Wednesday, August 19, 2009

ब्रूगेल के दो बन्दर : विस्वावा शिम्बोर्स्का

पीटर ब्रूगेल (१५२५ – ९ सितम्बर १५६९) सोलहवीं सदी के विख्यात डच चित्रकार थे. उनकी एक पेन्टिंग 'ज़ंजीरों में बंधे दो बन्दर' विस्वावा शिम्बोर्स्का की इस कविता की विषयवस्तु है:



ब्रूगेल के दो बन्दर

अपनी आख़िरी परीक्षा के बारे में
अपने सपनों में मुझे यह दिखाई देता है -
खिड़की की सिल पर बैठे,
ज़ंजीर से फ़र्श पर बंधे दो बन्दर,
फड़फड़ाता है उनके पीछे आसमान
स्नान कर रहा है समुन्दर.

'मानवजाति का इतिहास' का परचा है
मैं रुक-रुक कर हकलाने लगती हूं.

एक बन्दर घूरता है
और खिल्ली उड़ाने वाली अवहेलना के साथ सुनता है,
दूसरा वाला खोया लगता है किसी सपने में -
लेकिन जब यह साफ़ हो जाता है
कि मुझे पता नहीं मुझे कहना क्या है
वह हौले से खड़का कर अपनी ज़ंजीर
उकसाता है मुझे.

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(नोबेल विजेता विस्वावा शिम्बोर्स्का की कविताएं आप समय समय पर यहां पढ़ते रहे हैं. कुछ ख़ास लिंक ये रहे:

नफ़रत
बायोडाटा लिखना
सम्भावनाएं
अन्त और आरम्भ
खोज
डायनासोर का कंकाल
एक आकस्मिक मुलाकात
हिटलर का पहला फ़ोटोग्राफ़
काव्यपाठ
हमारे पूर्वजों का संक्षिप्त जीवन
नायक की पैदाइश के घर में
ग्यारह सितंबर का एक फोटोग्राफ़
मसखरों को अन्तरिक्ष में मत ले जाओ)
आतंकवादी देखता है

6 comments:

sanjay vyas said...

शुक्रिया, इस बार आपने इनकी कविताओं के लिंक भी दिए. कबाड़खाने पर इनकी और भी कवितायेँ पढने को मिली जिनके लिंक यहाँ आपने नहीं दिए.मुझे उनमे 'आतंकवादी देखता है' और 'प्याज़' याद आ रही है.पर ये एक श्रमसाध्य काम है.आभार आपका लिंक्स देने का और आज ये कविता लगाने का.

Ashok Pande said...

लीजिए भाई 'आतंकवादी देखता है' का लिंक भी लगा दिया.

शरद कोकास said...

विस्वावा शिम्बोर्स्का की अन्य कविताओं की तरह यह कविता भी अपने कथ्य की परिधि से बाहर जाकर बखान करती है . चित्र न भी होता तो कविता मे विज़ुअल्स पर्याप्त हैं -शरद कोकास

Arshia Ali said...

आभार।
( Treasurer-S. T. )

प्रीतीश बारहठ said...

किसी कविता के विषय में इस प्रकार की जिज्ञासा को पता नहीं किस तरह लिया जायेगा। लेकिन यदि आप मुझे यह समझने में सहायता कर सकें कि एक बंदर की खिल्ली और अवहेलना का क्या आशय है तथा दूसरा बंदर जंजीर खड़काकर कौनसी राह दिखाता है तो यह मेरे लिये आपका अतिरिक्त स्नेह होगा। मैं और मेरे जैसे अल्पज्ञ पाठक इस प्रकार अपनी समझ भी विकसित कर सकेंगें। अभी तक मैं अपनी अक्ल को बहुत दौड़ाकर इतना ही समझ पाया हूँ कि एक बंदर को मानवता के इतिहास के परचे के दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं कर पा रहा है और दूसरा उसका समर्थन और उत्साहवर्धन कर रहा है।

ravindra vyas said...

वे सब कविताएं एक एक कर फिर से पढ़ीं। और लगा कि ये समकालीन हिंदी कविता से कितनी मिलती जुलती कविताएं हैं।