Tuesday, August 25, 2009

गेभ मी ओनली तीन टाका टू टेक झालमूड़ी

वह भी कोई देश है महाराज: भाग 2

अनिल यादव

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ब्रह्मपुत्र मेल की पहली सीटी और धकमपेल के बीच हम लोग भीतर घुसे तो कूपे में असम राइफल्स के मंगोल चेहरे वाले सैनिक अपना सामान जमा रहे थे। निर्लिप्त, तटस्थ, खामोश कुशलता से कूपे के खाली कोनों-अंतरों में वे अपने ट्रंक, होल्डाल, किटबैग, हैवरसैक रखे जा रहे थे। अंदाजा इतना सटीक कि जैसे वे खाली जगहें खासतौर पर उन्हीं सामानों के आकार-प्रकार के हिसाब से बनाई गईं थीं।

ऊपर की एक बर्थ पर लेटने की तैयारी कर चुके एक युवा सरदार जी, विदा करने आए एक परिजन को बता रहे थे कि उन्हें सीट तो बगल के डिब्बे में मिली थी लेकिन वहाँ सामने एक नगा बंदा था जो बहुत तेज बास मार रहा था। इसलिए कंडक्टर से कह कर डिब्बा बदलवा लिया। पता नहीं उन्हें, उस नगा बंदे से क्या परेशानी थी। शायद उसकी आधी ढकी, भीतर भेदती आँखों ने उनके मन के परदे पर हेड-हंटिंग, कुकुर भात और आतंकवाद की कोई हॉरर फिल्म चला दी होगी और दिल्ली से कमा कर देस लौटते निरीह और भुक्खड़ बिहारियों के सुरक्षित दलदल में आ धंसे। दिल्ली की बस में वे उन्हें अपने शरीर से छूने भी नहीं देते होंगे, क्योंकि बिहारी यहाँ एक गाली है।

ट्रेन थोड़ा-सा खिसक कर रूक गई। तभी गूंजे धरती आसमान-राम विलास पासवान का नारा लगाती, जवानी की धुंधली फोटो कापी, बिहारी नौजवानों की भीड़ डिब्बे में आ घुसी। वे सबसे किनारे की सीटों पर सस्ती अटैचियों, दिल्ली मॉडल के टू-इन-वन और फुटपाथों से खरीदे रंग-बिरंगे कपड़ो के ढेर के साथ काबिज होने लगे और रिजर्वेशन वाले यात्री अपने सामानों से अपनी बर्थों की किलेबंदी करते हुए पसरने लगे। वे अपनी देह भाषा में रैली से लौट रहे इन बेटिकट, दलित कार्यकर्ताओं का विरोध कर रहे थे।

डिब्बे में दो कंडक्टर घुसे। उन्होंने लुंगी पहने एक मरियल से लड़के से टिकट मांगा। लड़का सहमी, पीली आंखों से उन्हें ताकता ही रह गया। कुछ बोल पाता इससे पहले ही उनमें से एक ने उसे कसकर तमाचा जड़ दिया और सबको नीचे उतारने लगा। एक दढ़ियल युवक ने प्रतिवाद किया, पासवान जी की रैली में आए हैं जी टिकठ काहे लेंगे। जैसे आए थे, वैसे ही जाएंगे।

इनसे पूछिए कि इस डिब्बे में आने की इन सबों की हिम्मत कैसे पड़ी। पीछे किसी बर्थ से आवाज आई।

चलो हमारा घर भी खाली पड़ा है, वहाँ भी कब्जा कर लोगे। जाओ पासवान से पैसा लेकर आओ, रिजर्वेशन कराओ, तब यहाँ बैठो। दोनों कंडक्टर अब तक रैली वाले युवकों पर हावी हो चुके थे, पासवान जब रेल मंत्री था, तब था। अब वह हमारा कुछ नहीं कर सकता। बेटा, ट्रेड यूनियन के लीडर हैं, एक-एक को पटक के यहीं मारेंगे। पब्लिक भी अभी बताने लगेगी कि तुम्हारे पासवान की क्या औकात है। चलो चुपचाप उतरो।

