Wednesday, August 26, 2009

“स्‍याही ताल” के साथ फिर प्रकट हुए कवि वीरेन डंगवाल

Syahi Taal PB

किताब का ब्‍लर्ब


वीरेन डंगवाल ने दुश्चक्र में स्रष्टा में पूछा था, किसने आखिर ऐसा समाज रच डाला है/ जिसमें बस वही दमकता है, जो काला है? वीरेन के इस नये संग्रह में हम देखते हैं कि कालेपन की प्रतिनिधि ताकतें इस बीच किस तरह एक संवेदनहीन और निर्मम समाज की रचना करने में कामयाब हुईं हैं। यहां वीरेन अपने भयावह समाज और समय को उन कथाओं में पढ़ते हैं, जो खंडित हैं, काव्यात्मक नहीं बल्कि गद्यात्मक हैं और जिनमें कई जटिल और वीभत्स रहस्य छिपे हुए हैं और जिन्हें कवि के अनुसार, एक अलग रास्ता पकड़ कर ही पहचाना जा सकता है। अपेक्षाकृत लंबी कविता कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा ऐसी ही रचना है। यह एक चिंतित मनुष्य की कविता है, जो साधारण जन के निश्छल और संक्षिप्त स्वप्नों को टूटते हुए देख रहा है और एक ऐसे रास्ते से गुज़र रहा है, जिसकी बगल में सड़ता हुआ जल है। हमारी व्यवस्था और समाज की भीतरी सड़न दरअसल वीरेन की नयी कविताओं का प्रमुख सरोकार बन कर उभरी है। जिस क्षरण का साक्षात्कार हमें कटरी की रुकुमिनी के शोषण में होता है, वह रॉकलैण्ड अस्पताल डायरी, लकड़ी का बना वही रावण, चारबाग स्टेशन का प्लेटफार्म नंबर सात और कानपुर जैसी दूसरी कुछ लंबी कविताओं में भी अलग-अलग संदर्भों में प्रकट हुआ है।

पिछली कविताओं की बेफिक्री और उम्मीदों के बरक्स नये संग्रह में वीरेन डंगवाल की एक बेचैन छवि उभरती है। एक गहरी तकलीफ और अपने समय को समझने की एक दुर्वह-दुस्सह अनिवार्यता के एहसास से भरी। गंगा के उदगम पर जाकर उसका एक किशोरी जैसा एकांत उल्लास देखते हुए वीरेन आशंकित होकर यह भी कहते हैं कि चमड़े का रस मिले उसको भी पी लेना/ गाद-कीच-तेल-तेज़ाबी रंग सभी पी लेना/ ढो लेना जो लाशें मिलें सड़ती हुईं। इसी तरह अपने प्रिय इलाहाबाद से सरल-निश्छल और अमरूदों की उत्तेजक लालसा भरी गंध वाले अतीत को याद करते हुए वे पाते हैं अब बगुले हैं या पंडे हैं या कउए हैं या हैं वकील... नर्म भोले मृगछौनों के आखेटोत्सुक लूमड़ सियार। यह सिर्फ मोहभंग नहीं है, बल्कि एक नये-डरावने समय में आशंकित मन की मुक्तिबोधीय विकलता है जो पिता की रुग्णता और मृत्यु पर लिखी हुई बहुत मार्मिक कविताओं में भी जीवन की कठिन उलटबांसी को देख लेती है। इसके बावजूद वीरेन खासे कड़‍ियल कवि हैं इसलिए वे बुनियादी उम्मीद को नहीं छोड़ते और उसे फ्यूंली जैसे पहाड़ी फूल, वसंत के विनम्र कांटों, एक पुराने तोते, चिरौटे की मां, बकरियों, पुराने ज़माने की एक साइकिल, अपने जहाजी बेटे के नाम एक सन्देश और वास्तुशिल्पी लॉरी बेकर के बेजोड़ शिल्प में छिपी हुई हवा में पहचान कर अपनी तत्सम-तदभव-क्लासिक-देशज-व्यंग्य-विनोद-वक्रोक्ति की बांकी-तिरछी भंगिमाओं के मिश्रण से बनी उस भाषा में दर्ज कर लेते हैं, जो हिंदी कविता में उन्हें एक अलग-से रास्ते का चमकता हुआ कवि बनाती है।

