Thursday, June 25, 2009

उनके एकान्त में आदमी की पदचाप का खटका है

एक छोटी सी कविता देखिये:

घोंसले में आई चिड़िया से
पूछा चूज़ों ने
मां! आकाश कितना बड़ा है?

चूज़ों को
पंखों के नीचे समेटती
बोली चिड़िया
सो जाओ
इन पंखों से छोटा है.




यह बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में रहने वाले रामकुमार तिवारी की कविता है. रामकुमार जी से कुछ दिन पहले मुलाकात हुई थी. उनका दूसरा कविता संग्रह 'कोई मेरी फ़ोटो ले रहा है' २००८ में छप कर आया है. संग्रह में अनेक शानदार कविताएं हैं. सादगीभरी लेकिन बेहद बेहद जटिल चीज़ों को पकड़ने का हौसला रखने वाली कविताएं. विष्णु खरे ने संग्रह के ब्लर्ब में लिखा है: "मानवीय उपस्थिति के बिना आल कविता लिखना असंभव-सा है लेकिन रामकुमार तिवारी के काव्य में एक और बात जो चौंकाती है वह उसमें प्रकृति की अपेक्षाकृत प्रचुर उपस्थिति है. सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, तारे, पहाड़, नदी, जंगल, पेड़, पक्षी, घाटी,, रेत, मरुस्थल आदि से कवि ऐसा सृष्टिचित्र रचता है जो अतिपरिचित 'प्रकृतिचित्रण' नहीं है बल्कि कवि के 'स्व' एवं प्रकृति के 'अन्य' के बीच कभी भावात्मक तो कभी चिंतनशील आवाजाही है. ... "

प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएं:

शमशेर कहां होंगे

गिनती की तैयारी में खड़े हैं पेड़
हिल रही पत्तियों के बीच
हिली एक पत्ती झील में
बहुत गहरे

हिला झील का पानी
हिला आकाश
नन्ही बूंद में डबडबाया सूरज
अनगिन रंगों के साथ डूबा

ओझल हो रहा
धीरे-धीरे
आकाश का पंछी

चट्टान पर हाथ रखे
खोह के पानी में
मछलियों को देखते-देखते
सोच रहा हूं
इस समय शमशेर कहां होंगे!

जल्दी-जल्दी रास्ता

रास्ते में पेड़ मिला
देखते ही पहचान गया

पुरखों की बातें करते समय
उसकी आंखे चमक रही थीं

मेरे पुरखों के बारे में
बहुत कुछ बताना चाहता था
मुझे पहुंचने की जल्दी थी

आजकल जल्दी पहुंचने के लिए
जल्दी-जल्दी रास्ता बदल रहा हूं.

धरती अपना संतुलन खो रही है

धरती पर
भटक रहे हैं धरती के लिए
अव्यक्त आकाश
देख-देख
सिलता हूं आकाश!

एक चादर में मेरी देह लिपटती है
सुबह
चादर को ऊपर, तानता हूं
आकाश!

आकाश नहीं
चादर मिलती है इस तरह
कि उसके बाहर
अपने पैर फैलाता हूं

मेरे पैर धरती से बाहर निकले हैं
धरती अपना संतुलन खो रही है

इस समय पृथ्वी पर

जल में मगर के भय से बड़ा हो गया
जल में मगर के न होने का भय

जंगल में
शेर के भय से बड़ा हो गया
शेर के न होने का भय

न होने के भय से डरी आंखें
खोज रही हैं जगह जगह

खत्म हो रही प्रजातियों के अन्तिम जोड़े
खत्म हो जाने के दुख में डूबे हैं
पृथ्वी ने अपने नीम अंधेरे में उन्हें छिपा लिया है

उनके एकान्त में
आदमी की पदचाप का खटका है

इस समय पृथ्वी पर
आदमी के न होने के भय से
बड़ा हो गया है आदमी के होने का भय.

(फ़ुरसत मिलने पर उनकी कुछेक और कविताएं कबाड़ख़ाने पर लगाई जाएंगी)

9 comments:

डॉ .अनुराग said...

दिलचस्प ........पहली छोटी कविता कई लम्बी कवितायो पे भारी है .....अन्य कविताओं का इंतज़ार रहेगा.....शीर्षक भी जैसे अपने भीतर कई अर्थ समेटे है .

ravindra vyas said...

यह सादा अंदाज बहुत मन भाया। चिड़िया वाली कविता को कहानीकार-उपन्यासकार राजी सेठ ने कहीं कोट भी किया था। इस कवि की और दूसरी कविताएं पढ़ने की गहरी इच्छा है।

Anup sethi said...

प्रकाशक का नाम पता नंबर या कव‍ि का संपर्क बता दें तो संग्रह प्राप्‍त किया जा सके.

Ashok Pande said...

अनूप जी

संग्रह का प्रकाशन सूर्य प्रकाशन मन्दिर, नेहरू मार्ग (दाऊजी रोड), बीकानेर से हुआ है. उनका ईमेल का पता है suryaprakashan@gmail.com.

रामकुमार तिवारी जी का नम्बर आपको मेल से भेज रहा हूं.

Ashok Pande said...

रामकुमार जी का नम्बर : 0942675868

रवि रतलामी said...

राम कुमार जी तो बड़े सहृदय प्रकृति प्रेमी जीव हैं. बहुत पहले जनसत्ता में उनकी रचनाओं पर पूरे एक पेज का रविवारीय छपा था. उनका एक संग्रह और है - जाने से पहले मैं जाऊंगा.

रवि रतलामी said...

राम कुमार जी का नम्बर गलत दे दिया है. 9 डिजिट हो रहे हैं. कृपया सुधारें. व हो सके तो मुझे भी मेल करें. raviratlami@gmail.com पर

Ek ziddi dhun said...

vah.pahle ashok bhai ke munh se sunkar aur ab padhkar achha laga. agli kist jaldi dijiye,

Ashok Pande said...

माफ़ करें रवि जी, अनूप जी

सही नम्बर यह रहा: 09424675868