Saturday, August 29, 2009

नदियों पर झुका हुआ काँपता है कौन : कवि अथवा सन्निपात ?

श्रीकान्त वर्मा ( १८ सितम्बर १९३१ - २५ मई १९८६ ) की यह कविता पिछले बीसेक वर्षॊं से यँ ही मेरी फाइल में लिखी पड़ी थी. अभी कुछ दिनों से नये सिरे से उनकी कविताओं से गुजरते हुए लगा कि इसे 'कबाड़खाना' के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर दिया जाय. लीजिए प्स्तुत है 'मायादर्पण' संग्रह में संकलित यह कविता - 'नक़ली कवियों की वसुन्धरा'
नक़ली कवियों की वसुन्धरा / श्रीकान्त वर्मा


धन्य यह वसुन्धरा
इतनी सारी
नदियों का झाग
केशों में अंधकार.
एक अन्तहीन प्रसव - पीड़ा में
पड़ी हुई
पल - पल
मनुष्य उगल रही है
नगर फेंक रही है
बिलों से मनुष्य निकल रहे हैं
दरबों से मनुष्य निकल रहे हैं....
टोकरी के नीचे छिपे
मुर्गों के मसीहा कवि
बाँग दे रहे हैं
सुबह हुई..

धन्य ! धन्य ! कवियों की ऐयाशी के झूठ में
लिपटी
वसुन्धरा !

-- वसुन्धरा ! सूजा हुआ है क्यों
उदर ?
नसें क्यों
विषाक्त हैं ?
साँसों में
सीले -- जंगल -- जैसी
यह कैसी
बास है?
कवियों के झूठ में लिपटी
हुई वेश्या -- माँ
अपनी संतानों का स्वर्ग देख रही है ...

बरस रहा है अन्धकार इस कुहासे पर
भुजा पर,
मसान पर,
समुद्र पर,
दुनिया - भर के तमाम
सोये हुए
बन्दरगहों पर
डूबती हुई अन्तिम
प्राथना पर
बरस रहा है
अन्धकार --
मगर वेश्याई स्वर्ग में
फोड़ों की तरह
उत्सव फूट रहे हैं .
बरस रहा है अन्धकार !
मगर उल्लू के पठ्ठे !
स्त्रियाँ - रिझाऊ कवितायें
लिख रहे हैं.


भेड़ियों के कोरस की तमाच्छन्न अन्ध - रात्रि !
मनुष्य के अन्दर
मनुष्य,
सदी के अन्दर
एक सदी
खो रही है --
मगर इससे क्या ! वसुन्धरा
सोये मसानों में
जागते मसान
बो रही है

आदमी का कोट पहन
चूहे
निर्वसन मनुष्य की
पीठ कस रहे हैं;
चुहियों के कन्धों पर
पंख
फूट रहे हैं और कंठ में
क्लासिक संगीत !
नक़ली वसन्त के
गोत्रहीन पत्ते
झड़ रहे हैं.

धन्य ! धन्य ! ओ नक़ली कवियों कवियों के वसन्त में
लिपटी वसुन्धरा !

--वसुन्धरा ! तेरे शरीर पर
झुरियाँ हैं
अथवा दरार ?
होठों पर उफन रहा
पाप !
छटपट कर
टूट रहे
चट्टानी हाथ !
धो - धो जाता है
कौन
बार - बार आँसू से
कीचड़ में लथपथ
इस पृथ्वी के पाँव ?
नदियों पर झुका हुआ काँपता है कौन : कवि अथवा सन्निपात ?

जिज्ञासाहीन अंधकार में
कीचड़ की शय्या पर
स्वप्न देखती हुई
सुखी है वसुन्धरा ! मनुष्य
उगल रही है
नगर
फेंक रही है
टोकरी के नीचे कवि बाँग दे रहे हैं .

4 comments:

वाणी गीत said...

कवि अथवा सन्निपात ...उफ्फ्फ.. सन्निपात में तो हम है कविता पढ़कर ..!!

प्रीतीश बारहठ said...

कवि तो बांग दे रहा है इस वैश्यायी स्वर्ग में लगातार, अब शायद अलार्म भी बजाने लगा है।

लेकिन

"धो - धो जाता है
कौन
बार - बार आँसू से
कीचड़ में लथपथ
इस पृथ्वी के पाँव ?"

यह कार्य कोई श्रीकांत वर्मा ही कर रहा है और उम्मीद है करता रहेगा।

Ashok Kumar pandey said...

इस कविता के लिये आभार

Ashok Kumar pandey said...

इस कविता के लिये आभार