स्‍याही ताल की क़ीमत सजिल्‍द 200 रुपये है और पेपरबैक 100 रुपये। इसे आप अंतिका प्रकाशन, सी 56, यूजीएफ 4, शालीमार गार्डेन, एक्‍स. 2, साहिबाबाद, ग़ाज़‍ियाबाद 201005 (यूपी) के पते पर लिख कर मंगवा सकते हैं। अंतिका प्रकाशन का फोन नंबर है 0120-6475212... इस पुस्‍तक को मंगवाने के लिए antika56@gmail पर मेल भी कर सकते हैं। या नीचे कमेंट बॉक्‍स में इन किताबों के ऑर्डर दिये जा सकते हैं।

कवि परिचय


वीरेन डंगवाल। जन्म : 5 अगस्त, 1947, कीर्तिनगर, टिहरी गढ़वाल। मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, कानपुर, बरेली और फिर नैनीताल में शुरुआती शिक्षा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए। आधुनिक हिंदी कविता के मिथकों और प्रतीकों पर डीफिल। 1971 से बरेली कॉलेज में अध्यापन। हिंदी-अंग्रेज़ी में पत्रकारिता। अमृत प्रभात में कुछ वर्ष घूमता आईना स्तंभ के लिए लेखन। अरसे तक दैनिक अमर उजाला के संपादकीय सलाहकार भी रहे।
इसी दुनिया में (1991) और दुश्चक्र में स्रष्टा (2002) कविता-संग्रह प्रकाशित। तुर्की के महाकवि नाजि़म हिकमत की कविताओं के अनुवाद पहल पुस्तिका में प्रकाशित। दुश्चक्र में स्रष्टा संग्रह के अनुवाद पंजाबी और उड़‍िया में भी प्रकाशित।
विश्व कविता से पाब्लो नेरुदा, बर्टोल्ट ब्रेष्ट, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊष रूज़ेविच आदि की कविताओं के अलावा कुछ आदिवासी लोक कविताओं के अनुवाद। कई कविताओं के अनुवाद बांग्ला, मराठी, पंजाबी, मलयालम, मैथिली और अंग्रेज़ी में प्रकाशित।
इसी दुनिया में के लिए रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (1992), श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार (1993), कविता के लिए शमशेर सम्मान (2002), साहित्य अकादेमी पुरस्कार (2004)।
संपर्क : 189/193ए, सिविल लाइन्स, बरेली-243000 (उप्र)

संग्रह से कुछ कविताएं

कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा


(क्षुधार राज्ये पृथिबी गोद्योमोय*)


मैं थक गया हूं
फुसफुसाता है भोर का तारा
मैं थक गया हूं चमकते-चमकते इस फीके पड़ते
आकाश के अकेलेपन में।
गंगा के खुश्क कछार में उड़ती है रेत
गहरे काही रंग वाले चिकने तरबूज़ों की लदनी ढोकर
शहर की तरफ चलते चले जाते हैं हुचकते हुए ऊंट
अपनी घंटियां बजाते प्रात की सुशीतल हवा में

जेठ विलाप के रतजगों का महीना है

घंटियों के लिए गांव के लोगों का प्रेम
बड़ा विस्मित करने वाला है
और घुंघरुओं के लिए भी।

रंगीन डोर से बंधी घंटियां
बैलों-गायों-बकरियों के गले में
और कोई-कोई बच्चा तो कई बार
बत्तख की लंबी गर्दन को भी
इकलौते निर्भार घुंघरू से सजा देता है

यह दरअसल उनका प्रेम है
उनकी आत्मा का संगीत
जो इन घंटियों में बजता है

यह जानकारी केवल मर्मज्ञों के लिए।
साधारण जन तो इसे जानते ही हैं।

♦♦♦

दरअसल मैंने तो पकड़ा ही एक अलग रास्ता
वह छोटा नहीं था न आसान
फकत फितूर जैसा एक पक्का यकीन
एक अलग रास्ता पकड़ा मैंने।

