Friday, January 8, 2010

साल २०१०: वैचारिक आग्रह घट गया है नई पीढ़ी में- दानी

हमारी सहृदय पाठिका श्रीमती आशा जोगलेकर ने साहित्यकारों की राय पढ़ने के बाद कहा है-

'बड़े-बड़े लेखकों के कथन हैं, क्या कहें. पर कुछ भी अच्छा नहीं है यह कहना गलत है. जीवनापेक्षा बढ़ी है इसके बावजूद कि हर दिन नई बीमारियां पैदा हो रही हैं. गरीबी कम हुई है इसके बावजूद कि महंगाई बढ़ रही है... और जनजागरण तो तब भी हुआ था जब लोग इससे कहीं अधिक गरीब थे. जरूरत है रुक कर विचार करने की, कि बेतहाशा भागते जाना है या दिशा बदलनी है. भ्रष्टाचार है...और बहुत है, पर इसके लिये भी लेखक और समाचार-माध्यम आवाज़ उठा रहे हैं, उठायेंगे.'

आशा जी की बात से भले ही पूरी तरह से इत्तेफ़ाक न रखा जा सके फिर भी उनकी राय निराशा का नकार तो करती ही है. आइये देखते हैं आज की सूची में शामिल साहित्यकार क्या सोचते हैं-


डॉक्टर सूर्यबाला (वरिष्ठ कथाकार-व्यंग्यकार): मुझे ध्यान में आता है कि कोलंबिया विश्वविद्यालय (न्यूयॉर्क) में एक छात्र ने मुझसे पूछा था कि जिस तरह की दुनिया की आप कल्पना करती हैं, जो सम्बन्ध आपके पात्र जीते हैं, जिस विश्व की आकांक्षा वे करते हैं, क्या आप सोचती हैं कि यथार्थ के धरातल पर वैसा कभी हो पायेगा?...तो इतने आदर्शों में जीने का अर्थ? इसके जवाब में मैंने कहा था कि मुझे मालूम है कि ऐसा कभी संभव नहीं हो पायेगा लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि हम सपने देखना छोड़ दें. एक अहम् बात यह भी है कि जब हम बहुत अच्छा सोचेंगे, दूसरों से उन विचारों को बांटेंगे, तो कम से कम हम अपने आस-पास एक छोटी ही सही, ख़ूबसूरत दुनिया बनाने में कामयाब होंगे.


साहित्य जगत में मेरे चाहने या न चाहने से एक साल के अन्दर कुछ नहीं होने वाला. फिर भी अच्छे साहित्य-सृजन की इच्छा बनी रहेगी. मेरी कामना है कि हम रचनाकार अपनी आत्ममुग्धता और स्वकेन्द्रीयता से मुक्त होकर ईमानदारी और पारदर्शिता से समाज की तरफ भी देखें. ज्ञान और शिक्षा ने हमें विनम्र और समझदार नहीं बनाया है. हम बातें ऊंची-ऊंची करते हैं लेकिन जीवन में उस सहजता और पारदर्शिता का निर्वाह नहीं कर पाते. लेकिन यही तो इस यांत्रिक जीवन की थोड़ी सी लाचारियाँ भी हैं.

राजेन्द्र दानी (वरिष्ठ कथाकार): मैं एक अच्छा आदमी बनने के प्रयास में हमेशा सकारात्मक सोचता हूँ लेकिन आस-पास का माहौल निराश करता है. साल २०१० में सब कुछ चमत्कारिक रूप से बदल जाएगा, ऐसी मुझे उम्मीद नहीं है. अभी मैं निरंजन श्रोत्रिय की एक कहानी पढ़ रहा था, उसका शीर्षक है- 'जानवर'. इस कहानी में होता यह है कि पति-पत्नी सो रहे हैं और रात के वक्त कोई उनका दरवाज़ा खटखटाता है. वे इस डर से दरवाज़ा नहीं खोलते कि कोई जानवर होगा. सुबह पति उठता है तो देखता है कि भीड़ लगी हुई है और वहां एक शव पड़ा हुआ है. पति के मन में कौंधता है कि हो न हो यह वही शख्स है जो रात में मदद के लिए दरवाज़ा खटखटा रहा था.
बहरहाल, पति घर लौटता है तो पत्नी पूछती है कि इतनी देर क्यों लगा दी, क्या हुआ था. तो पति कहता है कि कुछ नहीं, कोई जानवर मर गया है.

