Monday, August 17, 2009

जब आपने कुछ खो दिया हो तो बेहतर है थक के चूर हो जाया जाए



आसा अर्ल कार्टर उर्फ़ फ़ॉर्रेस्ट कार्टर (सितम्बर ४, १९२५ - जून ७, १९७९) को उनकी पुस्तक 'एजूकेशन ऑफ़ द लिटल ट्री' के लिए जाना जाता है. यह किताब अमरीकी मूल के चेरोकी आदिवासी जीवन का एक प्रेरक संस्मरण है. १९९१ में यानी उनकी मृत्यु के बारह साल बाद यह किताब उस वर्ष अमरीका की फ़िक्शन और नॉन फ़िक्शन दोनों श्रेणियों में बेस्टसैलर लिस्ट में सबसे ऊपर रही और उसी साल इसे अमेरिकन बेस्टसैलर बुक ऑफ़ द ईयर का सम्मान भी हासिल हुआ. १९९७ में इसी शीर्षक से एक फ़िल्म भी बनाई गई थी.

यह किताब मुझ तक मेरे प्रिय पर्वतारोहॊ दोस्त कृष्णन कुट्टी के मार्फ़त पढ़ने को मिली थी. कृष्णन कुट्टी रानीखेत में रहते हैं और दुनिया की सबसे उत्कृष्ट पर्वतारोहण संस्थाओं में से एक NOLS यानी नेशनल आउटबाउन्ड लीडरशिप स्कूल, अमेरिका के भारतीय मुख्यालय का काम देखते हैं. पेरू और अर्जेन्टीना के घने जंगलों से अपने कैरियर की पहली ट्रेनिंग ले चुके कुट्टी हिमालय के चप्पे-चप्पे से वाकिफ़ हैं और पचास पार हो चुकने के बावजूद हर साल एक नया ट्रैक खोजने के अभियान में निकला करते हैं.

कृष्णन कुट्टी


कुछ साल पहले जब मैं दारमा घाटी से सिन-ला दर्रे की तकरीबन बीस हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पार कर व्यांस और चौंदास घाटी जाने वाले कोई दो-माह लम्बे जानलेवा ट्रैक पर निकल रहा था तब रानीखेत में कुट्टी ने यह किताब मुझे थमाई थी और बताया था कि वे अपने पर्वतारोहण के अभियानों में इस किताब को हमेशा साथ रखते हैं और ट्रैक के दौरान रातों को दोस्तों के बीच इस का सस्वर पाठ किया जाता है.

किताब मैंने तब भी पढ़ी थी और तब से दो-चार बार और पढ़ चुका हूं. मुझे इस किताब ने भीतर तक उद्वेलित और आनन्दित किया है सो इधर इस के अनुवाद का वालंटरी काम उठा लिया है.

आज उसका पहला अध्याय पढ़िये:




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दादी कहा करती थीं कि जब भी तुम्हें कोई अच्छी चीज़ प्राप्त हो, तुम्हें पहला काम यह करना चाहिये कि जो भी मिले उस के साथ उसे साझा करो. यही तरीका है कि अच्छी चीज़ें वहां भी पहुंचेंगी जहां वे वरना नहीं पहुंच पातीं. जो कि सही बात है.
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१.

नन्हा पेड़


पापा के जाने के बाद मां एक साल बची रही. इस वजह से मैं अपने दादा-दादी के साथ रहने आया जब मैं पांच साल का था.

दादी बताती हैं कि इस बारे में अन्तिम संस्कार के बाद रिश्तेदारों ने काफ़ी बवाल मचाया था.

पहाड़ के हमारे झोपड़े के पिछवाड़े के अहाते में वे सारे झुंड बना कर आपस में इस बात पर झगड़ रहे थे कि मुझे किस के साथ जाना चाहिए, साथ ही वे रंग किये हुए पलंग और मेज़-कुर्सियों का आपस में बंटवारा भी करते जा रहे थे.