दलित युवक चुपचाप उतर कर जनरल डिब्बों की ओर बढ़ गए। जैसे वे किसी शवयात्रा में जा रहे हों। जिस राजनीति और संगठन की शक्ति ने उन्हें ट्रेन में बिना टिकट सवार होने की हिम्मत दी थी, उसी संगठन का डर दिखाकर दो कंडक्टरों ने उन्हें नीचे उतार दिया। कंडक्टरों का हाथ भी दलित कार्यकर्ताओं पर ही छूटता है। महेंद्र सिंह टिकैत के साथ रैलियों में जाने वाले मुजफ्फर नगर, बागपत के जाट वातानुकूलित डिब्बों के परदे तक नोंच कर चिलम पर तमाखू के साथ पी जाते हैं तब ये टिकट बाबू किसी कोने में सिमटे हुए अपनी जान और नौकरी की खैर मनाते रहते हैं।

ट्रेन चली कि असम राइफल्स के सैनिकों ने बोतल खोल ली। वे अपने मगों और प्लास्टिक के डिस्पोजेबल गिलासों में रम पीने लगे। थोड़ी ही देर में उनकी खामोशी टूटी। किसी अबूझ भाषा में एक दूसरे से उलझी, लंबी, उछलती रस्सियों की तरह उनकी बातें डिब्बे में फैलने लगीं। जिनके साथ परिवार थे चौकन्ने हो गए और जो करीब की बर्थों पर थे, कुछ इंच ही विपरीत दिशाओं में सरकने लगे। जीआरपी के एक अधेड़ सिपाही ने फौजियों की तरफ हाथ उठाकर कुछ कहने की कोशिश की लेकिन उनकी तरह कोई प्रतिक्रिया न पाकर, बड़बड़ाता हुआ आगे बढ़ गया। यह मंगोल भारत था जिसका गंगा के मैदान वाले आर्य सिपाही से संवाद कठिन था।



पैंट्री कार से डिब्बे में बार-बार आते एक रेखियाउठान बेयरे का नाम बड़ा काव्यात्मक था। उसकी लाल रंग की सूती वर्दी पर काले रंग की नेम प्लेट लगी थी जिस पर सफेद अक्षरों में लिखा था, सजल बैशाख। उसकी मिचमिची आँखों और उजले दांतो को देखते हुए ख्याल आया कि बरसात तो आषाढ़ में शुरू होती है, बैसाख कैसे सजल हो सकता है। कहीं चकित करने के लिए ही तो उसका नाम नही रखा गया है। अगले दिन नाश्ते के समय मैने उससे पूछा कि बैशाख कैसे सजल हो गया है। वह इत्मीनान से देर तक हंसता रहा। पहले भी उससे यह सवाल कइयों ने पूछा होगा। प्रतिप्रश्न आया, आप पहली बार आसाम जा रहा है क्या। मेरे सिर हिलाने पर उसने कहा, जब थोड़ा दिन उधर बैठेगा तो अपने ही जान जाएगा कि वहाँ बैशाख मे मानसून ही नहीं आता, बाढ़ भी आ जाती है। य़ह पूर्वोत्तर की पहली झलक थी जो मुझे मुगलसराय से बिहार के बीच कहीं मिली।

दिन में जिस, पहले रोबीले मुच्छड़ ने मेरी बर्थ पर अतिक्रमण किया, मेरे जिले गाजीपुर के निकले, गहमर गांव के वीरेंद्र सिंह। पंद्रह दिन छुट्टी बिता कर निचले असम के बोंगाई गांव जा रहे थे जहाँ वे बीएसएफ की बटालियन में तैनात थे। गांव-जवार का होने के कारण या फिर अपने अतिक्रमण को वैधता देने के लिए मेरी तरफ खैनी बढ़ाते हुए उन्होंने सलाह दी कि जा रहे हैं तो वहाँ जरा मच्छड़ और छोकड़ी से बचिएगा, तब गाजीपुर लौट पाइएगा।

मारिए वह भी कोई देश है महाराज। यह उनका तकिया कलाम था।

वह बता रहे थे कि कुनैन की गोली, बीएसएफ में जवान को कतार में खड़ा कर, मुँह पर मुक्का मार कर खिलाता है और मच्छरदानी में सोने का सख्त आर्डर है। नहीं मानने पर फाइन होता है। जान हमेशा पत्ते पर टंगी रहती है कि न जाने किधर से आल्फा या बोडो वाला आकर टिपटिपाने लगेगा। उग्रवादी भीड़ में ऐसे घूमते हैं जैसे पानी में मछली। उनके होने का तभी पता चलता है जब दो-चार आदमी गिरा दिए जाते हैं।