जब मैं उतरा गंगा की बीहड़ कटरी में
तो पालेज में हमेशा की तरह उगा रहे थे
कश्यप-धीमर-निषाद-मल्लाह
तरबूज़ और खरबूज़े
खीरे-ककड़ी-लौकी-तुरई और टिंडे।

खटक-धड़-धड़ की लचकदार आवाज़ के साथ
पुल पार करती
रेलगाड़ी की खिड़की से आपने भी देखा होगा कई बार
क्षीण धारा की बगल में
सफेद बालू के चकत्तेदार विस्तार में फैला
यह नरम-हरा-कच्चा संसार।

शामों को
मढ़ैया की छत की फूंस से उठता धुआं
और और भी छोटे-छोटे दीखते नंगधड़ंग श्यामल
बच्चे-
कितनी हूक उठाता
और सम्मोहक लगता है
दूर देश जाते यात्री को यह दृश्य।

ऐसी ही एक मढ़ैया में रहती है
चौदह पार की रुकुमिनी
अपनी विधवा मां के साथ।

बड़ा भाई जेल में है
एक पीपा कच्ची खेंचने के ज़ुर्म में
छोटे की सड़ी हुई लाश दो बरस पहले
कटरी की उस घनी, ब्लेड-सी धारदार
पतेल घास के बीच मिली थी
जिसमें गुज़रते हुए ढोरों की भी टांगें चिर जाती हैं।

लड़के का अपहरण कर लिया था
गंगा पार के कलुआ गिरोह ने
दस हज़ार की फिरौती के लिए
जिसे अदा नहीं किया जा सका।

मिन्नत-चिरौरी सब बेकार गयी।

अब मां भी बालू में लाहन दाब कर
कच्ची खींचने की उस्ताद हो चुकी है
कटरी के और भी तमाम मढ़ैयावासियों की तरह।

♦♦♦

कटरी के छोर पर बसे
बभिया नामक जिस गांव की परिधि में आती है
रुकुमिनी की मढ़ैया
सोमवती, पत्नी रामखिलौना
उसकी सद्य:निर्वाचित ग्रामप्रधान है।
प्रधानपति - यह नया शब्द है
हमारे परिपक्व हो चले प्रजातांत्रिक शब्दकोश का।

रामखिलौना ने
बन्दूक और बिरादरी के बूते पर
बभिया में पता नहीं कब से दनदना रही
ठाकुरों की सिट्टी-पिट्टी को गुम किया है।
कच्ची के कुटीर उद्योग को संगठित करके
उसने बिरादरी के फटेहाल उद्यमियों को
जो लाभ पहुंचाये हैं
उनकी भी घर-घर प्रशंसा होती है।
इस सब से उसका मान काफी बढ़ा है।
रुकुमिनी की मां को वह चाची कहता है
हरे खीरे जैसी बढ़ती बेटी को भरपूर ताककर भी
जिस हया से वह अपनी निगाह फेर लेता है
उससे उसकी सच्चरित्रता पर
मां का कृतज्ञ विश्वास और भी दृढ़ हो जाता है।

रुकुमिनी ठहरी सिर्फ चौदह पार की
भाई कहकर रामखिलौना से लिपट जाने का
जी होता है उसका
पर फिर पता नहीं क्या सोचकर ठिठक जाती है।

♦♦♦

मैंने रुकुमिनी की आवाज़ सुनी है
जो अपनी मां को पुकारती बच्चों जैसी कभी
कभी उस युवा तोते जैसी
जो पिंजरे के भीतर भी
जोश के साथ सुबह का स्वागत करता है।

कभी सिर्फ एक अस्फुट क्षीण कराह।
मैंने देखा है कई बार उसके द्वार
अधेड़ थानाध्यक्ष को
इलाके के उस स्वनामधन्य युवा
स्मैक तस्कर वकील के साथ
जिसकी जीप पर इच्छानुसार विधायक प्रतिनिधि
अथवा प्रेस की तख्ती लगी रही है।

यही रसूख होगा या बूढ़ी मां की गालियों और कोसनों का धाराप्रवाह
जिसकी वजह से
कटरी का लफंगा स्मैक नशेड़ी समुदाय
इस मढ़ैया को दूर से ही ताका करता है
भय और हसरत से।