दादाजी ने कुछ नहीं कहा था. भीड़ की सीमा से लगे वे बरामदे के एक छोर पर खड़े थे और दादी उनके पीछे. दादाजी आधे चेरोकी थे जबकि दादी विशुद्ध चेरोकी.

वे सारे लोगों से अलग खड़े नज़र आते थे; छः फ़ुट चार इंच लम्बे अपना बड़ा काला हैट और चमकीला काला सूट पहने जिसे केवल चर्च जाते समय या अन्तिम संस्कार में भाग लेने के लिए पहना जाता था. दादी की आंखें ज़मीन से लगी हुई थीं लेकिन भीड़ के ऊपर से दादा जी ने मुझे देखा और किसी तरह रास्ता बनाता मैं बरामदे के उस छोर तक पहूंच कर उनकी टांग से लग गया ताकि अगर वे मुझे दूर ले जाना भी चाहें तो मैं उनसे चिपका रह सकूं.

दादी बताती हैं कि मैं ज़रा सा भी नहीं चिल्लाया, न रोया, बस दादाजी की टांग थामे रहा; और रिश्तेदारों के मुझे खींचते जाने और मेरे दादाजी से चिपके रहने के काफ़ी देर बाद दादाजी ने अपना बड़ा हाथ मेरे सिर पर रखा.

"छोड़ो उसे," उन्होंने कहा था. और उन्होंने मुझे छोड़ दिया. दादाजी भीड़ में बहुत विरले बोला करते थे, लेकिन जब वे बोलते थे, दादी बताती थी, लोग सुना करते थे.

सर्दियों की अंधेरी दोपहर हम लोग पहाड़ से उतर कर नीचे शहर की तरफ़ जाने वाली सड़क पर पहुंचे. दादाजी सड़क के किनारे आगे आगे चल रहे थे, एक कट्टे में रखे मेरे कपड़े उनके कन्धे पर थे. मैंने उसी समय यह जान लिया था कि अगर आप दादाजी के पीछे चल रहे हों तो आपको तकरीबन भागना पड़ता है; मेरे पीछे दादी थी जिसे साथ बने रहने के लिए कभी कभार अपनी स्कर्ट थोड़ा सा उठा लेना पड़ती थी.

शहर पहुंचने के बाद भी हम उसी तरह चलते रहे. दादाजी आगे आगे थे जब तक कि हम बस अड्डे के पिछवाड़े नहीं पहुंच गए. हम वहां बहुत देर तक खड़े रहे; दादी आने जाने वाली बसों के सामने लिखे शब्दों को पढ़ रही थी. दादाजी कहते थे कि दादी किसी भी और पढ़े लिखे की तरह पढ़ सकती थी. गोधूलि उतरने को ही थी दादी ने हमारी बस ढूंढ ली जब वह ऐन हमारे सामने रुकी.

जब तक सारे लोग बस में चढ़ नहीं गए हम रुके रहे और यह अच्छा ही हुआ क्योंकि बस में हमारे पैर रखते ही तमाशा चालू हो गया. दादाजी आगे थे, मैं बीच में था जबकि दादी निचली सीढ़ी पर. दादाजी ने अपनी पतलून से पैसा देने के लिए बटुआ निकाला.

"तुम लोगों के टिकट कहां हैं?" बस-ड्राइवर के चिल्ला कर पूछा, और बस में बैठे हर किसी का ध्यान हम पर लग गया. इस से दादाजी को ज़रा भी परेशानी नहीं हुई. उन्होंने ड्राइवर से कहा कि वे पैसा दे तो रहे हैं, दादी ने उनसे फुसफुसाते हुए कहा कि ड्राइवर को बता तो दें कि हमें जाना कहां है. दादाजी ने उसे बता दिया.