जैसे पानी में मछली- मैं मोंछू की उपमा पर चकित था। यही तो शिलाँग के सेंट एडमंडस कालेज से अंग्रेजी और लंदन से पत्रकारिता पढ़े संजय हजारिका की किताब में भी लिखा था। यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम (उल्फा) का कमांडर परेश बरूआ एक बार तिनसुकिया में कालेज के लड़कों की टीम में शामिल होकर असम पुलिस की टीम के साथ फुटबाल मैच खेल कर निकल गया। तीन दिन बाद पुलिस को पता चला तब तक करीब के जंगल से उल्फा के कैंप उखड़ चुके थे।

सामने की बर्थ पर बारह-पंद्रह एयरबैगों, बोरियों, पालीथिनों से घिरी सहुआईन बैठी थीं। उनके पति को दूसरे डिब्बे में सीट मिली है इसलिए हर दो घंटे बाद कहती हैं, भइया देखे रहिएगा साथ में दो लड़कियां हैं। उनकी मणिपुर और बर्मा के बीच भारत के आखिरी कस्बे मोरे में परचून की दुकान है। गोरखपुर से मोरे कैसे पहुंच गए। कहती हैं, किस्मत भइय़ा।

आठ और ग्यारह साल की उनकी दो लड़कियां एक सरकारी स्कूल में पढ़ती हैं और निराली अंग्रेजी बोलती हैं। वे एक दूसरे को मैन कहती हैं। सहुआइन अपनी निःशब्द भाषा में उन्हें प्रोत्साहित करती हैं और फिर संतुष्ट भाव से डिब्बे में पड़े प्रभाव का मुआयना करती हैं।

“मम्मा गेभ मी ओनली तीन टाका टू टेक झालमूड़ी। भ्हाई शुड आई गिभ दैट टू यू। टेक फ्राम योर मनी मैन।”

सहुआइन मोंछी को बता रही हैं। बिना दाढ़ी-मोंछ वाला, छोटा-छोटा लड़का मलेटरी-पुलिस सबके सामने आता है। टैक्स मांगता है। देना पड़ता है। नहीं तो जान से मार देगा।

हमारी दुकान के आगे एक मास्टर को मार दिया। बहुत शरीफ मास्टर था। सबसे प्रेम से बोलता था लेकिन तीन महीना से टैक्स नहीं दिया था। हम लोगों की भाषा बोलने पर रोक लगा दिया है। कहता है कोई भाषा बोलो हिंदी मत बोलो। भूल से जबान फिसल जाए तो टोकता है गाली देता है।



………तो यह निराली अंग्रेजी भारत और बर्मा की अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर रह रहे बाहर के बच्चों की भाषा है जिसका आविष्कार उन्होंने जीवित रहने के लिए किया है।

तो छोड़ दीजिए, “आकर गोरखपुर में परचून की दुकान चलाइए।” शाश्वत स्लीपिंग बैग की भीतर से निंदियाई आवाज में सलाह देता है।

“नहीं भईया। जो मजा मोरे में है वह आल इंडिया में भी नहीं मिलेगा।”

“मारिए, वह भी कोई देस है महाराज।”

मोंछू का देस वह नहीं है जो बचपन में हम लोगों को भूगोल की किताब में राजनीतिक नक्शे के जरिए पहचनवाया गया था। वह भी नहीं है जिसे प्रधानमंत्री पंद्रह अगस्त को लालकिले से संबोधित करते हैं। दरअसल वह अपने देश से जाकर परदेस में नौकरी कर रहा है। हैवरसैक में रखे अखबारों की कतरनों के फोटोग्राफ्स मेरी आँखो के सामने घूम गए जिनमें कलात्मक लिखावट में नारे लिखे हुए थे- इंडियन डॉग्स गो बैक। ये कहाँ के कुत्ते हैं जो भारतीय कुत्तों को अपने इलाके से खदेड़ रहे हैं। डेल्ही इज स्टेप मदर टू सेवन सिस्टर्स। ये सात बहनें दूसरी किन लड़कियों को ताना दे रही हैं। एज क्रो फ्लाइज, इट इज क्लोजर टू हनोई दैन टू न्यू डेल्ही। यह क्यों बताया जा रहा है कि हम डेल्ही वालों के मुहल्ले में आकर गल्ती से बस गए हैं। अचानक लगा कि उस देस वाले, इधर के देस को लगातार गाली दे रहे हैं तो वहाँ जाती ट्रेन भी कुछ न कुछ जरूर कह रही होगी। मैं आँख बंद कर सारी आवाजों को सुनने को कोशिश करने लगा। सरसराती ठंडी हवा और अनवरत धचक-धक-धचक के बीच कल से व्यर्थ, रूटीन लगती बातों के टुकड़े डिब्बे में भटक रहे हैं। उन्हें बार-बार दोहराया जा रहा है। इतनी भावनाओं के साथ अलग-अलग ढंग से बोले जाने वाले इन वाक्यों के पीछे मंशा क्या है।

