Friday, June 26, 2009

झुकी आई बदरिया सावन की, सावन की, मनभावन की


वे युवा हैं। हैंडसम हैं। मखमली आवाज के धनी हैं। चाहते तो इंजीनियरिंग में कैरियर बना सकते थे, एकदम चमकीला। लेकिन यह राह बीच में ही छोड़ी और सुर की उजली राह पकड़ी। कैंसर से पिता की मृत्यु हुई तो मां ने हिम्मत बढा़ई। धीरे-धीरे सारेगमप से होते हुए आलाप लिया और विलंबित से फिर द्रुत पर। रागों को जाना-समझा और गुरुओं की छाया में बैठकर गाना सीखा। इस तरह जीवन सुरीला बना लिया। अब जिस शहर जाते हैं, अपनी गायकी से वहां सुरीलापन पैदा कर देते हैं। यह कहानी है पुणे के युवा शास्त्रीय गायक पुष्कर लेले की। अगले बाल दिवस पर वे तीस के हो जाएंगे। उनकी इस कहानी में भी राग की तरह उतार-चढ़ाव हैं। कोमल और तीव्र स्वर हैं।

यह मेरी उनसे दूसरी मुलाकात थी। दो साल पहले वे इंदौर में प्रतिष्ठित मामा साहेब मुजुमदार स्मृति समारोह में आए थे। इस बार इंदौर की एक संस्था श्रुति संवाद के बुलावे पर वे इंदौर आए । इस शहर के संगीत महाविद्यालय के उस्ताद अमीर खां सभागृह में उन्होने अपनी प्रस्तुति दी।

बातचीत के वक्त उनके दिल-दिमाग में कोमल और मधुर स्वर ही थे। मैंने उनसे कहा कि हम फिल्म और फिल्मी संगीत पर बात करेंगे, शास्त्रीय संगीत पर नहीं। वे राजी हुए और बहने लगे। वे इंदौर में श्रुति-संवाद संस्था के बुलावे पर आए थे। वे कहते हैं कि ए.आर. रहमान का संगीत दिल को छूता है। उसमें गजब की मेलडी है। वह नदियों और झरनों की तरह बहता संगीत है। खासकर रोजा और बाम्बे का गीत-संगीत। स्लमडॉग मिलिनियेर का संगीत रिदम बेस्ड है। उसमें रिदम ज्यादा है, मेलड़ी कम है। इस फिल्म के लिए उन्हें ऑस्कर मिला लेकिन इसका संगीत मुझे इतना पसंद नहीं। ऑस्कर के अपने अलग मापदंड होते हैं। मुझे उनका पहले का संगीत स्लमडॉग से कई गुना बेहतर लगता है। जब से रहमान को इंटरनेशनल एक्सपोजर मिला है, उनका संगीत मेलडी से रिदम की तरफ झुका है। इस रिदम पर युवाओं के पैर आसानी से थिरकने लगते हैं। उसकी बीट्स युवाओं को लुभाती है। पुणे मे जो उनकी लाइव कंसर्ट हुआ इसमें भी उन्होंने वे गीत प्रस्तुत किए जिसमें रिदम और बीट्स थी। तमाम तामझाम के बावजूद उनकी प्रस्तुति में मेलडी गायब थी।

विजय सरदेशमुख और सत्यशील देशपांडे से संगीत की तालीम हासिल करने वाले पुष्कर कहते हैं लेकिन एक अच्छी बात ये हुई है कि संगीत में सारी हदें टूट गई हैं। अब कोई घेरेबंदी नहीं है। रहमान ने कई तरह के संगीत की खूबियों का इस्तेमाल किया है। वेस्टर्न से लेकर इंडियन क्लासिकल और अरबी संगीत से लेकर लेटिन अमेरिकी संगीत तक का इस्तेमाल किया है। शास्त्रीय संगीत में भी कट्टरपन कम हुआ है और घरानेदार गायकी बदल रही है। पहले तो इतनी कट्टरता थी कि एक घराने का उस्ताद अपने शिष्यों को दूसरे घराने के उस्ताद का गायन सुनने नहीं देता था। फिल्मों में देखिए कि स्कूल खत्म हो रहे हैं। श्याम बेनेगल ने अंकुर-मंथन से शुरूआत की थी। फिर उन्होंने जुबैदा और वेलकम टू सज्जनपुर बनाई। अनुराग कश्यप, अपर्णा सेन और मधुर भंडारकर जैसे फिल्मकारों ने कला और व्यावसायिक फिल्मों के बीच की विभाजन रेखा को खत्म करने की सार्थक कोशिशें की हैं। अभिनय के क्षेत्र से उदाहरण लेना चाहें तो युवा अभिनेत्री कोंकणा सेन शर्मा कितना अच्छा अभिनय करती हैं। उनमें कितनी सहजता है, स्पांटेनिटी है। वे आजा नच ले जैसी फिल्मों में भी अच्छा अभिनय करती हैं और पेज थ्री में भी। लाइफ इन मेट्रो में भी और लागा चुनरी में दाग में भी। चित्रकारी में भी यह देखा जा सकता है। तो अब सारी हदबंदिया टूट रही हैं। यह एक तरह से कलाओं का लोकतांत्रिकरण है। यह ज्यादा खुला और उदार समय है। ये सब अभिव्यक्ति के अलग अलग माध्यम हैं लेकिन इनके पीछे जो असल कलाकारी है वह तो एक ही है ना। यानी अपने को बेहतर से बेहतर ढंग से अभिव्यक्त करना।

