहीं थी उसे
वह सजा रही थी भविष्य के सपने

भाई ने बताया -
कल ही तो कहा था उस ने
भैया, अभी मत आना
मैं जा रही हूं इनके साथ बाहर कहीं घूमने

सहेलियों ने याद किया -
हममें सबसे अच्छी बोलनेवाली थी वह
सबसे अच्छी खिलाड़ी
बड़ी ज़िन्दादिल

मां ने छाती पीट ली -
हे विधाता! इसका ही अन्देशा था मुझे

कितना कुछ छिपाती रहती हैं लड़कियां
आत्महत्या के दिन पहले तक
... और कितना छिपाती रहती है मां ज़िन्दगी भर.



विज्ञापन

एक विज्ञापन हमारी आत्मा को काटते-काटते खुद को काट देता है एक दिन
तब गढ़ लिया जाता है दूसरा विज्ञापन
हमारी उगाई फ़सलों के बारे में हमीं को बरगलाया जाता है
हमारा अन्न हमीं को सोना बताया जाता है

कौन करता है यह छल
कौन पी जाता है हमारे जीवन का मीठा जल?
पानी की कमी का
क्यों नहीं होता विज्ञापन पथराई आंखों की नमी का?

एक स्त्री करती है प्यार का विज्ञापन
हमारी कोमल भावनाएं सहलाते हुए
एक पुरुष करता है मर्दानगी का विज्ञापन
हमारी हैवानियत उकसाते हुए

एक विज्ञापन हमें सुलाने की कोशिश करता है
झूठी लोरियां गाकर
मां को डस लेता है यह विज्ञापन.



प्रेम ही करूं

प्रेम ही करूं
बसूं सबके मन
घोड़ों पर सवार दौड़ता फिरूं
नाप लूं पल में गगन
ओस की बूंद में नाचूं
सुनूं पत्तियों का सितार

सदा ही रहू गतिमय
खड्ग में -खंभ में
तुझ में - सबमें
ख़ुद में लौटूं बार-बार

बहूं पवन में
चूम लूं सारा संसार
प्रेम ही करूं.



दस मौतें

पहला तीखा बहुत खाता था, इसलिए मर गया
दूसरा मर गया भात खाते-खाते
तीसरा मरा की दारू की थी उसे लत
चौथा नौकरी की तलाश में मारा गया
पांचवे को मारा प्रेमिका की बेवफ़ाई ने
छठा मरा इसलिए कि वह बनाना चाहता था घर
सातवां सवाल करने के फेर में मरा
आठवां प्यासा मर गया भरे समुद्र में
नौवां नंगा था इसीलिए शर्म से मरा ख़ुद-ब-ख़ुद
दसवां मरा इसलिए कि कोई वजह नहीं थी उसके जीने की.

11 comments:

अनूप शुक्ल said...

बहुत अच्छी कवितायें लिखते हैं विजयजी। पढ़वाना का शुक्रिया।

sanjay patel said...

विजय भाई को पढ़ो तो इस बात की तसदीक हो जाती है कविता लिखी नहीं जाती है...आती है....न जाने किन स्मृतियों से,संगसाथ से,विरसे से,परिवेश से,गली से ,मोहल्ले से,माँ से , उसके भीगे आँचल से,उसकी आँखों के पानी से,बाप की विवशता से,मनमानी से ब्याही गई बहने की सिसकी से,पगडंडी की धूल से,तीज-तेवार से,पानी की प्यास से और दोस्तों से बतियाने के अहसास से.

आपने लिखा नहीं विजय भाई
आ गया है वह सब जो मैं ऊपर लिख गया
और प्यारे अशोक भैया ने आपके शब्दों से फ़िर एक बार ये आत्मीय मुलाक़ात करवा दी.

बस विजय भाई इसी रास्ता. पर चलते रहियेगा,
क़लम की नेकी का रास्ता.

Anonymous said...