हालत बहुत खराब है।
वहाँ पोजीशन ठीक नहीं है।
माहौल ठीक नहीं है।
चारो तरफ गड़बड़ है।
आजकल फिर मामला गंडोगोल है।

जैसे लोग किसी विक्षिप्त और हिंसक मरीज की तबीयत के बारे में बात कर रहे हैं जिसके साथ, उन्हें उसी वार्ड में जैसे-तैसे गुजर करना है।

बिहार बीत चुका था। खिड़की के बाहर सत्यजीत रे की कोई फिल्म चल रही थी। मालदा के बंगाल के गांव गुजर रहे थे। सादे से घरो के आगे हरियाली से घिरा पुखुर और धान के कटे, अनकटे खेतों पर क्षितिज तक छाया नीलछौंहा विस्तार। ट्रेन में मिष्टीदोई, झालमुडी और हथकरघे पर बने कपड़े बिक रहे थे।

थोड़ी ही देर बाद न्यू जलपाईगुड़ी यानि एनजेपी आते ही हम लोग ग्राम बाँग्ला से उड़कर चीनी सामानों से भरी किसी विदेशी गली में आ गिरे। एक के पीछे एक सैकड़ो वेंडर जो चीनी कैमरे, टेलीविजन, कैलकुलेटर, मोबाइल, फोन, घड़ियां, टेपरिकार्डर, इलेक्ट्रानिक खिलौने, कंबल, बाम चीखते हुए बेच रहे थे। ऊपर से नीचे से तक सामानों से लदे वे चीन के व्यापारिक दूत लग रहे थे। प्लेटफार्म पर बिक रही सारी सिगरेटें विदेशी थी। यहाँ की सिगरेटों से लंबी और बेहद सस्ती। चीनी दूतों की तादात इतनी ज्यादा थी कि सारंगी और इकतारा लिए भिखारी ट्रेन में नहीं घुस पा रहे थे।

राजनीति की भाषा में एनजेपी को चिकेन्स नेक कॉरिडोर कहा जाता है। यह मुर्गे की गर्दन जितना दुबला यानि सिर्फ इक्कीस किलोमीटर चौड़ा गलियारा है जहाँ से पूर्वोत्तर से आती तेल और गैस की पाइपलाइनें गुजरती हैं। अक्सर पूर्वोत्तर के आंदोलनकारी इस मुर्गे की गरदन मरोड़ देने की धमकी देते रहते हैं। ऐसा हो जाए तो गैस और तेल की सप्लाई ही नहीं बंद होगी, पूर्वोत्तर का शेष देश से संपर्क भी कट जाएगा। तब कलकत्ता से गौहाटी के लिए हवाई जहाज पकड़ना होगा।

वेंडरों, अखबारों और जहाँ-तहां नेटवर्क पकड़ते मोबाइल फोनों के जरिए ट्रेन में खबरें आ रही थीं कि असम हिंदी भाषियों को मारा जा रहा है। बिहारियों के घर जलाए जा रहे हैं। तिनसुकिया और अरूणाचल के बीच कहीं सादिया कुकुरमारा में दो दिन पहले उल्फा ने तीस बिहारियों को भून डाला। उनकी लाशें अब भी वहीं सड़ रही हैं। इनमें से सभी मजदूर थे जो तेजू में लगने वाली साप्ताहिक हाट से राशन खरीद कर एक ट्रक में सवार होकर लौट रहे थे। उन्हें जंगल में ट्रक रोक कर उतारा गया, कतार में खड़ा कर नाम पूछे गए और फिर गोली से उड़ा दिया गया। लौटती ट्रेनों में जगह नहीं है क्योंकि बिहारी अपने घर, जमीनें छोड़ कर असम से भाग रहे हैं। पिछले एक हफ्ते में पचपन से अधिक बिहारी मारे गए हैं।

