Thursday, December 18, 2008

तारों की आकाशगंगा में मिलते रहें हम: चीनी कविताओं की श्रृंखला - अन्तिम भाग



ली पाइ (७०१-७६२), जिन्हें ली पो और ली थाइ पाइ के नाम से भी जाना जाता है, उत्तर पश्चिमी चीन के रहने वाले थे. बचपन में ही उनका परिवार सद्दवान प्रान्त चला गया था. वहीं उनका बचपन और कैशोर्य बीता. चालीस वर्ष के होने पर वे छांग आन (तब का एक समृद्ध चीनी नगर जिसे राजधानी का दर्ज़ा प्राप्त था) की शाही अकादमी में शामिल हुए. वे घुमक्कड़ प्रकृति के एक बहुत ही मस्त जीव थे. तभी चीन का प्रसिद्ध आन लू शान विद्रोह भड़क उठा. ली पाइ शाही कोप के शिकार बने और उन्हें उत्तर पश्चिम में निष्कासित कर दिया गया. बाद में उन्हें क्षमादान मिला और वे वापस आ गए. ७६२ में उनका देहावसान हो गया.

ली पाइ अपने समकालीनों में कवि के तौर पर सर्वाधिक काव्यप्रतिभासम्पन्न थे. उनकी कविता में, लगता है, जैसे उनके भीतर से ही प्रकृति के दृश्यरूप प्रकट हुआ करते थे. राजे-रजवाड़ों और अधिकारियों से उन्हें उबकाई आती थी. इसलिए जब आन लू शान का विद्रोह भड़का तो जाहिर है उनकी शामत आनी ही थी. एक बार उन्होंने लिखा : "मैं पूरे एक महीने शराब में डूबा रहा, रजवाड़ों और ज़मींदारों से एकदम विमुख. मैं कैसे अमीरज़ादों और महान लोगों की सेवा में हाज़िर हो सकता हूं." लेकिन जनता के दुःख-दर्द और जीवन के वे हमेशा समीप रहते थे. उन की कविता में शोक, मौज-मस्ती और प्रकृति से अभिन्न अनुराग गोया अलग अलग किया ही नहीं जा सकता.


चांदनी में एकान्त-पान

फूलों के बीच मदिरापात्र लिए हाथ में
पीता हूं अकेला मैं, नहीं कोई हमप्याला
उठाता हूं जाम, आमंत्रित करता हूं चांद को
और फिर साथ में मेरा साया, हम हो गए हैं तीन
चंद्रमा को नहीं मालूम पीने का मज़ा
और मेरा साया बस चलता है मेरे पीछे-पीछे
फिर भी हों वे मेरे साथ
कौन गंवाए आनन्द की यह घड़ी
मैं गाता हूं, चंद्रमा मटरगश्ती करता है
मैं नाचता हूं, उलझन में पड़ जाता है मेरा साया
होश तक पीता हूं उनके साथ
धुत्त होने पर लेता हूं विदा
आगे भी उड़ावें हम दावत साथ-साथ
तारों की आकाशगंगा में
मिलते रहें हम

सीढ़ियों की शिकायत

संगमरमरी सीढ़ियों पर प्रकट है शुभ्र ओस
और लम्बी रातों में निचुड़ आती हैं मेरी जुराबों में
अब मैं इस पारदर्शी पर्दे को गिराता हूं
इस से होकर ताकता हूं शरद के चांद को

एक पहाड़ी पर: सवाल जवाब

पूछते हो क्यों मैं रहता हूं इस हरी-भरी पहाड़ी पर
मुस्कराता हूं मैं, हृदय चुप और प्रशान्त
बहते जल पर जाते आडूपात कहीं सुदूर
एकदम अलग धरती, एकदम अलग आसमान
एक्दम अलग नीचे की दुनिया से



इस सीरीज़ के सारे अनुवाद श्री त्रिनेत्र जोशी के हैं. उन्होंने इनका इस्तेमाल करने की इजाज़त दी, इस के लिए कबाड़खाना उनका आभारी है.

3 comments:

मुनीश ( munish ) said...

cheen desh mein saanp -bichchu khakar kbhi log vahi aadmee si baat karte hain . kamal hai ji.

मुनीश ( munish ) said...

vaise kabhi fir se Israel ki kavita chadhayen to inayat hogi.

siddheshwar singh said...

अच्छी कवितायें बाबूजी !