एवम प्रकार
रुकुमिनी समझ चुकी है बिना जाने
अपने समाज के कई जटिल और वीभत्स रहस्य
अपने निकट भविष्य में ही चीथड़ा होने वाले
जीवन और शरीर के माध्यम से
गो कि उसे शब्द समाज का मानी भी पता नहीं।

सोचो तो,
सड़ते हुए जल में मलाई-सा उतराने को उद्यत
काई की हरी-सुनहरी परत सरीखा ये भविष्य भी
क्या तमाशा है

और स्त्री का शरीर!
तुम जानते नहीं, पर जब-जब तुम उसे छूते हो
चाहे किसी भाव से
तब उसमें से ले जाते हो तुम
उसकी आत्मा का कोई अंश
जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शीश।

यह इस सड़ते हुए जल की बात है
जिसकी बगल से गुज़रता है मेरा अलग रास्ता।

♦♦♦

रुकुमिनी का हाल जो हो
इस उमर में भी उसकी मां की सपने देखने की आदत
नहीं गयी।
कभी उसे दीखता है
लाठी से गंगा के छिछले पेटे को ठेलता
नाव पर शाम को घर लौटता
चौदह बरस पहले मरा अपना आदमी नरेसा
जिसकी बांहें जैसे लोहे की थीं;
कभी पतेल लांघ कर भागता चला आता बेटा दीखता है
भूख-भूख चिल्लाता
उसकी जगह-जगह कटी किशोर
खाल से रक्त बह रहा है।

कभी दीखती है दरवाज़े पर लगी एक बरात
और आलता लगी रुकुमिनी की एड़‍ियां।

सपने देखने की बूढ़ी की आदत नहीं गयी।

उसकी तमन्ना ही रह गयी:
एक गाय पाले, उसकी सेवा करे, उसका दूध पिए
और बेटी को पिलाए
सेवा उसे बेटी की करनी पड़ती है।

काष्ठ के अधिष्ठान खोजती वह माता
हर समय कटरी के धारदार घास भरे
खुश्क रेतीले जंगल में
उसका दिल कैसे उपले की तरह सुलगता रहता है
इसे वही जानती है
या फिर वे अदेखे सुदूर भले लोग
जिन्हें वह जानती नहीं
मगर जिनकी आंखों में अब भी उमड़ते हैं नम बादल
हृदयस्थ सूर्य के ताप से प्रेरित।
उन्हें तो रात भी विनम्र होकर रोशनी दिखाती है,
पिटा हुआ वाक्य लगे फिर भी, फिर भी
मनुष्यता उन्हीं की प्रतीक्षा का खामोश गीत गाती है
मुंह अंधेरे जांता पीसते हुए।

इसीलिए एक अलग रास्ता पकड़ा मैंने
फितूर सरीखा एक पक्का यकीन
इसीलिए भोर का थका हुआ तारा
दिगंतव्यापी प्रकाश में डूब जाने को बेताब।

(* उप-शीर्षक : बहुत ही कम आयु में दिवंगत हो गये बांग्ला कवि सुकांत भट्टाचार्य की एक प्रसिद्ध कविता का शीर्षक : क्षुधार राज्ये पृथिबी गोद्योमोय अर्थात भूख के राज्य में धरती गद्यमय है)



स्याही ताल


मेरे मुंतजिर थे
रात के फैले हुए सियह बाज़ू
स्याह होंठ
थरथराते स्याह वक्ष
डबडबाता हुआ स्याह पेट
और जंघाएं स्याह।

मैं नमक की खोज में निकला था
रात ने मुझे जा गिराया
स्याही के ताल में।

सुप्रभात



पीठ ओट दे पूड़ी खालो
गाड़ी के डब्बे में
प्लास्टिक की पिद्दी प्याली में
एक घूंट मैली-सी चाय

देहाती स्टेशन की
जंग लगे लोहे वाले चपटे तीरों की सरहद के पार
सुनहरी परछांही को फैलते देखो
काई भरे गंदे डबरे पर
जो जगमग
अलौकिक सी दीप्ति से

चूम रहा है ईश्वर
खुद अपने हाथों झुलसाये पृथ्वी के केश
और दग्ध होंठ
जिनमें इच्छाएं स्मृतियों की तरह हरी हैं

