Monday, September 15, 2008

मां, लोटा और बाघ

हिंदी-दिवस गया। हिंदी-रात भी खर्च हो गई। अब नया हिंग्लिश दिन है। मेरा मानना है कि देश के भूगोल के बारे में बात करने से बेहतर है कि एक नागरिक के बारे में बात की जाए। क्यों न हिंदी के एक व्यक्तित्व के बारे में बात की जाए।

........बीते सालों का एक ठेठ बनारसी दिन ........................................

कुछ दोस्तों की मांओं के सामने पड़ने पर सिगरेट वाला हाथ पीठ के पीछे चला जाता है। चला क्या जाता है, उन्हें दिखाते हुए ले जाता हूं यानि सोच रहा होता हूं कि काश मेरी मां भी ऐसी ही होतीं। चांदी में मढ़ा, आत्मविश्वास से दिपदिप सांवला चौड़ा चेहरा, पान से रचे होंठ और बगल में पानदान, माथे पर बड़ी सी लाल खांटी बनारस की बिंदी, उलाहने और मीठी डांट में लयबद्ध काशिका में अंग्रेजी की छींट। वे मेरे एक कवि दोस्त की मां हैं। एक स्कूल में प्रिंसिपल।

अपने युवा दिनों में कविताएं लिखती थीं। अपने भाई के साथ कभी-कभार गोदौलिया पर दि रेस्टोरेंट में और बरामदे में कवि-लेखकों के सहेत-महेत में शामिल होती थी। यह धूमिल, काशी, महेश्वर, नामवर समेत तमाम रचना के ताप से तपते युवाओं का गोल था। सन पचास से साठ के बीच का पुरूष अहंकार से गंधाता, घूरता बनारस और अपनी कविताओं के साथ गोदौलिया पर किसी बहस में उलझी मेरी मां। मुझे गर्व हो आता है।

ठीक है, ठीक है। जानता हूं। वे मेरी असली मां नहीं हैं।

एक दिन। बहुत दिन बाद वे मिलीं। वहां कई हिंदी के नए-पुराने कागज और पिलाश्टिक के सुमन थे। किसी बात के बीच में बेधक वे काशिका में बोलीं, हई नमवरवा बहुत लुच्चा हौ। देश के हिंदी विभागों में अपने रिश्तेदारों और चेलों को भर दिया है, एक से एक गदाई पकड़ कर लाता है और उन्हें लेखक-कवि घोषित कर देता है और वे बदले में इसे साहित्य का अमिताभ बच्चन कहते हैं। जान लो कि हिंदी में साहस खत्म हो चला है। कोई सच लिखने वाला नहीं है।

कोई लिखे तो? मैने इतराते हुए सिगरेट छिपाई।

तो वो जो कहता, मैं खिलाती। सोहारी, दालपूड़ी, ठोंकवा, जाऊर, कटहर की तरकारी, अनरसा, काला जाम, मगदल जो जी चाहे.... कोई लिखने वाला तो हो।

लालच के मारे मेरे मुंह में पानी भर आया।

उन्हें पता नहीं था कि अगले ही दिन बनारस में -नामवर के निमित्त- हो रहा है और हिंदी पट्टी में रेनेसां की कमान उन्हें सौंपी जानी है। यानि पचहत्तर साल के होने पर घनघोर अभिनंदन। मैं अगले पूरे दिन वहीं टंगा रहा। शाम को कागज पर जो लिखा उन्हें दे आया और कई दिन दावत उड़ाई। बाहर बहुत गालियां पड़ी, मित्रों ने कहा साले कालीदास, हिंदी में जिंदा कैसे रहोगे। लेकिन मां ने पीठ ठोंकी। उस थपकी की याद और उस कागज की एक कॉपी इस हिंग्लिश दिन, उछल कर निकल आई। आप भी पढ़िए।


------बनारस, शनिवार ३ अगस्त २००२---------------------------------------------------


आलोचना गांव के ठाकुर नामवर सिंह बोलने (ऑरेटरी) के लिए जाने जाते हैं। यह हुनर उन्हें कुछ इस तरह प्राप्त है कि टिकिट लगा दिया जाए तो भी सोचने और लिखने वाले लोग उन्हें आएंगे। जो जिस हुनर के लिए जाना जाने लगता है उसके प्रति खासतौर से सचेत हो जाता है। अगर मूंछे किसी की पहचान बन जाएं तो वह उन्हें थोड़ा तेल-पानी से चिकना कर रखता है। लिहाजा नामवर भी यूं कुछ नहीं बोल देते। बोलने से पहले पान घुलाते हुए लहरें गिनते हैं।

कुछ लिखते क्यों नहीं, पूछने वालों को उनकी भक्त मंडली बताने लगी है- लिखने का क्या है, वह हद से हद कुछ दशकों की यात्रा है लेकिन वाचिक परंपरा की पगडंडी सदियों लंबी है। सुदूर भविष्य में जाती सूनी पगडंडी के यात्री नामवर ने उस शाम यूपी के कालेज के राजर्षि सभागार में वह वृत्तांत क्यों सुनाया।

