Saturday, February 21, 2009

जयपुर का म्यूज़ियम, मिश्र की ममी, बारोक पेन्टिंग्ज़ और चोट्टे की जिज्ञासा



इस बार जयपुर में साथ में हमारी मित्र सोनिया भी थी. वियेना में रहने वाली पेशे से मानवशास्त्री सोनिया ने बाली और थाईलैंड की जनजातियों पर महत्वपूर्ण शोधकार्य किया है. उसका स्वाभाव एक नैसर्गिक घुमन्तू का है. तीन - चार दिन जयपुर और आसपास रहने - घूमने की योजना थी.

जयपुर में उस रोज़ सोनिया गांधी की रैली थी. हज़ारों-हज़ार स्त्री-पुरुष पैदल, बसों में लदे-ठुंसे सोनिया गांधी को देखने-सुनने की नीयत से राजस्थान के तमाम इलाकों से पहुंचे थे. जगह-जगह ट्रैफ़िक जाम. हमारी वाली सोनिया को कुछ फ़ोटू वगैरह लेने का अच्छा मौका मिल गया.

पहला भ्रमण म्यूज़ियम का तय हुआ क्योंकि वह रास्ते में पड़ गया.

संग्रहालय में प्रदर्शित की गई चीज़ें जाहिर है वैसी ही थीं जैसा उन्हें होना चाहिए था: कुछ परम्परा, कुछ इतिहास, पार्श्व में हल्का राजस्थानी संगीत वगैरह वगैरह. यह सब देखने में मसरूफ़ हो ही रहे थे कि दिल्लीवाली सोनिया के भक्तों का रैली से छूटा रेला किसी अंधड़ की तरह संग्रहालय में घुस आया. छः फ़ीट लम्बी ख़ूबसूरत हमारी वाली सोनिया उस रेले को संग्रहालय में प्रदर्शित अन्य दुर्लभ वस्तुओं जैसी ही प्रतीत हुई. मानवशास्त्री सोनिया के लिए भी घूंघट कढ़ी ग्रामीण महिलाओं की तनिक सकुचाई भीड़, भिन्न आकारों की मूंछों से सुसज्जित मर्दाना चेहरे और मांओं का हाथ थामे बड़ी-बड़ी आंखों से अगल-बगल देखते बच्चे, उसकी सतत -अनुसंधानरत जिज्ञासा के कारण बहुत दिलचस्प विषय थे. क़रीब दस मिनट चले इस पारस्परिक सांस्कृतिक आदान-प्रदान के उपरान्त स्थितियों के सामान्य होने पर ही संग्रहालय दर्शन का कार्य पुनः चालू हुआ.

एक जगह बहुत सारी भीड़ जमा हो कर झुकी हुई कुछ देख रही थी. पास जाकर देखा तो वही चीज़ थी जो मुझे बचपन में तमाम संग्रहालयों में सबसे ज़्यादा आकर्षित करती थी. मिश्र की ममियां सम्भवतः हमारे देश के हर बड़े म्यूज़ियम में धरी हुई हैं. क्यों धरी हुई हैं और क्या वे असली हैं - ये सवाल हैं जो निवाड़ सरीखी पट्टियों में लिपटी सदियों से सुरक्षित मृत मानव देहों (अगर वे देहें ही हैं तो ... अपने मुल्क में अदरवाइज़ सब कुछ पॉसिबल है) को देखते हुए मुझे थोड़ा-बहुत परेशान करते हैं. यानी आप अभी अभी मीणा, भोपा, भील और लोहार इत्यादि जनजातियों की जीवनशैली का मुआयना कर रहे थे और अचानक यह ममी. ... क्या तमाशा है भाई!

इस से भी बड़ा तमाशा आगे आने को था. एकाध ख़ाली दीवारों को भर देने की नीयत से ब्रिटिश काल की कुछ बारोक पेन्टिंग्ज़ सजाई गई थीं. आप जानते हैं न विक्टोरियन काल की बारोक पेन्टिंग्ज़ कैसी होती थीं - किसी सुरम्य भारतीय लोकेशन पर कोई अंग्रेज़ पार्टी वगैरह हो रही होती थी जिस में लोगों की संख्या एक से लेकर दर्ज़नों तक हो सकती थी. हाथों में ट्रे लिये साफ़े-पगड़ियां बांधे भारतीय चाकरों की टोलियां होती थीं और हां इन चित्रों का सबसे ज़रूरी तत्व होता था कुछ गोरी महिलाओं की उपस्थिति. ये स्त्रियां आमतौर पर तनिक मुटल्ली होती थीं और इन्हें अपने ऊपरी बदन को ढंकने से किसी डॉक्टर ने मना किया होता था.

म्यूज़ियम के भीतर काफ़ी उमस लगने लगी थी और हम बाहर निकलना चाह रहे थे. सोनिया ने दबी सी मुस्कान से मुझे उधर देखने को कहा: मूंछों, नंगे पैरों और सूरज में तपी झुर्रियों वाले साठ-सत्तर की उम्र के कुछ बुज़ुर्ग ग्रामीण पुरुष उक्त पेन्टिंग्ज़ में पाई जाने वाली उक्त महिलाओं के अंगों के बारीक अनुसंधान में रत थे. दबे स्वरों में एक दूसरे से कुछ कहते भी जाते थे. हॉल के बीच में खड़ी महिलाओं के अब ऊबा हुआ दिखने लगे झुंड की तरफ़ चोर निगाह कर एक बुज़ुर्ग सम्भवतः अपनी पत्नी को ताड़ने की कोशिश करते दिखाई दिए कि कहीं उन्हें तो नहीं ताड़ा जा रहा. वे निश्चिन्त हो कर पुनः अपने अनुसंधान में लीन हो गए.

मेरे भीतर बैठा शरारती चोट्टा हंसता हुआ मुझसे पूछता है कि ताऊ जी क्या सोच रहे होंगे. "पधारो म्हारे देस" - चोट्टा ख़ुद ही जवाब भी देता है.

(अगली किस्त का इन्तज़ार कर सकते हैं)

6 comments:

नीरज गोस्वामी said...

बहुत गज़ब का लिखा है भाई...इतना रोचक वर्णन बहुत दिनों बाद कहीं पढने को मिला...वैसे हम जयपुर के हैं सो पढने जो मजा आया...बता नहीं सकते...अगली किश्त का बेताबी से इंतज़ार रहेगा...जल्दी कीजियेगा...

नीरज

P.N. Subramanian said...

आपकी सोनिया भी कम शरारती नहीं लगी. मजेदार पोस्ट रही. अगली की प्रतीक्षा करनी ही होगी. आभार.

समयचक्र said...

मजेदार पोस्ट रही. अगली की प्रतीक्षा...

अजित वडनेरकर said...

हमे सोनिया जी की तस्वीर देखनी है :)
दिलचस्प वृत्तांत ...

मुनीश ( munish ) said...

sahi hai badhiya!

मुनीश ( munish ) said...

in fact , i was also bewildered to c that mummi there !