और वे कड़खड़ाती एड़‍ियां कतारबद्ध
और वे क्लाश्निकोव वगैरह चमचम
परेड मैदान की भूरी धूल में सुबह-सुबह

और वे नंगी दुर्बल सांवली पसलियां
भयग्रस्त थर-थर वक्ष के तले
वह भी चमकतीं हंसुओं की तरह
देखो बेआवाज़ सिसकियों से हिलती दिल की बूढ़ी पीठ
दिल की आंखों से उबलते आंसू
देखो फूलता-पचकता
दिल का घबराया ज़र्द चेहरा

सुप्रभात, अलबेले जीवन
चलो निकल आगे की ओर
दिल को लिये मीर की ठौर!

बावजूद मधुशाला के, कवि बच्चन जी



चांद की चकल्लस से
कुछ सुंदर हुई रात
थोड़ी-सी हवा चली
और मज़ा आ गया

बालकनी से दीखा
सुदूर भूरे रंग का अंधकार
जिसे भेदते दाख‍िल होती थी
महानगर में
अंतहीन-सी लगती कतार मोटर गाड़‍ियों की
वैसे ही इस तरफ से भी जाती थी

याद आये कुछ चेहरे
भूलें भी कुछ कसकीं
जी में आया यह भी
कवि बच्चन में कुछ तो है
बावजूद मधुशाला के!

खुद को ढूंढऩा!



एक शीतोष्ण हंसी में
जो आती गोया
पहाड़ों के पार से
सीधे कानों फिर इन शब्दों में

ढूंढऩा खुद को
खुद की परछाईं में
एक न लिए गए चुंबन में
अपराध की तरह ढूंढ़ना।

चुपचाप गुज़रो इधर से,
यहां आंखों में मोटा काजल
और बेंदी पहनी सधवाएं
धो रही हैं
रेत से अपने गाढ़े चिपचिपे केश
वर्षा की प्रतीक्षा में।

कहनानंद



अपनी ही देह
मज़े देवे
अपना ही जिसम
सताता है

यह बात कोई
न नवीं, नक्को
आनंद ज़रा-सा
कहन का है।

17 comments:

आशुतोष कुमार said...

दिन की शुरुआत ही इस शानदार खबर और जान दार कविताओं से .वीरेन Da और उन के आशिकों को मुबारकां जी मुबारकां. और हाँ महबूबों को भी.

Sunder Chand Thakur said...

wahi andaaz! meri jaan kurbaan! Viren Dangwal ki kavitaon mein mujhe kai baar fakkad babaon ki atma dikhti hai...ve swabhav se baba nagarjun hue ja rahen hain...
Viren Da...utaar daalo kagaj par jo bhi utarta hai hai apke man ki salwaton mein...jo bhi jahan bhi jaisa bhi...ab sab kavita hi kavita hai...itna anubhav badha jeewan ka...ye gujarish hai apni...Ashok ko shukriya

Ashok Kumar pandey said...

बस कल ही गौरीनाथ को धनादेश भेजता हूं…

pallav said...

veerenji aur gourinathji ko badhai.

Ek ziddi dhun said...

ye bekali akaran to nahi hai. aise samy men sanvedansheel manushy ka khade rah pana hi bada pratirodh ha. sangrh padhne ki bharee utsukta hai. ganv se dilli lautte hue pahle antika ruka jayega.

ravindra vyas said...

बहुत ही सुंदर और मार्मिक कविताएं हैं।

शायदा said...

hairan kar diya..
जेठ विलाप के रतजगों का महीना है
bahut badhiya kehna kum hi rahega.

trinetra said...

virendra ki kavitaon ki apni ek laya hai, jo hindi kavita mein lagatar kam hoti ja rahee hai. wey us par ke golardhha se ayee kavitaon ke mahavare se to katai alag hain. virendra nirmit yah patari ek parichit mahaul se jindagi ke itne samvedansheel chitra utha leti hai ke ek tazagi ki pratiti se pathak ka sansar zaroor mahakne lagta hai. Jiyo palatdas,jiyo.

Anand Swaroop Verma said...