स्मृति चिन्ह, अभिनंदन पत्र, शाल-नारियल और अपनी मूर्ति। मालाएं इतनी कि कई दिनों तक गरदन दुखती रही होगी। प्रशंसा इतनी कि कई दिनों तक खीझ होती रही होगी। हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरूष प्रभाष जोशी ने कई प्रधानमंत्रियों से अपनी निकटता का यूं ही रेखांकन करने के बाद कहा कि हिंदी पट्टी में पुनर्जागरण के नायक नामवर सिंह ही हो सकते हैं। बघनख और बम लेकर गली-गली घूमते सांप्रदायिकों और भारत पर जाल फेंकती मल्टीनेशल कंपनियों के इस हत्यारे समय में इस पिछड़े, भुच्च और दीन इलाके की मूर्छित विचार परंपरा को सिर्फ वही जगा सकते हैं। भारतीय मनीषा को रचने और ब्रिटिश साम्राज्यवाद का ध्वंस करने वाले इस हिंदी महादेश के बीमार, कंकाल प्राय ढांचे को बस वही चला सकते हैं।......तो वहां बैठे तुंदियल-तृप्त तेल और तेल की धार देखकर जीवन पथ पर निष्कंटक संचरण करने वाले मास्टरों, लिपिको, लेखकों और समधियों ने मालवा के प्रभाष जी के बाइस्कोप से पुनर्जागरण के महास्वप्न के रशेज और फुटेज देखे।

थकान, यदा-कदा सायास उत्तेजना से तनने वाली, मधुमेह के पाउचों से घिरी ढेरों आंखे उन पर टिकी थीं तभी नामवर सिंह ने वह वृत्तांत सुनाया.........। अठारह सौ सत्तावन के आसपास चंदौली के महाइच परगना के खड़ान गांव में उनके पूर्वज थे शिवरतन सिंह (काशी नाथ सिंह के संस्मरणों में झूरी सिंह) जो अंग्रेजी पलटन में सिपाही थे। जाड़े की एक सुबह कंबल लपेटे, लोटा लेकर निपटान के लिए गए, वहां इलाके में आतंक मचाए एक बाघ ने अचानक हमला कर दिया। बाघ पर कंबल फेंका और लगे लोटे से मारने। आदमखोर से जूझ कर लोटे-लोटे मार ही डाला। पिचके लोटे, चिथड़े कंबल और बाघ की खाल से वीरता के सत्यापन के बाद अंग्रेजों ने उन्हें चंदौली के चार गांव दिए। फिर उन्होंने वह श्लोक सुनाया जिसमें एक गाभिन सिंघनी, आसमान में गरजते बादलों को बरजती हुई कहती है- बादलों मत गरजो, मत गरजो... कहीं ऐसा न हो कि तुम्हे मतवाला हाथी समझ कर मेरा शावक मेरा पेट फाड़कर बाहर निकल आए।

यह हिंदी पट्टी में पुनर्जागरण का महास्वपन देखते शावक की यह गुजरात के रक्त सरोवर में क्रीड़ा करते मदमस्त सांप्रदायिक हाथियों को चुनौती थी। गर्व और शौर्य के उत्ताप से रोंये खड़े हो गए। रोएं खड़े होने के बाद, सभागार में कुर्सियों के चरमराने जैसी एक और जैविक प्रतिक्रिया हुई लेकिन फिर सन्नाटा....। जैसे किसी उबाऊ फिल्म में कोई छू लेने वाला अबोध सा दृश्य आ गया था फिर वही उबासियां।

शायद वहां बैठे दुनियादार लोग जानते थे कि सांप्रदायिक फासीवाद ने मध्यवर्ग को आहत हिंदुत्व की जड़ी सुंघाकर सम्मोहित कर लिया है और मल्टीनेशनलों ने उन सभी को पटा लिया है जो कभी विरोध में बांहे भांजते थे। बच्चे अब मैकडोनाल्ड का बर्गर खाते हुए कटुओं की क्रिकेट मैच में पराजय पर देशी कट्टा दाग रहे हैं। ऐसे में आलोचना के कंबल और सिर्फ लफ्जो के लोटे से यह दानवाकार बाघ कैसे मारा जाएगा। नामवर जी आप ही बताइए।

---------लखनऊ, सोमवार १५ सितंबर २००८-----------------------

उस आयोजन, जिसमें एक शलाका पुरूष ने दूसरे शलाका पुरूष को हिंदी पट्टी के कल्पित रेनेसां का महानायक मुकर्रर किया था, के कोई छह साल बाद मैं, आप दोनों (प्रभाष जी और नामवर जी) से पूछता हूं कि उसके शुरू होने का अगला मुहूर्त कब है?

