Thursday, May 7, 2009

हाय सदानीरा, खाओ खीरा, वाटर बना रहेगा


बेशुमार गंदगी। कूड़ा-कतवार, गदहे, कुत्ते, गायें और आदमी की भी लाश...ऐन सामने, कई दिन से सड़ती हुई। पानी की लहरों से उसके चीथड़े कट-कट कर बह रहे हैं।
शून्य में अटकी आंखों वाले बदहवास लगते (होते नहीं) कपड़े और चप्पल किसी की निगरानी में देकर आते हैं। कुछ बुदबुदाते हुए कूड़ा और लाशों के चीथड़े ठेल कर कोई ढाई-तीन फीट का गोल दायरा बनाते हैं। फिर पांच डुबकियां। बाहर निकल कर घंटे-घड़ियाल के शोर के बीच ढेरों रस्में फिर दबा के कचौड़ी-जलेबी और घर की ओर प्रस्थान।
उनकी कल्पना में यह बात, किसी भी तरह समाती ही नहीं कि वे गंगा के लिए कुछ कर सकते हैं। कुछ करना चाहिए।
वे एक अदृश्य मोक्षदायिनी नदी में नहाते हैं जो स्मृति में बहती है। जिसका सचमुच कोई अस्तित्व नहीं है।
भगीरथ तपस्या कर रहे हैं, साठ करोड़ पुरखे कोढ़ियों की तरह कुलबुलाते हुए मोक्ष की याचना कर रहे हैं। शिव की जटा में, चंद्रमा से सट कर पानी की धवल धार खेलती है और मोक्ष देने के लिए बह निकलती है।
वे गंगा से सिर्फ लेना जानते हैं, देना नहीं। देने की तो सोच भी नहीं सकते। कल्पना में ही नहीं समाती यह बात।
कल हर शहर में बहते सबसे उपेक्षित और गंदे नाले को गंगा बताया जाएगा और लोग उसमें अटूट श्रद्धा से बुदबुदाती आभा वाले अपने चेहरे गोत देंगे। हर-हर गंगे। कल्याण करो मां।
यह गंगा है। ये उसके घाट हैं। यह अपना शहर है। यह अपना कस्बा है। यह अपना सूबा है। यह अपना देश है। यह हमारा समाज है। यह सबकुछ सचमुच है और हम इसी के हिस्से हैं। हम चाहें तो इसमें हस्तक्षेप कर हालत को बदल सकते हैं। ये फर्जी बातें हैं। ऐसा भला संभव है क्या। ये सब कहीं कुछ नहीं है। हम भी नहीं है। सब माया है। माया में बड़ा मजा है। सब लूट रहे हैं हमारे हिस्से भी थोड़ा सा। क्या हर्ज है। ईश्वर हमारा भी है। जैसे उसने औरों को हरामीपन की छूट दे रखी है हमें भी दे। नहीं देता तो काना है। एक आंख देखता है। बीच-बीच में देखता है। जरा दयालु है। उसी की कृपा से यह जीवन चल रहा है।
औसत भारतवासी एक ईश्वर के रचे अमूर्त (उसके लिए प्रत्यक्ष) लोक में रहता है जहां वह सिर्फ आदेश ग्रहण कर सकता है, कहीं हस्तक्षेप नहीं कर सकता। उसके आत्मविश्वास को बुरी तरह कुचल दिया गया है, ये सपने ही उसे कुछ करने की पीड़ा से मुक्ति देकर, ईश्वर की कुटिल-स्नेहिल छांव में सुलाए रखते हैं। यही जादई यथार्थवाद है कि आदमी यहां रहते हुए भी यहां और यहां का नहीं है।
Now, the bark has dogged
Now, the sing kas cocked
Now, have chimed the great rings belled
And the bray has donkeyed
And the screech has birded
And the grunt has pigged
I grief you my window
Songs onto your intimacy.

... That is the journey in to an Indian mind.
पंकू, ऐसे में कहां गंगा, कहां रंगा, कहा बिल्ला, कहां चिल्ला, कहां पोहा, कहां कबाब, कहां मालपुआ, कहां भाई मोख्तार, कहां मायावती बुआ, जीमो हलुआ सोहन, बिना चुनाव लड़े पीएम अपना मनमोहन। शस्यश्यामला हरी गोली को नमन।

7 comments:

Ashok Pande said...

जय हो!

स्वप्नदर्शी said...

"वे एक अदृश्य मोक्षदायिनी नदी में नहाते हैं जो स्मृति में बहती है। जिसका सचमुच कोई अस्तित्व नहीं है।
भगीरथ तपस्या कर रहे हैं, साठ करोड़ पुरखे कोढ़ियों की तरह कुलबुलाते हुए मोक्ष की याचना कर रहे हैं। शिव की जटा में, चंद्रमा से सट कर पानी की धवल धार खेलती है और मोक्ष देने के लिए बह निकलती है।"

pathetic but true!!!!!!!!!!

अजित वडनेरकर said...

जय गंगे। अब न तारना सबके पाप...

ravindra vyas said...

dilchasp!

चंद्रभूषण said...

क्या बात कही है!

Unknown said...

कितना निर्मल, कितना शीतल....नदी के ऐसे जल की कविता किताबों में ही रह गयी हैं. करीब चार बरस पहले यमुना पर लिखने के हुक्म के कारण दिल्ली में उस विशाल नाले (सडियल श्रद्धालु माफ़ ना भी करें) के किनारे जाना पड़ा था. तब की सडांध, खीझ कभी नहीं मिट पाती. यह पढ़कर वो कई गुना हो गई. यूँ तो यह कहकर खुश हो सकते हैं कि क्या लिखा है जी. कैसा वक़्त है, किसी को फीलिंग ऑफ़ लॉस नहीं है.

Unknown said...

हा हा हा!
१. हर-हर गंगे, नहा ले नंगे!
२. जो मन चंगा, कठौती में गंगा.
३. हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है. (इतना ही आता है)