सोचो तो,
सड़ते हुए जल में मलाई-सा उतराने को उद्यत
काई की हरी-सुनहरी परत सरीखा ये भविष्य भी
क्या तमाशा है

और स्त्री का शरीर!
तुम जानते नहीं, पर जब-जब तुम उसे छूते हो
चाहे किसी भाव से
तब उसमें से ले जाते हो तुम
उसकी आत्मा का कोई अंश
जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शीश।

यह इस सड़ते हुए जल की बात है
जिसकी बगल से गुज़रता है मेरा अलग रास्ता।

वीरेन की यह कविता अपने आप में एक महाकाव्य है. 'हमारे परिप'क्व हो चले प्रजातंत्र की परत दर परत उधेड़ती इस कविता का फलक इतना व्यापक है जो बेचैन तो करता ही है एक अजीब से ट्रांस में पहुंचा देता है. वीरेन की काव्य यात्रा का यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जिसमे रुकुमिनी की व्यथा है, सत्ता का अहंकार है, अदेखे भले लोगों की आँखों में उमड़ते नम बादल हैं और इन सबके बीच है 'फितूर सरीखे' कवि का 'एक पक्का यकीन'... एक लम्बे अरसे बाद कविता पढ़ कर उस दुनिया में पहुंच सका जो सचमुच यथार्थ है. वीरेन को बधाई.

आनंद स्वरूप वर्मा

Anand Swaroop Verma said...

सोचो तो,
सड़ते हुए जल में मलाई-सा उतराने को उद्यत
काई की हरी-सुनहरी परत सरीखा ये भविष्य भी
क्या तमाशा है

और स्त्री का शरीर!
तुम जानते नहीं, पर जब-जब तुम उसे छूते हो
चाहे किसी भाव से
तब उसमें से ले जाते हो तुम
उसकी आत्मा का कोई अंश
जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शीश।

यह इस सड़ते हुए जल की बात है
जिसकी बगल से गुज़रता है मेरा अलग रास्ता।

वीरेन की यह कविता अपने आप में एक महाकाव्य है. 'हमारे परिप'क्व हो चले प्रजातंत्र की परत दर परत उधेड़ती इस कविता का फलक इतना व्यापक है जो बेचैन तो करता ही है एक अजीब से ट्रांस में पहुंचा देता है. वीरेन की काव्य यात्रा का यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जिसमे रुकुमिनी की व्यथा है, सत्ता का अहंकार है, अदेखे भले लोगों की आँखों में उमड़ते नम बादल हैं और इन सबके बीच है 'फितूर सरीखे' कवि का 'एक पक्का यकीन'... एक लम्बे अरसे बाद कविता पढ़ कर उस दुनिया में पहुंच सका जो सचमुच यथार्थ है. वीरेन को बधाई.

आनंद स्वरूप वर्मा

Anand Swaroop Verma said...

सोचो तो,
सड़ते हुए जल में मलाई-सा उतराने को उद्यत
काई की हरी-सुनहरी परत सरीखा ये भविष्य भी
क्या तमाशा है

और स्त्री का शरीर!
तुम जानते नहीं, पर जब-जब तुम उसे छूते हो
चाहे किसी भाव से
तब उसमें से ले जाते हो तुम
उसकी आत्मा का कोई अंश
जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शीश।

यह इस सड़ते हुए जल की बात है
जिसकी बगल से गुज़रता है मेरा अलग रास्ता।

वीरेन की यह कविता अपने आप में एक महाकाव्य है. 'हमारे परिप'क्व हो चले प्रजातंत्र की परत दर परत उधेड़ती इस कविता का फलक इतना व्यापक है जो बेचैन तो करता ही है एक अजीब से ट्रांस में पहुंचा देता है. वीरेन की काव्य यात्रा का यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जिसमे रुकुमिनी की व्यथा है, सत्ता का अहंकार है, अदेखे भले लोगों की आँखों में उमड़ते नम बादल हैं और इन सबके बीच है 'फितूर सरीखे' कवि का 'एक पक्का यकीन'... एक लम्बे अरसे बाद कविता पढ़ कर उस दुनिया में पहुंच सका जो सचमुच यथार्थ है. वीरेन को बधाई.

आनंद स्वरूप वर्मा

Anand Swaroop Verma said...

