Monday, March 9, 2009

सफ़रनामा पूना से मारुति ८०० कार बागेश्वर पहुंचाने का: चौथा हिस्सा

सफ़रनामा पूना से मारुति ८०० कार बागेश्वर पहुंचाने का: चौथा हिस्सा

-शम्भू राणा



रज्जन बाबू और मैं वहीं बैठे रह गए. एक टहनीनुमा जो पेड़ था, उसकी छाया के साथ-साथ सरकते रहे और ट्रकों में लदा लाखों-करोड़ों का माल-असबाब इधर से उधर होते देखते रहे. दूर जो ढाबा था वह मुझे बार-बार इशारा कर रहा था. हमारे पास २४-२५ साल का एक नौजवान हाथ में नुकीला हंसिया लिए आन बैठा. वह बताने लगा कि हमारा गांव उस तरफ़ है ऊपर वहां. वह घर में कपड़े सीने का काम करता था. शादी उसकी अभी नहीं हुई थी. घास काटने आया था. नाम उसने कुछ बताया था अपना. बताने लगा कि हमारे बाबा जब कोई मोटर इसी तरह ख़राब हो जाती थी तो रात भर उसकी रखवाली करते थे, सौ-पचास रुपये लेते थे. काफ़ी देर हम उससे बतियाते रहे - खेती-बाड़ी, गाय-भैंस, न जाने क्या-क्या. ढाबे का बुलावा अनसुना करना अब मुमकिन नहीं रह गया था. मजबूरन गाड़ी बन्द की और जाकर चाय पी आए.

दो-ढाई घन्टे बीत चुके थे केशव को गए. हमें फ़िक्र होने लगी. फ़ोन किया तो पता चला मैकेनिक मिल गया है, आ रहे हैं. धीरे-धीरे शाम घिरने लगी, अंधेरा गाढ़ा होता जा रहा था. मोटर गाड़ियों ने बत्तियां जला ली थीं. केशव जिधर गया था उस ओर से आने वाली हर गाड़ी को हम बड़ी उम्मीद से देख रहे थे. बड़ी देर बाद एक मारुति वैन हमारे पास आकर रुकी जिसमें से केशव और दो मैकेनिक बाहर निकले. मैकेनिकों ने पहले वैन के अन्दर ही रोज़ा खोला. गाड़ी को देखकर उन्होंने बीमारी बताई कि इसका फ़लां पुर्ज़ा जल गया है और पंखे में गड़बड़ी है. पुर्ज़ा हम बदल देते हैं, पंखे को सीधा बैटरी से जोड़ देते हैं. जब रुके तो इसे डिसकनेक्ट कर दें. बाकी सब खैरियत है. वैसे हम दुकान से बाहर जाते नहीं मगर आप परदेसी आदमी हैं ... रोग की पहचान और निदान में एक डेढ़ घन्टा और बीत गया. सात-आठ सौ रुपयों का बिल बना. आशीर्वादनुमा आश्वासन मिला कि भाईसाहब जहां तक मर्ज़ी हो जाएं, कोई दिक्कत नहीं होगी. यकीन न हो तो हम साथ चलें.

पांच-छः घन्टों के बाद फिर चल पड़े. अब सामना था गड्ढों भरी सड़क, दनदनाते फिरते ट्रकों और धुंध की तरह छाई धूल से. यह सब दिन में भी था मगर रात में ज़्यादा डरावना और परेशानी पैदा करने वाला होता है. ज़्यादातर ट्रकवाले सिर्फ़ एक हैडलाइट जला कर क्यों चल रहे थे न जाने! कन्डक्टर की तरफ़ वाली हैडलाइट जली होने और धूल की वजह से दूर से भारी-भरकम ट्रक किसी दुपहिये का धोखा दे रहा था -मतलब कि भिड़ंत की पूरी संभावना और उस पर तुर्रा ये कि सामने वाले की आंखें चुंधियाने से बचाने के लिए जो ज़रा रोशनी हल्की करने का नियम है उसका मानो किसी को पता ही नहीं. न चाहने के बावजूद जब भी रात का सफ़र करना पड़ा, एक दो ने ही इस नियम का पालन किया, बाकी के सब समरथ को नहिं दोष गुसांईं माननेवाले थे.

दर्ज़न भर पहियों वाले ट्रकों की रेलमपेल में मारुति ८०० कार की औकात हाथियों की भगदड़ में फंसे मॆंढक जितनी ही समझिये. ऐसे में अगर वह मेंढक सही सलामत अपने बिल में पहुंच जाए तो कहने वाले इसे भाग्य या संयोग कहेंगे, मैं बेहयाई कहना चाहूंगा. हम भी हयादार कहां थे.