पहले के उस्ताद कहते हैं कि हमारे जमाने का संगीत कितना उम्दा था। हर समय के उस्ताद यह कहते हैं कि हमारे जमाने का संगीत कितना अच्छा था। यह भी एक चलन है। लेकिन हम जानते हैं परिवर्तन होता ही रहता है।

पुणे यूनिवर्सिटी से वोकल म्यूजिक में एमए कर चुके और देश के तमाम संगीत सम्मेलनों में प्रस्तुतिया दे चुके पुष्कर कहते हैं समय के साथ संगीत बदलता है, उसके सुनने वाले बदलते हैं लेकिन जो दमदार होगा वही टिकेगा। हिमेश रेशमिया आए, आए और छा गए। आज उनका कोई नामलेवा नहीं। तो दौर आते रहते हैं, संगीत बदलता रहता है, प्रयोग होते रहते हैं। और उसे पसंद -नापसंद किया जाता रहा है। फिल्म संगीत ही कितना बदल गया है। आज राहत फतेह अली खां और कैलाश खेर कितना अच्छा गा रहे हैं। इनके आने से सुगम संगीत समृद्ध ही हुआ है। सोनू निगम कितना अच्छा गाते हैं। प्रसून जोशी जैसे गीतकारों की बदौलत गीतों में कविता आ गई है। उसे पसंद भी किया जा रहा है। तो ये अच्छा है।

गायन के लिए रामानुजम अवार्ड, फिरोदिया अवार्ड, सुधासिंधु अवार्ड, सुर मणि अवार्ड और सनातन संगीत पुरस्कार से से सम्मानित इस युवा गायक का मानना है कि अब तो रिअलिटी शोज के जरिये रातों-रात बच्चों से लेकर युवा तक शिखर पर पहुंच जाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि वहां पहुंचकर कौन, कितनी देर टिकता है। संगीत की दुनिया बहुत बड़ी दुनिया है। रिअलिटी शोज उसका एक बहुत ही छोटा सा हिस्सा हैं लेकिन इसके जरिये बहुत बड़ी संख्या में टैलेंट सामने आ रहा है। अब सिक्के का दूसरा पहलू भी होता है, वह भी है ही। लेकिन आप सोचिए कि पहले तो कई प्रतिभाशाली कलाकार गुमनामी के अंधेरे में ही डूब जाया करते थे।

दोपहर में हुई इस बातचीत के बाद रात साढे सात बजे उनका गायन था। शाम छह बजे के आसपास बूंदाबांदी शुरू हो गई थी। मौसम ठंडा और खुशगवार हो गया था । लेकिन मेघ उमड़-घुमड़ कर, मुंह दिखाकर लौट गए थे। थोड़ा सा बरस कर और ज्यादा तरसा कर चले गए थे। जाहिर है उन्हें रिझाना था, लुभाना था ताकि वे जमकर बरसें और तृप्त कर जाएं। कभी कभी मौसम भी यह तय कर देता है कि कलाकार को क्या गाना है। लिहाजा पुष्कर ने अपने गायन की शुरुआत गौड मल्हार से की। उनके गायन में ताजगी थी और बोल अंग का इस्तेमाल कमाल का था। सुर और सरगम पर उनका अद्भुत नियंत्रण था। अपने रसीले गायन से उन्होंने श्रोताओं को तर कर दिया।