संजय हजारिका की किताब में खून, बारूद, गुरिल्ला, मैमनसिंघिया मुसलमान, शरणार्थी और घुसपैठिये थे। वर्गीज की किताब में संधिया, समझौते, राजनीति के दांव-पेंच, प्रशासनिक सुधार और इतिहास थे। दोनों को पढ़ते और ऊंघते हुए मुझे लगा कि यह ट्रेन मजबूर लोगों से भरी हुई है। उन्हें वहाँ लिए जा रही है जहाँ वे जाना नहीं चाहते। रोजी, व्यापार, रिश्तों की हथकड़ियों से जकड़ कर वे बिठा दिए गए हैं। वे जानते हैं कि वहाँ मौत नाच रही है फिर भी जा रहे हैं। तभी अचानक लंबी यात्रा की के बेफिक्र आलस की जगह डिब्बों चौकन्नापन पंजो के बल चलता महसूस होने लगा। तीन को छोड़ कर बाकी भाषाएँ और बोलियां भयभीत, फुसफुसाने लगीं। ये तीन नई भाषाएँ थीं असमिया, अंग्रेजी और यदा-कदा बांग्ला। मैने स्लीपिंग बैग के भीतर नाखून चबा रहे शाश्वत की ओर देखा। थोड़ी देर बाद उसने कहा, अबे जब दुर्भाग्य यहाँ तक ले ही आया है तो आगे जो होगा देखा जाएगा।

(जारी)

6 comments:

सतीश पंचम said...

मुझे तो कुछ दिन पहले एक आटो वाले से मिलने का मौका मिला था, मुंबई के पवई से गोरेगाँव तक का सफर था। वह ऑटोवाला भी कुछ इसी तरह की बात कर रहा था कि आसाम जैसा अच्छा और खपसूरत इलाका पूरे भारत में नहीं है। थोडी देर बाद बताने लगा कि उसका घर रांची में है और आसाम मे भी है। उसके दादा वगैरह वहीं आसाम में बस गये थे और अब वह मुंबई में आ गया है ऑटो चला रहा है। थोडा समय और बीता फिर कहने लगा कि अच्छा हुआ इंद्रा ने कोईलरी, तेल - बील का हेड आफिस कलकत्ते में रखा नहीं तो आसाम वाले उसे चलने न देते .....साले बंद करवा देते। ईंद्रा ने कार्पो लगाकर ठीक ही किया था।

आज आपकी पोस्ट पढ कर उसकी बात याद हो आई। शुरूवात में आसाम की तरफदारी करने वाला शख्स धीरे-धीरे खुलता गया था।

मुनीश ( munish ) said...

जीवंत चित्रण ! काश इस हाल के ज़िम्मेदार भी इसे पढ़ पाते . मुज़फ्फरनगर के ज़िक्र से याद आई वो विशाल किसान रैली जिसके बोट-क्लब पर आयोजन के बाद वहां तमाम धरनों ,रैलियों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था और अब प्रदर्शनकारी केवल पार्लमेंट थाने तक जा सकते हैं . वजह , किसानों का मल-मूत्र विसर्जन इस परिमाण में हुआ था की इंडिया गेट पे सुबह की सैर कई दिन तक बंद रही थी .

मुनीश ( munish ) said...

Just two comments ? shame on readers if they can't appreciate this piece of prose !

Rahul Gaur said...

बहुत बढ़िया भगवन! एक समय के बाद इतना इमानदार संस्मरण पढ़ा हैं!
जारी रखिये

Ek ziddi dhun said...

रेल के डिब्बे में हैं और दिल-दिमाग को इत्ते सारे विवरणों, तल्ख़ हकीकतों और हर बात के पीछे ढेरों सवालों की अनुगूंजों से परेशान किये जा रहे hain. लेखक कोई जजनुमा सरलीकरण नहीं kar raha है, अक्सर उत्तर भारतीय लेखक ऐसा करते hain.
..लेकिन ये लाइन रेनू की याद दिलाती hai- `मेरी तरफ खैनी बढ़ाते हुए उन्होंने सलाह दी कि जा रहे हैं तो वहाँ जरा मच्छड़ और छोकड़ी से बचिएगा, तब गाजीपुर लौट पाइएगा।`
और हमारे जिल्ले के `गौरव` जाट और टिकैत पर ऐसा व्यंग्य? जाट पूछेंगे कि aap किसान विरोधी hain kya?

अजीत चिश्ती said...

"मच्छड़ और छोकड़ी से बचिएगा, तब गाजीपुर लौट पाइएगा।`" very true and nostalgic prose