हमारे आस-पास भी यही माहौल है. आज खुशियों का इजहार भी ज्यादा दूर तक नहीं पहुंचता. वैसे मुझे उम्मीदें तो बहुत हैं नए साल से. अभी हमने आमिर खान की 'थ्री ईडियट्स' देखी जबलपुर में. मैं था, ज्ञान जी थे, पंकज स्वामी थे, अरुण यादव थे. तो उस फिल्म ने हमें खुश कर दिया. फिल्म में बड़े ही ह्यूमरस तरीके से पूरी विट के साथ यह दिखाया गया है कि अकादमिक अथवा यांत्रिक शिक्षा से कोई सचमुच का शिक्षित नहीं हो जाता.

साहित्य के अलावा फिल्मों से समाज में बड़ा बदलाव आ सकता है. अब फिल्मों की परम्परागत भाषा और उसका मुहावरा बदल रहा है. अब वह घिसी-पिटी बात नहीं है कि 'अ ब्वाय मीट्स अ गर्ल.' एक और बात जो मैं २०१० में घटित होते देखना चाहूंगा कि साहित्यकारों की पुरानी पीढ़ी का नयी पीढ़ी से आत्मीय और गहरा संवाद स्थापित होना चाहिए. नई पीढ़ी के लोग अपने कैरियर को लेकर अति महत्वाकांक्षी हैं और उनमें वैचारिक आग्रह कम हो गया है.

सुधीर रंजन सिंह (कवि-आलोचक): अब तो लगता है कि दुनिया अपनी समझ से बाहर होती जा रही है और इसके कसूरवार भी हमीं लोग हैं. जाहिर है एक समय हम दुनिया को बदलने की बात करते थे, व्याख्या की नहीं. लेकिन दुनिया हमारे न चाहते हुए भी इतनी दूर तक बदल गयी है कि व्याख्याकार पीछे छूट गए. अब भी हमें लगता है कि व्याख्या में ही बदलने का काम संभव है.

जनता का जीवन सुकून से गुज़रे इस बात की गारंटी कोई नहीं दे सकता. होता यह है कि जो संस्कृति कर्म है, उसको जनता एक भिन्न वस्तु मान लेती है. संस्कृति कर्म के प्रति जनता में एक दायित्वहीनता है और संस्कृतिकर्मियों के यहाँ जनता को लेकर एक क़िस्म की बेफ्रिकी है. एक कलाकार अपने आत्मविश्वास में महत्वाकांक्षा से इस प्रकार ग्रस्त हो जाता है कि वह किसी तरह से जीवन को उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं रहता. दूसरी तरफ जनता यह सोचती है कि यह तो कला है और पहुँच से बाहर है. आखिर हमारे पास जीवन निर्वाह के लिए नीरस गद्यात्मक संसार है. कला और जीवन एक नहीं है लेकिन उनको मुझमें (जनता + कलाकार में) एक होना होगा. मेरे उत्तरदायित्व की एकता में एक होना होगा. यही सूत्र हो सकता है.

साल २०१० में मैं चाहूंगा कि हमारा लेखन, हमारी कलात्मक अभिव्यक्तियाँ ज्यादा से ज्यादा हों और हमें वर्त्तमान सत्ता-संरचना पर एक दबाव समूह की तरह काम करना होगा. यह तभी संभव है जब साहित्य में मात्रात्मक एवं गुणात्मक परिवर्त्तन होंगे.

बोधिसत्व (कवि, हालिया कविता संग्रह 'दुःख तंत्र’): मुझे उम्मीद यह है कि कविता में कथा तत्व की वापसी होगी क्योंकि बिना कहानी के न कविता जीवित रही है न रहेगी. अगर हम संसार भर के काव्य को ध्यान में रखें तो वही कवितायें जीवित नजर आती हैं जिनमें कहीं न कहीं कथा और चरित्र हैं. आप भारतीय मध्यकालीन साहित्य को ही ले लें, सूर, तुलसी, जायसी या आधुनिक काल के निराला, प्रसाद, टैगोर या अन्य बड़े कवि....तो इनकी सारी बड़ी रचनाएँ एक कथा कहती हैं और चरित्र प्रस्तुत करती हैं. आज की कविता में भी जो चरित्र प्रधान कवितायें हैं, वे ज्यादा पढ़ी जाती हैं, ज्यादा चर्चा में रहती हैं और ज्यादा लोगों को जोड़ती हैं और उनके स्मरण में रहती हैं. मेरी ही कवितायें 'माँ का नाच', 'पागलदास' और 'शांता' लोगों के जहन में मेरी ही दूसरी कविताओं की बनिस्बत ज्यादा गहरे बैठी हुई हैं क्योंकि इनमें कथा है, चरित्र हैं.