गौड़ मल्हार में उन्होंने एक छोटा सा आलाप लिया और फिर कुछ पारंपरिक रचनाएं पेश कीं। शुऱूआती झिझक के बाद उनका गायन आत्मविश्वास भरा था। धीरे-धीरे वे अपनी रंगत में आकर खूबी से जता रहे थे कि उनका गायन मनभावन है। उसमें माधुर्य भी था और गलाकारी भी। ओ बलमा बहार आई बंदिश में रमने का भाव था और जाहिर है इसे सुनकर श्रोता भी रमने लगे थे। इसके के बाद एक और रचना पेश की। बोल थे झुकी आई बदरिया सावन की, सावन की मनभावन की। इस प्रस्तुति को उन्होंने इतना सरस बनाया कि तपिश में ठंडी फुहारों का अहसास हुआ। इस रचना ने सावन के एक खूबसूरत दृश्य को जैसे पुष्कर जी ने अपने गायन से सजीव कर दिया। इसके बाद उन्होंने पंडित कुमार गंधर्व की एक बंदिश पेश की। सजल नैना काहे री, गौरी कारन बतावै री। इस बंदिश में उन्होंने कुमार गंधर्व के गायन का सुखद लेकिन आश्चर्यमिश्रित स्मरण कराया।
इसके बाद उन्होंने एक सरस रचना पेश की । बोल थे-मैं तोड़ लाई राजा जमुनिया की डाली रे। कल्पनाशील गायन से उन्होंने रचना के मर्म को साकार कर दिया। इसमें श्रृंगार भी था, रिझाना-लुभाना भी और प्रेम के नखरेभरे अंदाज भी। इसे उन्होंने झूमकर गाया।

जब कार्यक्रम राग मल्हार से शुरू होकर जामुन की डाल पर आकर रूका तो उस्ताद अमीर खां सभागृह के बाहर बारिश विलंबित में राग मल्हार ही गा रही थी....

7 comments:

Ek ziddi dhun said...

kya baat hai Raveendra bhai!

Ashok Pande said...

वाह!

Nanak said...

ये सच है कि संगीत की हदबंदियां कम हो रही हैं, प्रयोगधर्मिता में इज़ाफ़ा हो रहा है, दूसरी संगीत शैलियों से संपर्क बढ़ रहा है लेकिन एक बड़ा सच ये भी है कि इससे संगीत के प्रति समर्पण और निष्ठाभाव भी छीझ रहा है. शास्त्रीय संगीत के हर विद्यार्थी को ये समझना होगा कि शास्त्रीय संगीत समय और सब्र दोनों मांगता है, और इसमें मिलने वाली सफलता आत्मिक ज्यादा सांसारिक कम होती है, इसकी तुलना किसी और करियर से भी नहीं की जा सकती। । तभी तो पहले ज़माने में ये कहा जाता था कि संगीत या तो राजा के लिए है या बाबाओं के लिए। ...और इस कोलाहल और बकवास के बीच मिट्टी खानी है या व्यंजन, इसका फ़ैसला हमें ही करना है। लेलेजी का जीवन एक संगीत प्रेरणा है । व्यासजी आपका धन्यवाद.

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया आलेख।धन्यवाद।

Manish Kumar said...

shukriya is sakshatkar ki prastuti ke liye.

शरद कोकास said...

एक संगीतज्ञ ही इस तरह विश्लेषण कर सकता है फिर वह शास्त्रीय संगीत का हो या फिल्म संगीत का

संजय पटेल said...

रवीन्द्र भाई
आपके शब्द भी सुर-मल्हार से प्रतिध्वनित हो रहे हैं.पुष्कर समकालीन संगीत में एक बड़ी संभावना लेकर उभरे हैं.जितना उनको जाना-समझा और सुना है तो मानता हूँ कि उनमें अन्य युवा कलाकारों की तरह क़ामयाब होने की व्यग्रता नहीं है.वे अपने अग्रजों की तरह अपनी धुन के धनी हैं.वे प्रयोगधर्मी ज़रूर हैं किंतु प्रयोग के नाम पर शास्त्र को ताक पर नहीं धरना चाहते.कुमार गायकी रंग को साधते तो हैं लेकिन उसकी नक़ल नहीं करते.
मेरा अनुमान है कि वे परिदृष्य पर सबसे सुरीली दस्तक हैं.