Wednesday, July 23, 2008

नाज़िम हिकमत की रुबाइयां

नाज़िम हिकमत की कविता कल आपने उन्हीं की आवाज़ में सुनी थी. यह बात बहुत कम लोगों को ज्ञात है कि नाज़िम ने रुबाइयां भी लिखी थीं. 'पहल' के ७५वें अंक में इन में से चुनिन्दा के वरिष्ठ कवि वीरेन डंगवाल डंगवाल द्वारा किए गए अनुवाद प्रकाशित हुए थे. कहीं रूमानी, कहीं विद्रोही, कहीं दार्शनिक - नाज़िम के तमाम स्वरों को इन रचनाओं में सुना जा सकता है.

पहली श्रृंखला

१.

जो दुनिया तुमने देखी रूमी, वो असल थी, न कोई छाया वगैरह
यह सीमाहीन है और अनंत, इसका चितेरा नहीं है कोई अल्लाह वगैरह
और सबसे अच्छी रूबाई जो तुम्हारी धधकती देह ने हमारे लिए छोड़ी
वो तो हरगिज़ नहीं जो कहती है - "सारी आकृतियाँ परछाई हैं" वगैरह

२.

न चूम सकूं, न प्यार कर सकूं, तुम्हारी तस्वीर को
पर मेरे उस शहर में तुम रहती हो रक्त-मांस समेत
और तुम्हारा सुर्ख़ मूं, वो जो मुझे निषिद्ध शहद, तुम्हारी वो बड़ी बड़ी आंखें सचमुच हैं
और बेताब भंवर जैसा तुम्हारा समर्पण, तुम्हारा गोरापन मैं छू तक नहीं सकता !

३.

ये बाग़, ये नम मिट्टी, ये चमेली की ख़ुशबू, ये चांदनी रात
ये तब भी जगमगाएगी जब मैं बीत जाऊंगा रोशनी से
क्योंकि ये मेरे आने से पहले थी और बाद में मेरा हिस्सा न थी -
इस मूल की सिर्फ़ एक प्रतिलिपि मुझमें दिखाई दी.

४.

एक दिन मां कुदरत कहेगी, "अब चलो ...
अब और न हंसी, न आंसू, मेरे बच्चे ..."
और अन्तहीन एक बार और ये शुरू होगी
ज़िन्दगी जो न देखे, न बोले, और न सोचा करे.

दूसरी श्रृंखला

१.

अपना प्याला शराब से भर लो इस से पहले कि तुम्हारा
प्याला भर उठे ख़ाक से, "खैय्याम ने कहा
हड्डही नाक और बग़ैर जूतों वाला आदमी उसे ताका किया
उसके ग़ुलाब बाग़ में;
"सितारों से भी ज़्यादा दुआओं से भरी इस दुनियां में", वो आदमी
बोला, "मैं भूखा मर रहा हूं;
मेरे पास रोटी ख़रीदने तक को पैसा नहीं,
शराब की तो बात छोड़ो."

२.

"ज़िन्दगी बीत रही है, लूट लो वक़्त का वैभव, इसके पहले कि सो जाओ
नींद न टूटने वाली;
भर लो कांच के पैमाने को सुर्ख़ शराब से नौजवान, भोर हुई जग जाओ"
अपने नंगे बर्फ़ीले ठण्डे कमरे में नौजवान उठा सुनकर चीत्कार
फ़ैक्ट्री की सीटी की, जो देरी के लिए माफ़ नहीं करती.

३.

मुझे बीते दिनों की याद नहीं आती
-सिवा गर्मी की वो रात.
और आख़िरी कौंध भी मेरी आंखों की
तुम को बतलाएगी आने वाले दिनों की बात

तीसरी श्रृंखला

या तो लोग तुम्हें प्यार करे हैं, या वो तुम्हारे दुश्मन हैं
या तो तुम यों विस्मृत होते गोया तुम कभी थे ही नहीं
या फिर तुम एक पल के लिए , दिल से बाहर जाते नहीं ...
कांच सा साफ़ सर्दी का एक बेदाग़ दिन
दांत गड़ाना एक स्वस्थ सेब की पुष्ट-गौर देह पर
मेरी जान, यह सांस लेने जैसा सुखदाई है एक बर्फ़ीले
चीड़ वन में यह तुम्हें प्यार करना.

('पहल' से साभार. नाज़िम की अन्य रचनाएं पढ़ने और उनके लिंक देखने के लिए पिछली पोस्ट को देखें.)

2 comments:

Ek ziddi dhun said...

बरसों पहले मुज़फ्फरनगर की राजकीय लाइब्रेरी से कुछ किताबें कूदे की तरह घास में फेंक दी गयी थीं, उनमें से मुजहे नाजिम की कविताओं की किताब मिली थी (शायद सोमदत्त के अनुवाद थे). वे कवितायें पढ़कर मुझ पर गहरा असर हुआ. बाद में वो किताब एक दोस्त ने उड़ा ली और खो दी. अरसे बाद अब पहल में वीरेन डंगवाल के अद्भुत अनुवाद पढ़े. अब ब्लॉग पर आपने फ़िर नाजिम को पढ़वाया, सच कल से ही नाजिम की कवितों में हूँ. वे अपने ही के कवि लगने लगते हैं, जाने क्यों?

Udan Tashtari said...

पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.