आज यह परिभाषित करना जरूरी है कि आम जनता क्या है? क्योंकि जो साहित्य आज लिखा जा रहा है वह किस टाइप की जनता के लिए है...जिसमें आप बदलाव लाना चाह रहे हैं. यह भ्रम भी दूर हो जाना चाहिए कि लिखने से जनता का कुछ भला होता है या समाज में परिवर्त्तन होता है या आर्थिक विसंगतियां दूर हो जाती हैं या साम्प्रदायिक दंगे रुक जाते हैं या किसानों की आत्महत्याएं रुक जाती हैं...तो यह समझना चाहिए कि कविता लिखने से बाल मजदूरी या दहेज़ प्रथा भी दूर नहीं होगी.

कविता आज कहने को तो 'उर्वर प्रदेश' में बतायी जा रही है लेकिन वह भयानक बंजर प्रदेश में भटक रही है... और २०१० में या २०२० तक में भी मुझे नहीं लगता कि वह सचमुच की काव्य-भूमि में लौटेगी. मैं चाहूंगा कि हम जितनी जल्दी चमत्कार पैदा करने वाली कवितायें लिखने से छुटकारा पा लें, उतना ही अच्छा होगा.

डॉक्टर सेवाराम त्रिपाठी (आलोचक, अध्यापक): आनेवाले समय में हमारी आर्थिक-राजनीतिक स्थितियों में तेज़ी से बदलाव आयेगा. हम वैश्वीकरण, विदेशी पूंजी और काला-धन के दबाव का मुकाबला स्वदेशी पूंजी तथा अपने संसाधनों के माध्यम से कर सकेंगे. तय है हमें अपने पैरों पर खड़ा होना होगा... और हमारे लघु-कुटीर उद्योग धंधे, जिनको अभी तक हमने तिरष्कृत किया है और हाशिये पर रखा है, उन्हीं पर हमें ज्यादा ध्यान केन्द्रित करना होगा. विभिन्न रूपों में जो अर्थ की सत्ता है उसे आम आदमी तक बांटना पड़ेगा. तभी हम अपने देश का समग्र विकास कर सकते हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य की सामान सुविधाएं देकर दलितों, वंचितों तथा आदिवासियों की स्थितियों में सुधार लाना होगा.

हमारे पुराने सामाजिक ढाँचे निरंतर टूट रहे हैं और सामाजिक रूपांतरण की प्रक्रिया बहुत तेज़ हो गयी है. शादी-विवाह के प्रसंगों में एक तरह का खुलापन आया है. इसी तरह छुआछूत आदि सन्दर्भों में भी व्यापक परिवर्त्तन परिलक्षित किये जा रहे हैं. जहां तक राजनीतिक स्थितियों का सवाल है तो जनता का मौजूदा राजनीति से मोहभंग हुआ है. संकीर्ण हितों के स्थान पर हिन्दुस्तान की जनता बहुत व्यापक परिवर्त्तन की आकांक्षी है इसलिए वह बड़े दलों के स्थान पर छोटे और क्षेत्रीय दलों को स्वीकार करने में गुरेज़ नहीं करती. हम देख सकते हैं कि साम्प्रदायिक ताकतें हताश होकर छद्म रूप से वामपंथी पैंतरे खोज रही हैं और उनका एकमात्र लक्ष्य सत्ता पर काबिज़ होना है. २०१० में इस प्रक्रिया में कोई बदलाव आता मुझे नहीं दीखता.

साहित्य जगत में अब केवल कल्पना की दुनिया से काम नहीं चलेगा. हमें यथार्थ को ठीक से पहचानना होगा. नारेबाजी के स्थान पर आम आदमी की दुनिया का चित्रण अपनी रचनाओं में करना होगा. हमारे साहित्य से गाँवों को लगभग देशनिकाला दे दिया गया है, जो थोड़ा-बहुत आते भी हैं तो वे स्मृतियों के गाँव हैं. साल २०१० में हमें इस पर ध्यान देना चाहिए.

तुषार धवल (कवि, कविता-संग्रह 'पहर यह बेपहर का'): यह उपभोक्तावादी ताकतों से जोरदार युद्ध करने का समय है. बाज़ार इतनी तेजी से हमला कर रहा है कि सबको बस भागो और भोगो ही सूझ रहा है. मनुष्य के सोचने और विचार करने की शक्ति पर हमला करके उसे भोथरा बनाने का खेल जारी है. ऐसे में मैं चाहता हूँ कि कुछ ऐसा हो कि मानव के भीतर का मानव बचा रहे. वह मशीन न बन जाए. उपभोग की वस्तु न बन जाए. उसके भीतर की तरलता सुरक्षित रहे. आज आदमी का आदमी से जुड़ाव समाप्त होता जा रहा है ख़ास तौर पर मुंबई जैसे महानगरों में.