17 comments:

शिरीष कुमार मौर्य said...

क्या बात है अनिल भाई !
बहुत सार्थक,विचारवान और मज़ेदार भी!
काफी समय बाद कबाडखाने पर कोई मारक साहित्यिक हस्तक्षेप दिखाई दिया है!
हमारे दौर की नामवरी पर बात करना अब ज़रूरी भी है.

अनामदास said...

किसी ने पूछा नहीं कि लोटे से बाघ को मारने में सारा पानी बह गया होगा, फिर धोया कइसे?

ravindra vyas said...

मोहक और मारक।

Ashok Pande said...

अनामदास जी की जानकारी के लिये: नामवर सिंह ने उस आयोजन के बाद से अमुक प्रदेश का प्रक्षालन स्वयं तो बन्द कर ही दिया, अपने अनुचर-अनुयायियों के लिए भी इसे वर्जित घोषित कर दिया था. ज़रा नज़दीक से गुज़रिये इनके ... उफ़, किस क़दर गंधाते हैं बम्पुलिस के माफ़िक.

मेरे नगर हल्द्वानी में एक परिवार के पांच भाई अलग-अलग स्थानों व मौक़ो पर लोटे से शेर मारने का काम अक्सर ही करते रहते हैं (लन्दननिवासी राजेश जोशी ताक़िद करेंगे) - हिन्दी के चक्कर में नहीं पड़े इसलिए अब भी शरीफ़ माने जाते हैं.

ज़बरदस्त लिखा है हे नवकबाड़ी! साधुवाद स्वीकारें हे फ़ुच्ची कप्तान!

Unknown said...

मां से आज बात हुई। व्यंग्य की संटी चलाने से बाज नहीं आती। बोलीं- देखना तुम्हारी पोस्ट से एक सांप निकलेगा। हिंदी के हरकारों के घर जाकर उन्हें सूंघ जाएगा। वे मुखरित होने के सही अवसर की ताक में घात लगाए रहेंगे। यह पंजों के बल, अक्षरों की घास में छिपा बैठा, मठों से आते कपट-मंत्रों की ध्वनि पर ध्यान लगाए अवसरवादी लिखवार ही हिंदी का सबसे बड़ा दुश्मन है।

महेन said...

मैं तुझे खुजाऊँ, तू मुझे खुजा वालों को आपने खुजा तो दिया मगर गलत जगह पर… बहुत्ते दिनों कर खारिश रहने वाली है उनको।

महेन said...

मैं तुझे खुजाऊँ, तू मुझे खुजा वालों को आपने खुजा तो दिया मगर गलत जगह पर… बहुत्ते दिनों कर खारिश रहने वाली है उनको।

Unknown said...

महेन बाबू,
हम ठहरे कबाड़ी। इस दुनिया का सब कुछ रि-साइक्लिंग की विनती करते हमारे ही पास आएगा।

PD said...

बहुत बढिया..
बस मजा आ गया ये संस्मरण पढकर..

मुनीश ( munish ) said...

marvelous ! marhaba ... very tasty ,but im disappointed to discover your secularist credentials hey Yaduvanshi .Anyway,u've got the acid tipped n really lethal arrows -- rare but essential ingredients of a satirist's quiver

मुनीश ( munish ) said...

..but y all intellectuals want to make an Indonesia out of India. I fail to see any reason for mindless Hindu bashing and i think it could have been avoided. Hindus are most innocuous creatures among all hues and forms of homo-sapiens, still they they get only brick-bats from their own educated brethern.

Ek ziddi dhun said...

isiliye habeeb kee mandlee gaatee hai....गुमनामी अच्छी है या अच्छी है नामवरी...

वीरेन डंगवाल said...

bah raja banaras,jame raho.

Vineeta Yashsavi said...

ज़बरदस्त लेखन है आपका. हिन्दी के सबसे बड़े ठेकेदार की कलई खोलने का धन्यवाद.

Ek ziddi dhun said...
This comment has been removed by the author.
Ek ziddi dhun said...

yahan gachha hi kha gaye ji. kalai khol dene ki badhai bematlab hai. vo khud bhi achhi tarh apne baare mein jaante hain aur doosre log bhi. kalai khule ghoom rahe logon ki kalai akhir kitni baar khul saktee hai. kaise ek pratibhashali vyakti poornkalik joogadbaj vyakti hone ko uplabdhi maan leta hai, hamara hindi ka sabse bada thekedar iska udahran hai. aur doosre prabhash joshi ko kya kaha jaaye, vo bhi to apni misaal aap hain..aise hi mahan hain hindi ke

September 17, 2008 3:20 PM

pankaj srivastava said...

का गुरु, सुधरबो ना...कालिज औ युनभर्सिटी म माट्टर तो पहिलेन न बन पायो, अब कथाकारन वाली लिस्टौ से नाम कटवहियौ का...वैसे, बढ़िया है....