Friday, December 19, 2008

इज्ज़त-ओ-तकरीम से देहली में दफ़नाएं उसे

'१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र' पुस्तक का जिक्र मैंने ब्लॉग 'आज़ाद लब' में पिछले दिनों किया था, उसकी भूमिका है यह. पुस्तक के संकलनकर्ता-संयोजक और लेखक डॉक्टर विद्यासागर आनंद ने यह भूमिका लिखी है. इस भूमिका की यह आख़िरी कड़ी है- विजयशंकर चतुर्वेदी)


(पिछली कड़ी से जारी)

...यह एक अजीब पर इतिहास का विषम तथ्य है कि जिस प्रतापमयी व्यक्तित्व ने अपना देश स्वतन्त्र करने के लिए संघर्ष किया उसकी लाश यथासमय एक विदेशी धरती में दफ़न है. हम और इस पुस्तक में लिखने वाले सभी लोग भारत सरकार से मांग करते हैं कि भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में भाग लेने वाले जियाले सपूतों के महानायक तथा सम्मान योग्य भारतीय सपूत के साथ न्याय किया जाए और उनकी लाश को पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनके पैतृक देश में लाकर दफ़न किया जाए. यह व्यक्तित्व निस्संदेह ही भारत के लिए गौरव का स्रोत है और स्वतन्त्र भारत को इसका आभारी और शुक्रगुज़ार होना चाहिए.

सन् १८५७ की याद में आयोजित किए गए एक सौ पचास वर्षीय समारोह के अवसर पर उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर गुलज़ार ने लाल क़िला परिसर में हमारे मनोभाव का सीधा-सच्चा प्रतिनिधित्व करते हुए सरकार की ओर से आयोजित इस समारोह में यह इच्छा प्रकट की थी कि बहादुरशाह ज़फ़र की लाश को वापस दिल्ली लाया जाए. भारतीय राष्ट्र के विभिन्न चिंतन-समूह के प्रतिनिधियों ने उनके विचारों की खुले मन-मस्तिष्क से प्रशंसा व सराहना की. खेद का विषय है कि इस बड़ी ऐतिहासिक ग़लती के सुधार के लिए कोई क़दम नहीं उठाया गया.

आने वाली पीढियाँ इस बात का निर्णय करती हैं कि राष्ट्र अपने शहीदों के प्रति किस प्रकार का बर्ताव करता है. इस पृष्ठभूमि में देखा जाए तो लगता है कि भारतीय जनता बहादुरशाह ज़फ़र की लाश को भारत लाकर इस धरती में दफ़न करना चाहती है तथा उनके मज़ार पर उचित 'कत्बा' लगाना चाहती है परन्तु भारत के सत्ताधारी लोग इस 'जनमत' को महत्त्व नहीं दे रहे हैं

बहादुरशाह ज़फ़र हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी और पंजाबी भाषाएँ धारा-प्रवाह बोलते थे. उन्होंने इन भाषाओं में अनेक नज़्में, ग़ज़लें कही हैं. इनमें उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता का प्रबल शब्दों में समर्थन किया है तथा धार्मिक उन्माद, कट्टरता, घृणा और असहिष्णुता की खुली भर्त्सना व निंदा की है. आज भारत को ऐसे लोगों की बड़ी आवश्यकता है जो बहादुरशाह ज़फ़र जैसी सोच, व्यापक-हृदयता, सच्चाई और रोशन-ख़याली के प्रतीक हों. मौजूदा हालात में, जब धार्मिक कट्टरता से वातावरण दूषित किया जा रहा है बहादुरशाह ज़फ़र के व्यक्तित्व और कटिबद्धता से सहनशीलता के प्रचार-प्रसार की बड़ी आवश्यकता है.

मेरे पास शब्द नहीं और मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं उन सब महानुभावों को कैसे धन्यवाद दूँ जिन्होंने इस पुस्तक के लिए अपने बहुमूल्य समय में से वक़्त निकालकर हमारे निवेदन पर लेख लिखे और अपने सुझाव भी दिए, मेरी सहायता की और साहस बढ़ाया.

साहिर शीवी और सैयद मैराज जामी की पत्रिका 'सफ़ीरे उर्दू' के द्वारा हमें बहुत से लेख प्राप्त हुए. 'सफ़ीरे उर्दू' का बहादुर शाह ज़फ़र विशेषांक मेरे ही निवेदन पर प्रकाशित किया गया था. बारह वर्ष पूर्व मोइनुद्दीन शाह साहब (मरहूम) ने अपनी पत्रिका 'उर्दू अदब' का बहादुरशाह ज़फ़र विशेषांक प्रकाशित कर ज़फ़र को श्रद्धांजलि दी थी. इस पुस्तक में कुछ लेख उल्लिखित विशेषांक से भी लिए गए हैं. अंत में उर्दू के विश्वसनीय लेखक व प्रकाशक 'खादिम-ए-उर्दू' (उर्दू-सेवक) प्रेमगोपाल मित्तल साहब की सेवाओं को भी नहीं भुलाया जा सकता जिन्होंने प्रस्तुत पुस्तक की साज-सज्जा में अपना बहुमूल्य समय लगाया.(समाप्त)

-डॉक्टर विद्यासागर आनंद

पुस्तक: '१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र', सम्पादक: डॉक्टर विद्यासागर आनंद, प्रकाशक: माडर्न पब्लिशिंग हाउस, ९ गोला मार्केट, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२. पृष्ठ ५७६, मूल्य ६०० रूपए.

4 comments:

Ashok Pande said...

बहुत ज़रूरी सीरीज़ यहां शाया करने का अहसान विजय भाई!

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

क्या अशोक भाई, आप भी! खामखाँ शर्मिन्दा कर रहे हैं.

siddheshwar singh said...

आपकी इस विनम्रता पर बलिहारी भाई विजयशंकर जी.बहुत उम्दा सीरीज!!

Smart Indian said...

गुलज़ार ने ... यह इच्छा प्रकट की थी कि बहादुरशाह ज़फ़र की लाश को वापस दिल्ली लाया जाए.
किया क्यों खून से तर, मेरा क़त्ल किसने किया
गुज़र गया हूँ, सवालात का अब क्या मतलब

मुझे सताया मेरी लाश को तो सोने दो
मर गया हूँ, खुराफात का अब क्या मतलब।