दो-एक घंटे चलने के बाद तय हुआ कि अब और चलना ठीक नहीं गाड़ी एकाध बार संकेत भी दे चुकी थी कि तबीयत उसकी बहुत अच्छी नहीं. आगे न जाने कैसी जगह हो, कहां फंस जाएं. कहीं पर ठीकठाक सी जगह देख कर रुक लिया जाए. एक कस्बेनुमा जगह में वह रात बीती. उस जगह का नाम हम तीनों में से किसी को याद नहीं. हां गेस्टहाउस का नाम ज़रूर याद है क्योंकि जब बागेश्वर केशव के पास जाना हुआ, कई बार उसी नाम के गेस्टहाउस में रुके - नीलकंठ गेस्ट हाउस. जैसा कि पहले बताया वह दशहरे यानी त्यौहार मतलब छुट्टी का दिन था. शायद इसीलिए गेस्टहाउस वीरान पड़ा था. मात्र एक आदमी बैरा, मैनेजर, गाइड, स्वच्छक वगैरग के रोल निभा रहा था. वह नौजवान इस कदर सीधा/ उल्लू का पट्ठानुमा था कि लगता था बाकी स्टाफ़ ने त्यौहार के दिन ड्यूटी करने के लिए उसे बलि का बकरा बनाया गया होगा.

रज्जन बाबू के साथ जाकर वह बाहर से खाना पैक करा लाया. हमने कहा कि भय्याजी कमरे में केबिल तो है पर टीवी नहीं, तो वह जाकर टीवी उठा लाया. स्टार मूवीज़ में टाइटैनिक फ़िल्म चल रही थी. रज्जन बाबू ने बताया कि जब वे लोग खाना लाने बाहर गए तो भय्याजी ने कहा कि भय्याजी आपको दशहरे की बधाई. आपने घर फ़ोन करके बधाई कह दिया होगा. रज्जन बाबू ने उसका दिल रखने को कह दिया कि हां मैंने सुबह ही फ़ोन कर दिया था. उस आदमी का बोलना कुछ ऐसा था जैसे गुनाह करके माफ़ी मांगने आया हो. सोने से पहले हमने उससे कहा कि भय्याजी सुबह को जल्दी जगा देना और चाय पिलवा देना.

सुबह पांचेक बजे दरवाज़े पर दस्तक हुई. मैंने उठकर दरवाज़ा खोला, भय्याजी चाय लाने चले गए. क़रीब दस मिनट बाद भय्याजी तम्बाकू की पिण्डी की तरह सुतली से बंधी तीन पुड़िया ले कर आए कि लीजिये भय्याजी नाश्ता कर लीजिये. पूड़ा लाया हूं, ताज़ा बन रहा था. पांच रुपये का एक है. मैंने तीनो पूड़े बैग में रख लिए ताकि उसे बुरा न लगे. इतनी सुबह कुछ भी खाने का मतलब ही नहीं था. पांचेक मिनट बाद भय्याजी फिर आकर बोले कि नाश्ता कर लिया? चाय वाले को मैंने बाहर बिठा रखा है ताकि आप आराम से नाश्ता कर लें. उसकी भलमनसाहत के कारण चाय थोड़ा ठण्डी हो गई थी. चलते वक़्त उन्होंने हमें फिर कभी ज़रूर आने को कहकर विदा किया.

(अगकी किस्त में जारी है)

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दूसरी किस्त का लिंक
तीसरी किस्त का लिंक

3 comments:

Naveen Joshi said...

इसे पहले नैनीताल समाचार मेँ पडा था. दोबारा भी उतना ही रोचक लगा.शम्भू राणा का गद्य सचमुच बहुत रोचक है,खनखनाता हुआ.

sanjay vyas said...

इस वृत्तान्त का मिलना ऐसे है जैसे घर के कबाड़ में मिला बरसों पुराना प्रेम -पत्र जिसकोजब भी पढा जाय,खुमारी बढती जाती है. पता नहीं प्रेम पत्र वाली उपमा एक चूक है या अचूक पर अभी असर तो वैसा ही है.कल आप घपला कर गए, दूसरी कड़ी आकर गायब भी हो गयी जिसे खोज कर निकाला गया.

मुनीश ( munish ) said...

yatravratt kee kadiyon kee raftar bhi highway drive ka maza de rai hai jee.