Friday, July 24, 2009

'दिल्ली शहर तें पिशौर नुं जांदिए' उर्फ 'लुच्चों का गीत'



हिन्दी पढ़ने - पढ़ाने वालों की एक अलग दुनिया है जो इसी दुनिया में होते हुए भी अलग - सी है - बहुत कुछ एक बंद दुनिया की तरह . यहाँ संकेत हिन्दी रचनाकार और पाठक वर्ग से नहीं अपितु एक विषय के रूप में हिन्दी अध्ययन - अध्यापन की दुनिया से है जिस पर नामी गिरामी लेखक - संपादक - आलोचक अक्सर साहित्य विरोधी होने का आरोप लगाते रहते हैं और कालेजों - विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों को हिन्दी साहित्य का कब्रगाह करार देने पर आमादा दिखाई देते हैं. इस मुद्दे पर बहुत लम्बी-लम्बी बहसे हो चुकी हैं और बिना किसी नतीजे के स्थगित हो गई दीखती हैं फिर भी इस बात से इनकर नहीं किया जा सकता है कि हिन्दी का जो भी छोटा -सा साहित्यिक संसार है उसमें उतर कर अतीत में झांकने पर कई दिलचस्प बातें मिल जाती हैं ( और इसमें हिन्दी विभागों की भूमिका को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है ) मसलन - 'उसने कहा था' का लुच्चों का गीत संबंधी विवाद .. आइए इस पर थोड़ा गौर करते हैं...

'उसने कहा था' चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' ( ७ जुलाई १८८३ - १२ सिसंबर १९२२) जिनके बारे में मशहूर है कि वे केवल तीन कहानियाँ - 'उसने कहा था', 'बुद्धू का काँटा' और 'सुखमय जीवन' लिखकर अमर हो गए, की एक कालजयी कहानी है जो महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादकत्व में निकलने वाली पत्रिका 'सरस्वती' के दिसंबर १९१५ के अंक में प्रकाशित हुई थी और तबसे विश्वविद्यालय स्तर के स्नातक और स्नातकोतार पाठ्यक्रमों में लगभग अनिवार्यत: जगह पाती रही है. यह कहानी कई कारणॊं से उल्लेखनीय है. पहली तो यह कि यह युद्ध की पॄष्ठभूमि पर लिखी गई पहली हिन्दी कहानी है. दूसरी यह कि हिन्दी कहानी के इतिहास में यह मील का पत्थर है ( कथाकार और नए 'हंस' के संपादक राजेन्द्र यादव इससे ही हिन्दी कहानी का विधिवत आरंभ मानते हैं) तीसरी बात यह कि इसमें टेकनीक के लिहाज से नयापन पहली बार सामने आया. पूर्वदीप्ति या फ्लैशबैक टेकनीक का ऐसा प्रयोग हिन्दी में पहली बार आया और अब तक ऐसा प्रयोग लगभग दुर्लभ ही है और चौथी बात यह की यह हिन्दी की पहली कहानी है जिस पर अश्लीलता का आरोप मढ़कर विद्वान प्राध्यापकों ने पाठ्यक्रम से बाहर का रास्ता दिखाने का सद्प्रयास (!) किया और यदि शामिल किया भी तो 'लुच्चॊं का गीत' को बाहर करने के बाद यह सदाशयता अपनाते हुए कि विद्यार्थी चरित्रवान बने रहे और प्रोफेसरान को बगलें न झाँकना पड़े. आइए देखते हैं उस गीत को जो विवाद का विषय बना रहा और एक ही कहानी अलग - अलग जगहों पर पाठान्तर के साथ पढ़ाई जाती रही और प्रतिनिधि संकलनों में शामिल होती रही -

दिल्ली शहर तें पिशौर नुं जांदिए,
कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए;
कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए --
(ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।

कद्दू बण्या वे मजेदार गोरिये,
हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।

( दिल्ली शहर से पिशौर / पेशावर को जाने वाली लौंगों का / लहँगों का व्यापार कर ले और नाड़े का सौदा कर ले. गोरिए , कद्दू बड़ा मजेदार बना है , चटखारे लेने का मन हो रहा है )

हिन्दी के बहुत से विद्वान प्राध्यापकों की नजर मे यह यह एक अश्लील और द्विअर्थी गीत था जिसे 'बच्चों' (!) को नहीं पढना चाहिए था और इसी बिरादरी का एक खेमा इसे यथावत पढ़ने- पढ़ाने के पक्ष में था और इसी उठापटक में इस कहानी के कई पाठ आज भी प्रचलित हैं यहाँ तक की गीत में भी कुछ पंक्तियों में हेरफेर की गई है.साथ ही बहुत से ऐसे संकलन भी है जिनमें यह गीत और गीत से पहले और बाद का पूरा प्रसंग यथावत विद्यमान है-
मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूंगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।”

वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा - “क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक ! हाँ, भाइयों, कैसे?”
*****
कौन जानता था कि दाढ़्यों वाले, घर-बारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएंगे, पर सारी खन्दक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गये, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों!
असल बात तो यह है कि इस गीत को लेकर श्लील - अश्लील विवाद में न तो पहले कोई दम था और ही आज है यह हिन्दी की अकादमिक बिरादरी के एक बड़े हिस्से की उस मानसिकता को दर्शाता है जो शुद्धता और शुचिता की आड़ लेकर किसी रचना को अपने तरीके से तोड़ - मरोड़कर पेश करने में कोई गुरेज नहीं करती और स्वयं को रचना / रचनाकार से बड़ा मानने की जिद पर अड़ी दिखाई देती है. किसी रचना की एतिहासिकता और मूल पाठ से खिलवाड़ करना भी उसे बुरा नहीं लगता.