ड्राइवर ने बताया कि कितना पैसा लगेगा; दादाजी ने सावधानी से बटुए से पैसा निकाल कर गिनना शुरू किया - क्योंकि गिनने के हिसाब से रोशनी तनिक कम थी - बस ड्राइवर ने भीड़ की तरफ़ मुड़कर अपना दायां हाथ उठा कर कहा "देखो!" और हंसा, तो सारे लोग भी हंसे. मुझे अच्छा लगा यह जानकर कि वे दोस्ताना लोग थे और इस बात से ज़रा भी नाराज़ नहीं हुए कि हमारे पास टिकट नहीं थे.

फिर हम बस के पीछे वाले हिस्से में पहुंचे, मैंने एक बीमार स्त्री को देखा. उसकी आखों के गिर्द असामान्य कालापन था जबकि उसका मुंह ख़ून से लाल पड़ा हुआ था; लेकिन जैसे ही हम उस के पास से गुज़रे उस ने अपने मुंह पर हाथ रख कर उसे साफ़ कर लिया और "वा ... हूऊऊ!" की बहुत तेज़ आवाज़ निकाली. लेकिन मुझे लगा कि उसकी तकलीफ़ बहुत जल्दी कम हो गई होगी क्योंकि वह हंसी और बाकी के लोग भी हंसे. उसके बगल में बैठा आदमी भी अपनी जांघों पर हाथ मारता हुआ हंस रहा था. उसकी टाई पर एक बड़ी और चमकीली पिन लगी हुई थी, सो मुझे पता चल गया कि वह एक रईस आदमी था और ज़रूरत पड़ने पर डॉक्टर की मदद ले सकने में समर्थ भी.

मैं दादी और दादाजी के बीच में बैठा, और मेरी गोदी से ले जाते हुए अपने हाथ से दादी ने दादाजी का हाथ थपथपाया. यह बहुत अच्छा लगा इसलिए मुझे नींद आ गई.

रात बहुत गहरा चुकी थी जब हम बस से कंकड़ों वाली सड़क पर उतरे. दादाजी ने चलना शुरू कर दिया, दादी और मैं पीछे-पीछे थे. कड़कड़ाती ठंड थी. आधे बड़े तरबुज़ की तरह चांद निकला हुआ था और आगे मोड़ पर गायब होने से पहले की सड़क चांदी की तरह दमक रही थी.

जब तक हम सड़क से बीच में घास उगे गाड़ियों के कच्चे रास्ते पर मुड़े नहीं थे मैंने पहाड़ों पर गौ़र नहीं किया था. वे वहां थे इतने ऊपर कि उन्हें देखने के लिए आपका सिर पीछे की तरफ़ मुड़ जाता था; आधा चांद उनके ऊपर चमक रहा था. मैं पहाड़ों का कालापन देख कर कांप गया.

मेरे पीछे से दादी ने आवाज़ दी, "वेल्स! बच्चा थक कर चूर हो रहा है." दादाजी रुके और पलटे. उन्होंने झुक कर मुझे देखा. उनका बड़ा हैट उनके चेहरे पर साया किये था.

"जब आपने कुछ खो दिया हो तो बेहतर है थक के चूर हो जाया जाए," उन्होंने कहा और चल पड़े, लेकिन अब उनके पीचे चलना आसान हो गया था. दादाजी धीमे हो गए थे और मुझे लगा कि वे भी थक चुके थे.

काफ़ी देर बाद हम लोग कच्चे रास्ते से पैदल मार्ग पर मुड़े और सीधे पहाड़ों की दिशा में चल पड़े. ऐसा लगता था कि पहाड़ हमारे ठीक सामने आ गए हैं पर जैसे जैसे हम चलते जाते थे, पहाड़ जैसे खुलते चले जाते थे और चरों तरफ़ से हमें अपनी आगोश में लेते जाते थे.