बहुत सुंदर. ख़ास तौर पर 'प्रेम ही करूँ' और 'दस मौतें' बहुत पसंद आईं. विजयशंकर जी का ब्लॉग मेरे नियमित पठन में शामिल है पर वे इतनी अच्छी (और इतनी सारी) कविता करते हैं ये पता नहीं था. शुक्रिया इस परिचय के लिए.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

बेहद बेबाकी और गहरी सँवेदना से लिखी स्फुर्त कविताएँ बहुत कुछ कह गयीँ - पसँद आयीँ -
इन्हेँ पढवाने का शुक्रिया
- लावण्या

Satish Saxena said...

देवता हैं तैतीस करोड़ ........
हकीक़त बयान की है, इस कविता में चतुर्वेदी जी ने ! मगर इस तारीफ से अधिक कुछ महत्वपूर्ण सवाल और है कृपया जवाब दीजिये !
-आश्चर्य है कि कोई आसमान नही फटा न कोई आहत हुआ ?
-अगर यही कविता असद जैदी या इरफान ने लिखी होती तो ?

Ashok Pande said...

मैं ख़ुद हैरत मैं हूं सक्सेना साहब!

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

कविताओं की सराहना में आप लोगों ने जो शब्द कहे हैं, मैं उनसे अभिभूत हूँ.

सतीश जी, अब मुझे भी शक होने लगा है कि ब्लॉगवाणी पर '२५० से अधिक बार पढ़े जाने' और '१८ पसंदों' के बावजूद लोग किस तरह कल से ही चुप्पी साध कर बैठे हुए हैं! चिट्ठाजगत से भी लोगों ने पढ़ा ही होगा. जो लोग यों ही उदारता दिखाया करते हैं उनका भी कहीं अता-पता नहीं है.

मैंने 'कबाड़खाना' पर यह पोस्ट अचानक देख कर यों ही अशोक पांडे जी से इसकी 'टाइमिंग' के बारे में बात की तो उनके अनुसार पिछले समूचे घटनाक्रम पर उनका यह अपनी तरह का प्रतिकार था.

बहरहाल, इतने अद्भुत ढंग से कवितायें प्रस्तुत करने के लिए अशोक जी को धन्यवाद कहना एक कृत्रिमता होगी, और उनके साथ औपचारिक मैं होना नहीं चाहता. उनका भ्रातृवत स्नेह मेरी पूंजी है.

anurag vats said...

takniki kharabi ke karan vijayji ki kavitayen ab dekhna sambhav ho paya...we kavi hain yh aapne hi bataya ashokji...ab kavitayen khud bata rhi hain ki we wakai achhe kavi hain...aapne chayan bhi sawdhaan kiya hai, isse kavi ka pratinidhi swar sun saka...shukriya...rhi baat waad-wiwaad ki to wh to ab aur spast ho gaya hai ki wh kyon kr hota hai...

Priyankar said...

'साहचर्य' और 'संबंधीजन' अद्भुत कविताएं हैं . कवि तक बधाई पहुंचे .

Arun Sinha said...

Pata nahin kyon Vijay ki "Bayanat" kavita par hath lagaane ki ichchha ho rahi hai (bhale hi is se vah kavita nasht ho jaye!).

Mere sujhav is prakar hain:

1. Antim teen panktiyon ke bina kavita aur shaktishali ho jati hai. In ki sachmuch zarurat nahin hai.

2. In hatayi jane vali panktiyon men se beech ki pankti "Atmahatya ke din pahle tak" ko is kavita ka shirshak hona chahiye.

Vijay, ap is sujhav par vichar kijiye -- phir se hath laga kar dekhiye. Koi karan nahin ki yah apko manya na ho.

Arun

महेन said...

मेरी ज़बान बंद हो गई है और दिमाग सुन्न हो गया है ये चंद कविताएँ पढ़कर। कविता का ये रूप? अशोक जी, अनेकानेक धन्यवाद इस पोस्ट के लिये। विजय जी की कविताओं का मुरीद हुआ।
शुभम।
महेन