सोचो तो,
सड़ते हुए जल में मलाई-सा उतराने को उद्यत
काई की हरी-सुनहरी परत सरीखा ये भविष्य भी
क्या तमाशा है

और स्त्री का शरीर!
तुम जानते नहीं, पर जब-जब तुम उसे छूते हो
चाहे किसी भाव से
तब उसमें से ले जाते हो तुम
उसकी आत्मा का कोई अंश
जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शीश।

यह इस सड़ते हुए जल की बात है
जिसकी बगल से गुज़रता है मेरा अलग रास्ता।

वीरेन की यह कविता अपने आप में एक महाकाव्य है. 'हमारे परिप'क्व हो चले प्रजातंत्र की परत दर परत उधेड़ती इस कविता का फलक इतना व्यापक है जो बेचैन तो करता ही है एक अजीब से ट्रांस में पहुंचा देता है. वीरेन की काव्य यात्रा का यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जिसमे रुकुमिनी की व्यथा है, सत्ता का अहंकार है, अदेखे भले लोगों की आँखों में उमड़ते नम बादल हैं और इन सबके बीच है 'फितूर सरीखे' कवि का 'एक पक्का यकीन'... एक लम्बे अरसे बाद कविता पढ़ कर उस दुनिया में पहुंच सका जो सचमुच यथार्थ है. वीरेन को बधाई.

आनंद स्वरूप वर्मा

Anand Swaroop Verma said...

सोचो तो,
सड़ते हुए जल में मलाई-सा उतराने को उद्यत
काई की हरी-सुनहरी परत सरीखा ये भविष्य भी
क्या तमाशा है

और स्त्री का शरीर!
तुम जानते नहीं, पर जब-जब तुम उसे छूते हो
चाहे किसी भाव से
तब उसमें से ले जाते हो तुम
उसकी आत्मा का कोई अंश
जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शीश।

यह इस सड़ते हुए जल की बात है
जिसकी बगल से गुज़रता है मेरा अलग रास्ता।

वीरेन की यह कविता अपने आप में एक महाकाव्य है. 'हमारे परिप'क्व हो चले प्रजातंत्र की परत दर परत उधेड़ती इस कविता का फलक इतना व्यापक है जो बेचैन तो करता ही है एक अजीब से ट्रांस में पहुंचा देता है. वीरेन की काव्य यात्रा का यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जिसमे रुकुमिनी की व्यथा है, सत्ता का अहंकार है, अदेखे भले लोगों की आँखों में उमड़ते नम बादल हैं और इन सबके बीच है 'फितूर सरीखे' कवि का 'एक पक्का यकीन'... एक लम्बे अरसे बाद कविता पढ़ कर उस दुनिया में पहुंच सका जो सचमुच यथार्थ है. वीरेन को बधाई.

आनंद स्वरूप वर्मा

Anand Swaroop Verma said...

सोचो तो,
सड़ते हुए जल में मलाई-सा उतराने को उद्यत
काई की हरी-सुनहरी परत सरीखा ये भविष्य भी
क्या तमाशा है

और स्त्री का शरीर!
तुम जानते नहीं, पर जब-जब तुम उसे छूते हो
चाहे किसी भाव से
तब उसमें से ले जाते हो तुम
उसकी आत्मा का कोई अंश
जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शीश।

यह इस सड़ते हुए जल की बात है
जिसकी बगल से गुज़रता है मेरा अलग रास्ता।

वीरेन की यह कविता अपने आप में एक महाकाव्य है. 'हमारे परिप'क्व हो चले प्रजातंत्र की परत दर परत उधेड़ती इस कविता का फलक इतना व्यापक है जो बेचैन तो करता ही है एक अजीब से ट्रांस में पहुंचा देता है. वीरेन की काव्य यात्रा का यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जिसमे रुकुमिनी की व्यथा है, सत्ता का अहंकार है, अदेखे भले लोगों की आँखों में उमड़ते नम बादल हैं और इन सबके बीच है 'फितूर सरीखे' कवि का 'एक पक्का यकीन'... एक लम्बे अरसे बाद कविता पढ़ कर उस दुनिया में पहुंच सका जो सचमुच यथार्थ है. वीरेन को बधाई.

आनंद स्वरूप वर्मा

Anand Swaroop Verma said...