हमारे चलने की आवाज़ ने गूंजना शुरू कर दिया था. चारों तरफ़ से कुछ हिलने की आवाज़ें आने लगी थीं. पेड़ों के बीच से पंखों की तरह फुसफुसाहटें और आहें छन कर आती थीं मानो हर चीज़ जीवित हो उठी हो. थोड़ा गरमाहट थी. एक हल्की सी आवाज़ आई, कोई बुलबुला सा फूटा और सरसराने की आवाज़ आई - पहाड़ की एक शाखा चट्टानों से बहती हुई नीचे आ रही थी. वह जहां ठहरती थी एक तालाब सा बन जाता और तब वह नीचे को बह निकलती. हम लोग पहाड़ों की खोहों में थे.

आधा चांद पहाड़ियों के पीछे ग़ायब हो गया था और आसमान पर दूधिया रोशनी बिखरी हुई थी. इस से खोह पर एक सलेटी सी रोशनी पड़ने लगी थी जो हम पर प्रतिविम्बित हो रही थी.

पीछे से दादी ने एक गीत गुनगुनाना शुरू कर दिया और मैं जानता था वह एक इन्डियन आदिवासी गीत था; उसके अर्थ जानने के लिए किसी भी तरह के शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. मुझे सुरक्षित महसूस हुआ.

एक शिकारी कुत्ता इतनी अचानक से रोने लगा कि मैं चौंक पड़ा. उसकी रुलाई लम्बी और शोकभरी थी - सुबकियों में टूटती हुई - कि उसकी प्रतिध्वनि और और दीर्घ होती हुई दूर दूर जाकर वापस पहाड़ों में लौट रही थी.

दादाजी धीमा सा मुस्कराते हुए बोले - "ये वही है ओल्ड मॉड - अब भी अपनी जाति के कुत्तों की सूंघने की ताकत नहीं मिल सकी है बिचारी को - अपने कानों पर ही भरोसा करती है."

एक मिनट के भीतर हमारे चारों तरफ़ शिकारी कुत्ते थे - दादाजी के गिर्द घूमते हुए, मेरी नई गंध को सूंघते हुए. ओल्ड मॉड फिर से रोई. "चोप्प मॉड!" यह सुनते ही वह जान गई कि कौन था और कूदती छलांगती हमारी तरफ़ आने लगी.

हमने एक लठ्ठा-पुल पार किया और हम केबिन के सामने थे. बड़े-बड़े पेड़ों के नीचे बने लठ्ठों के इस केबिन के पीछे पहाड़ था और सामने एक बड़ा सा पोर्च.

केबिन में कमरों को अलग करने वाला दोनों तरफ़ से खुला हुआ एक बड़ा सा हॉल था. कुछ लोग इसे गलियारा कहा करते हैं पर पहाड़ों के लोग इसे 'डॉगट्रॉट' के नाम से जानते हैं क्योंकि शिकारी कुत्ते इस से हो कर गुज़रा करते हैं. एक तरफ़ एक बड़ा सा कमरा था जिसमें खाने-पकाने का काम किया जाता था. डॉगट्रॉट के दूसरी तरफ़ दो शयनकक्ष थे. एक में दादाजी-दादी रहते थे, दूसरे में मैं सोने वाला था.

मैं हिरन की मुलायम खाल से मढ़े दीवान पर लेट गया. खुली खिड़की से मैं भुतहा रोशनी में काले दिख रहे पेड़ों की टहनियों को देख रहा था. मां का ख्याल दौड़ता सा मुझ तक पहुंचा और अजनबी जगह पर होने की सनसनी भी.