साहित्य जगत में एक तरह के विभ्रम की स्थिति है. यह तय नहीं हो पा रहा है कि हम किस दिशा में जाएँ. हमारी रचनाओं का कथ्य क्या हो, शिल्प क्या हो...खास कर कविता में. यह ऐसा समय है जब सारे वाद समाप्त हो गए हैं. दक्षिण या वाम का कोई सपना साकार नहीं होता दिख रहा है. सब ध्वस्त हैं. बाज़ार ने इसे बुरी तरह प्रभावित किया है. साहित्य में जो समर्पित गतिविधियाँ थीं वे अब तात्कालिक सफलता और झटपट यशप्राप्ति की कसरतों में तब्दील हो गयी हैं. तरह-तरह के गुट और रैकेट चल रहे हैं. यह भी उपभोक्तावाद का असर है.

लेकिन मेरे मन में एक बड़ी उम्मीद है. खास कर अपनी पीढ़ी के कवियों से यह उम्मीद है कि कोई रास्ता निकलेगा. अब भी साहित्य में समर्पित लोग बचे हुए हैं ...और २०१० में तो नहीं, पर लगता है कि अगले ५-१० वर्षों में साहित्य की दिशा तय हो जायेगी.

(जारी)

8 comments:

siddheshwar singh said...

अच्छी सीरीज। जारी रखें।

Ashok Kumar pandey said...

दानी जी से लगभग सहमत होते हुए इतना जोड़ना चाहूंगा कि मज़बूत वैचारिक आग्रह वाले तमाम युवा लेखक साहित्य की आलोचकीय जकड़बंदी से त्रस्त होकर चुपचाप हाशिये के बांये होने का विकल्प चुन लिखे जा रहे हैं। चर्चा और महत्व के लिये अब जिन औज़ारों की ज़रूरत है उन्हें ढो पाना और प्रतिबद्ध रह पाना एक साथ संभव नहीं।

प्रीतीश बारहठ said...

जारी... नहीं लिखा। सीरीज समाप्त कर रहें हैं क्या ?

Ashok Pande said...

जारी है भाई! विजयशंकर लिखना भूल गए. मैं लिखे दे रहा हूं. कैसे हो भाई प्रीतीश?

Ashok Pande said...
This comment has been removed by the author.
Ek ziddi dhun said...

Iska Sheershak sahee hai par yuva jara chidh jaate hain aisa kahne se.
yah bhi jod do ki varishth bhi idhar jaane kis kis math-pratishthan men natmastak hote ghoom rahe hain.

प्रीतीश बारहठ said...

प्रिय श्री अशोक जी,

ठीक हूँ, जीवन के नितान्त अकेलेपन में कबाड़खाना के माध्यम से ब्लाग जगत में कुछ मन का सा पा जाता हूँ। आपने याद किया तो खुशी का ठिकाना नहीं है. आभार। आपके पिता कैसे हैं?

मेरा अपनी छोटी सी दुनिया में गाँव-शहर, अमीर-गरीब,किसान,अफरस, बाबू, साहित्यकार, राजनेता, गैर-सरकारी संगठनों समेत सभी वर्गों से वास्ता पड़ा है। और मैंने नैतिक -अनैतिक लोगों का अनुपात सभी वर्गों में एक-सा देखा है, राजनीति में अनैतिकता का अनुपात अधिक हो सकता है ! क्या आप सबको नहीं लगता कि हमारे नागरिक सामाजिक चरित्र का ही पतन हो चुका है और सभी क्षेत्रों में अनैतिक लोगों की सप्लाई समाज के जरिये ही हो रही है। साहित्यकार अक्सर इन समस्याओं पर चर्चा करते हुए खुद उँचे आसन पर बैठ जाते हैं मानों वे दूध के धुले हैं और अपना फ़र्ज पूरी ईमानदारी से निभा रहे हैं। बहुत अपने वाद को लेकर दुराग्रही हो जाते हैं। ये अपने लेखन में पवित्र हैं तो भाषणों में तो राजनेता भी पवित्र ही होते हैं। आप साहित्यकारों से पूछिये कि क्या उनकी जमात से कोई नेतृत्व उभरकर सामने आ रहा है। समाज की स्थिति कतई निराशाजनक नहीं है कमी है तो नेतृत्व की।

Asha Joglekar said...

प्रितीश जी और त्रिपाठी जी से सहमत ।