सोचो तो,
सड़ते हुए जल में मलाई-सा उतराने को उद्यत
काई की हरी-सुनहरी परत सरीखा ये भविष्य भी
क्या तमाशा है

और स्त्री का शरीर!
तुम जानते नहीं, पर जब-जब तुम उसे छूते हो
चाहे किसी भाव से
तब उसमें से ले जाते हो तुम
उसकी आत्मा का कोई अंश
जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शीश।

यह इस सड़ते हुए जल की बात है
जिसकी बगल से गुज़रता है मेरा अलग रास्ता।

वीरेन की यह कविता अपने आप में एक महाकाव्य है. 'हमारे परिप'क्व हो चले प्रजातंत्र की परत दर परत उधेड़ती इस कविता का फलक इतना व्यापक है जो बेचैन तो करता ही है एक अजीब से ट्रांस में पहुंचा देता है. वीरेन की काव्य यात्रा का यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जिसमे रुकुमिनी की व्यथा है, सत्ता का अहंकार है, अदेखे भले लोगों की आँखों में उमड़ते नम बादल हैं और इन सबके बीच है 'फितूर सरीखे' कवि का 'एक पक्का यकीन'... एक लम्बे अरसे बाद कविता पढ़ कर उस दुनिया में पहुंच सका जो सचमुच यथार्थ है. वीरेन को बधाई.

आनंद स्वरूप वर्मा

Anand Swaroop Verma said...

सोचो तो,
सड़ते हुए जल में मलाई-सा उतराने को उद्यत
काई की हरी-सुनहरी परत सरीखा ये भविष्य भी
क्या तमाशा है

और स्त्री का शरीर!
तुम जानते नहीं, पर जब-जब तुम उसे छूते हो
चाहे किसी भाव से
तब उसमें से ले जाते हो तुम
उसकी आत्मा का कोई अंश
जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शीश।

यह इस सड़ते हुए जल की बात है
जिसकी बगल से गुज़रता है मेरा अलग रास्ता।

वीरेन की यह कविता अपने आप में एक महाकाव्य है. 'हमारे परिप'क्व हो चले प्रजातंत्र की परत दर परत उधेड़ती इस कविता का फलक इतना व्यापक है जो बेचैन तो करता ही है एक अजीब से ट्रांस में पहुंचा देता है. वीरेन की काव्य यात्रा का यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जिसमे रुकुमिनी की व्यथा है, सत्ता का अहंकार है, अदेखे भले लोगों की आँखों में उमड़ते नम बादल हैं और इन सबके बीच है 'फितूर सरीखे' कवि का 'एक पक्का यकीन'... एक लम्बे अरसे बाद कविता पढ़ कर उस दुनिया में पहुंच सका जो सचमुच यथार्थ है. वीरेन को बधाई.

आनंद स्वरूप वर्मा

Anand Swaroop Verma said...

सोचो तो,
सड़ते हुए जल में मलाई-सा उतराने को उद्यत
काई की हरी-सुनहरी परत सरीखा ये भविष्य भी
क्या तमाशा है

और स्त्री का शरीर!
तुम जानते नहीं, पर जब-जब तुम उसे छूते हो
चाहे किसी भाव से
तब उसमें से ले जाते हो तुम
उसकी आत्मा का कोई अंश
जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शीश।

यह इस सड़ते हुए जल की बात है
जिसकी बगल से गुज़रता है मेरा अलग रास्ता।

वीरेन की यह कविता अपने आप में एक महाकाव्य है. 'हमारे परिप'क्व हो चले प्रजातंत्र की परत दर परत उधेड़ती इस कविता का फलक इतना व्यापक है जो बेचैन तो करता ही है एक अजीब से ट्रांस में पहुंचा देता है. वीरेन की काव्य यात्रा का यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जिसमे रुकुमिनी की व्यथा है, सत्ता का अहंकार है, अदेखे भले लोगों की आँखों में उमड़ते नम बादल हैं और इन सबके बीच है 'फितूर सरीखे' कवि का 'एक पक्का यकीन'... एक लम्बे अरसे बाद कविता पढ़ कर उस दुनिया में पहुंच सका जो सचमुच यथार्थ है. वीरेन को बधाई.

आनंद स्वरूप वर्मा