एक हाथ मेरे सिर को सहलाने लगा. फ़र्श पर मेरे बग़ल में दादी बैठी हुई थी. उनकी घेरेदार स्कर्ट उनके चारों तरफ़ थी. लड़ियों वाले और चांदी की धारियां पड़े उनके बाल उनके कन्धों से होकर उनकी गोद पर पड़े हुए थे. उन्होंने भी खिड़की से बाहर देखना शुरू किया और मुलायम धीमी आवाज़ में गाना शुरू किया:

उन्हें मालूम है वह आ गया है
जंगल को और हवा को
पिता पहाड़ उसका स्वागत करते हैं गीतों से.
उन्हें ज़रा भी डर नहीं नन्हे पेड़ से
वे जानते हैं उसके दिल में है दया
और वे गाते हैं: "नहीं है अकेला छोटा पेड़,"

नन्ही ले-नाह नदी
अपने बोलते बहते पानी में
नाच रही है ख़ुशी में पहाड़ पर
"अरे सुनो न मेरा गीत
उस भाई का गीत जो हमारे साथ रहने आया है
छोटा पेड़ है हमारा भाई और यहां है अब वह छोटा पेड़."

छोटा हिरन आवी उस्दी
और मिन-ए-ली वो छोटी बटेर
और कागू कौव्वा नदी से उठा लेते हैं गीत को
" बहादुर है नन्हे पेड़ का दिल
और दया ही है उसकी ताकत
और कभी नहीं रहेगा अकेला नन्हा पेड़,"


धीरे-धीरे आगे-पीछे डोलती दादी गाती रहीं. और मैं हवा को बात करता सुन सकता था, और ले-नाह को और पेड़ की शाखा को - मेरे बारे में गाते हुए और मेरे भाइयों को मेरे बारे में बताते हुए.

मैं जानता था कि मैं था वह नन्हा पेड़, और मैं ख़ुश था कि वे सब मुझे चाहते थे और मुझे प्यार करते थे. और मैं सो गया, और मैं रोया नहीं.

(यह रहा फ़िल्म का ट्रेलर:)

The Education of Little Tree

10 comments:

sunil kaithwas said...

bahut khoobsurti se kiya gaya anuwad padna suru kiya to akhiri shabd tak kab aya pata nahi chala... shabd chitra hain ye

मुनीश ( munish ) said...

very moving indeed !

Rangnath Singh said...

dhanya hai aap prabhu....anuvad jaise dushkar karya ko itni ruchi aur sarasta se karte hai....tis par se itni vividhata ke saath !!

sayad vajah hai ki aap itna sundar anuvad kar pate hai.


sadhuvad

आर. अनुराधा said...

अशोक जी, बहुत उम्दा काम हाथ में लिया है। इस हिस्से के लिए धन्यवाद और आगे के हिस्सों का बेसब्री से इंतज़ार।

विजय गौड़ said...

अनुवाद आगे ज़रूर पढवाते रहें।
दारमा से व्यास, सिन-ला दर्रे से होकर जाने वाला मार्ग तो थोडा विकट है अशोक भाई। कुछ डिटेल हों तो भेजिएगा। मन हुआ तो कभी निकला जाएगा।

विजय गौड़ said...

"मेरे पीछे दादी थी जिसे साथ बने रहने के लिए कभी कभार अपनी स्कर्ट थोड़ा सा उठा लेना पड़ती थी."
दादी की घेरेदार स्कर्ट के लिए क्या पहाडी शब्द झगुला इस्तेमाल हो सकता है ?
देख लीजिए, स्कर्ट थोडा अखर रहा है। अपनी हिन्दी की मानसिकता से कहूं तो दादी के पहनावे के कारण।

अनिल कान्त said...

इसे पढ़वाने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया

दीपा पाठक said...

शानदार अनुवादक तो आप हैं ही, उसके बारे में क्या कहा जाए, बहुत अच्छी पोस्ट।

.....मेरी जानकारी के मुताबिक कृष्णन अब रानीखेत नहीं बल्कि मसूरी रहने लगे हैं।

Unknown said...

अद्भुत थीम और गीत भी इतना सरल और सीधे दिल में समा जाने वाला।

Ashok Kumar pandey said...

यार भाई
यह किताब हमे भी पढवा दीजिये।