Friday, May 29, 2009

ताकि लोग कभी न सोच पाएं कि रहा जा सकता है प्यार की ललक के बग़ैर.



समकालीन ईरानी कवयित्री फ़रीदे हसनज़ादे मोस्ताफ़ावा अपने एक इन्टरव्यू में कहती हैं: "मैं बौदलेयर पर यकीन करती हूं जिसने कहा था कि किसी शरीर में प्रवेश करने की इच्छा लिए भटकती किसी आत्मा की तरह कवि भी किसी भी शख़्स के व्यक्तित्व के भीतर प्रविष्ट हो सकता है."

उनका एक कविता संग्रह है - 'रिमोर्सफ़ुल पोयम्स'. आधुनिक समाज की विभीषिकाओं से सतत जूझती रहने वाली स्त्री उनके सरोकारों में सरे-फ़ेहरिस्त है. उनकी बहुत सी कविताएं साफ़ राजनैतिक दृष्टिकोण लिए हुए हैं जिनमें वे युद्ध और तबाही के लिए ज़िम्मेदार अमरीका को अपने निशाने पर रखती हैं.

एक अच्छी रचनाकार होने के अलावा फ़रीदे फ़ारसी भाषा की खासी नामचीन्ह अनुवादिका हैं. उनके अनुवादों में प्रमुख हैं टी. एस. ईलियट, गार्सिया लोर्का, मारीना स्वेतायेवा, यारोस्लाव साइफ़र्त और ख़लील जिब्रान आदि महाकवियों की रचनाओं पर आधारित पुस्तकें. इधर उन्होंने बल्गारिया की बड़ी कवयित्री ब्लागा दिमित्रोवा की कविताओं का फ़ारसी और अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है.

कविता को लेकर उनका नज़रिया बहुत साफ़ है. वे अपनी एक कविता में कहती हैं:

"एक सी दयालुता के साथ
सारे मृतकों का स्वागत करती है धरती
लेकिन आक्रान्ता महसूस करता है
कि उसका मकबरा हमेशा के लिए आराम करने के हिसाब से
थोड़ा ज़्यादा ही अंधेरा और संकरा है.
निरपराध आदमी वापस पाता है अपनी मुस्कान
जैसे कोई नवजात अपनी माता की बांहों में."


कल मैंने फ़रीदे की एक कविता पोस्ट की थी. उसी में किए गए वायदे के मुताबिक आज एक अपेक्षाकृत लम्बी पोस्ट प्रस्तुत है. जैसा मैंने बताया था ये अनुवाद कबाड़ख़ाने के लिए विशेषतौर पर रुड़की निवासी श्री यादवेन्द्र पांडे ने किए हैं. एक बार पुनः उनका आभार.




मेरी ख़्वाहिश

काश मैं सर्दियों में जम जाती
जैसे जम जाता है पानी धरती पर बने छोटे-बड़े गड्ढों में-
कि चलते-चलते लोग ठिठक कर देखते नीचे
कैसी उभर आई हैं मेरी रूह में झुर्रियां
और टूटे हुए दिल में दरारें.

काश मैं कभी कभार
दहल जाती धरती जैसे लेती है अंगड़ाई
और मुझे संभाले हुए तमाम खम्भे धराशाई हो जाते पलक झपकते
तब लोगों को समझ आता
मेरे दिल के तहखाने में कैसे कलपता है दुःख

काश मैं उग पाती
हर सुबह सूरज की मानिन्द
और आलोकित कर देती
बर्फ़ से ढंके पर्वत और धरती
ताकि लोग कभी न सोच पाएं
कि रहा जा सकता है प्यार की ललक के बग़ैर.

ग़ुलाब

आदमी
जब सोए
तो लाश जैसा होता है.
बतियाए
तो मधुमक्खी जैसा.
जब खाए
तो मेमने सा दिखता है.
जब यात्रा पर निकले
तो लगता है घोड़े जैसा.
जब कभी वह सटकर खड़ा हो खिड़की से
और बारिश की दुआएं करे ...
या जब वह देखे कोई लाल ग़ुलाब
और मचल जाए उसका मन
थमाने को वह लाल ग़ुलाब किसी के हाथों में
केवल तभी होता है
वह
आदमी.

(अनुवाद: यादवेन्द्र पांडे. यह फ़रीदे पर लगने वाली अन्तिम पोस्ट न मानी जाए. यादवेन्द्र जी ने और भी अनुवाद किए हैं पर ब्लॉगपोस्ट की एक सीमा होती है. सो बाकी के अनुवाद भी कभी ज़रूर लगाए जाएंगे)

8 comments:

ravindra vyas said...

अशोकजी, बढ़िया अनुवाद है। निश्चित ही कबाड़खाना की यह उपलब्धि है यादवेंद्र जी के ये अनुवाद। उन्हें बधाई और आपको भी।

mahesh said...

दोनो अनुवाद उत्कृष्ट लगे.
पहली कविता ज़्यादा गहरी और काव्यात्मक है.
अनुवादक और प्रस्तोता दोनो बधाई स्वीकारें.

nutan said...

aah...hriday se nikli hui sundar kavita
anuwadak aur prastutkarta ka dhnyawad

अनिल कान्त said...

bhai maza aa gaya ye rachnayein padhkar...behtreen

Anonymous said...

खूबसूरत कविता है और अभी भी खूबसूरत किसी भी भाषा को अनुवाद करने के लिए
है दोस्त, अपने ब्लॉग पर जाकर, मेरे ब्लॉग को ठीक करने के लिए वापस जाएँ ...

काशिफ़ आरिफ़/Kashif Arif said...

बहुत ही खुबसुरत कविता ! बधाई

काशिफ़ आरिफ़/Kashif Arif said...

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हरकीरत ' हीर' said...

काश मैं उग पाती
हर सुबह सूरज की मानिन्द
और आलोकित कर देती
बर्फ़ से ढंके पर्वत और धरती
ताकि लोग कभी न सोच पाएं
कि रहा जा सकता है प्यार की ललक के बग़ैर.

वाह ....लाजवाब....!!

या जब वह देखे कोई लाल ग़ुलाब
और मचल जाए उसका मन
थमाने को वह लाल ग़ुलाब किसी के हाथों में
केवल तभी होता है
वह
आदमी.

बहुत ही उम्दा अभिव्यक्ति.....!!

अशोक जी दोनों ही कवितायेँ बहुत ही गहरा अर्थ लिए हुए हैं और अनुवाद तो इतना बेहतर है की लगता ही नहीं कि अनुवाद किया गया है ....यादवेन्द्र जी को बहुत-बहुत बधाई ....!!