शुक्र है कि हिन्दी के अध्ययन - अध्यापन की आज की दुनिया थोड़ी व्यस्क हो गई है और इस तरह के विवाद बस 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' जैसी किताबों में ही रह गए हैं शायद ! इतिहास भी क्या गजब चीज है !

( 'उसने कहा था' और गुलेरी जी पर एकाध पोस्ट और जल्द ही )

11 comments:

प्रीतीश बारहठ said...

"कौन जानता था कि दाढ़्यों वाले, घर-बारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएंगे, पर सारी खन्दक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गये, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों!"

यह मानसिकता तो इस कहानी में भी मुखर हुई है। मुझे इस कहानी के विषय में यह प्रसंग पहले ज्ञात नहीं था। शायद मैंने जहाँ इसे पढ़ा वहाँ इसे काट-छांट दिया गया था।
अकादमिक बिरादरी को यह तो तय करना ही पड़ेगा कि इस पाठ के साथ इस कहानी को किस स्तर पर पढ़ाया जाये। यह पाठ यथार्थ का चित्रण तो है, लेकिन हमारी मित्र मंड़ली के कई यथार्थ हम हमारे बच्चों के साथ साझा नहीं करते हैं, इस मानसिकता से शायद कोई नहीं बचा है।
पाठ्यक्रम में बच्चों को कहानी पढ़ाने का उद्देश्य भी उन्हें संस्कारित करना और जीवन दृष्टि प्रदान करना ही है जो इस कहानी में इस पाठ के नहीं होने से भी किसी तरह से अप्राप्त नहीं रहता है।
स्नातक के छात्रों को यह कहानी मूल पाठ के साथ पढाई जायेगी तो उन्हें अधिक रुचिकर लगेगी इसमें संशय नहीं है।
आगे जैसे गुणीजनों की राय!

Rangnath Singh said...

इस पोस्ट के लिए हार्दिक आभार।

अपने इतिहास पुरूषों को अपनी यादों में जिन्दा रख कर ही भाषा का विकास संभव है।

प्रेमलता पांडे said...

फिर अध्यापक बिहारी कैसे पढ़ाते रहे?
हमने यह कहानी अपने पाठ्यक्रम में १९७१ में पढ़ी थी। आज भी याद है अध्यापिका का लेक्चर।

Ashok Kumar pandey said...

यार ये साले बुढे पन्डितवे पक्के बुर्बक हैं…
होरी में फाग गायेगे और साहित्य में सूर-तुलसी के अलावा सबको अश्लील कहेंगे।

दीपा पाठक said...

बढ़िया पोस्ट सिद्धेश्वर जी। गुलेरी जी की कहानी बहुत पहले, एक बार तो पाठ्यक्रम में ही और दो-एक बार उसके बाद भी पढ़ी, लेकिन जाने क्यों लुच्चों का गीत पढ़े का ध्यान नहीं आ रहा। सो इस पोस्ट के ज़रिए इस एतिहासिक कहानी से जुङी दिलचस्प जानकारी में भी इज़ाफा हुआ। धन्यवाद।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने तीन कहानियाँ लिखीं और हिन्दी साहित्य में अपना नाम रोशन कर दिया।
आपने बढ़िया पोस्ट लगाई है।
आभार!

Ashok Pande said...

इस में अश्लील क्या है भाई?

जय हिन्दी माट्टरसंसार!

अनूप शुक्ल said...

इसमें अश्लीलता बात कौन सी भई! हमें तो ई सब पता भी नहीं था। आभार आपका जो बता दिया।

मुनीश ( munish ) said...

Soldiers having fun away from homeland so let them have it ! It is barbaic to censor this song . I have read the unedited version already and i must say that this song gives the atmosphere a feel of credibility and reality.My homage to Sharma ji and thanks to u for raising the issue.

Madhavi Sharma Guleri said...

सिद्धेश्वर जी.. यहां कुछ संशोधन करना चाहूंगी। गुलेरी जी ने तीन नहीं अपितु कई कहानियां लिखीं। जो प्रकाश में नहीं आ पाईं वो हैं धर्मपरायण रीछ, हीरे का हीरा और घंटाघर। इसके अतिरिक्त गुलेरी जी के पत्रों में 'सुकन्या' कहानी का भी ज़िक्र है।

Madhavi Sharma Guleri said...

सिद्धेश्वर जी.. यहां कुछ संशोधन करना चाहूंगी। गुलेरी जी ने तीन नहीं अपितु कई कहानियां लिखीं। जो प्रकाश में नहीं आ पाईं वो हैं धर्मपरायण रीछ, हीरे का हीरा और घंटाघर। इसके अतिरिक्त गुलेरी जी के पत्रों में 'सुकन्या' कहानी का भी ज़िक्र है।