Tuesday, March 23, 2010

नदी, घंटियां, माता और शिशु

(पिछली किस्त से जारी)

लेकिन मैल्कियोर उन लोगों में था जो हमेशा उसका उल्टा करते हैं जैसी दूसरे लोग या वे खुद अपने से उम्मीद करते हैं. ऐसा भी नहीं था कि वे चेतते नहीं थे – जैसा कि मुहावरा भी है चेता हुआ आदमी दो आदमियों के बराबर होता है. वे खुद से कहते हैं कि अब कोई भी चीज उन्हें दगा नहीं दे सकेगी और यह कि वे अपने जीवन की नाव को खुद बेहद सधे हुए हाथों से एक निश्चित गन्तव्य तक चलाएंगे. लेकिन वे अपने आप को जानते ही नहीं. विस्मृति के उन क्षणों में से एक में जिनकी उन्हें आदत पड़ चुकी होती है वे पतवार छोड़ देते हैं और जैसा कि स्वाभाविक है उन्हें ऐसा करने में आनन्द आने लगता है. अपने रास्ते से भटकी हुई नाव किसी चट्टान से टकरा जाती है और इस तरह पहेली बुझाने की सी हठ के साथ मैल्कियोर ने एक कुक से शादी कर ली. और जिस दिन उसने अपने जीवन की डोर उस औरत के साथ जोड़ने का फैसला लिया उस दिन न तो वह पिए हुए था न ही किसी प्यार की संवेदना से भरा हुआ था. ऐसा कुछ नहीं था. लेकिन शायद हमारे भीतर दिल और दिमाग के अलावा और कोई शक्तियां भी होती हैं जो असल में इन्द्रियों से भी ज्यादा रहस्यमय और ताकतवर होतीं हैं. वे हम पर उस क्षण कब्जा कर लेती हैं जब और लोग सोए होते हैं. और शायद ऐसी ही कोई ताकतें थीं जिन्हें मैल्कियोर ने उन जर्द आंखों में देखा जो एक शाम उसे निरीहता से देख रही थीं जब वह उस लड़की को नदी किनारे ले गया था और उसके साथ बैठा हुआ था और बिना वजह जाने उसने अपना हाथ उसे दे दिया था.

उसे शादी किए जरा भी वक्त नहीं बीता था जब उसे अपने कृत्य पर घिन आने लगी और अपनी भावनाओं को उसने बिचारी लुईसा से भी नहीं छिपाया जो बहुत विनम्रता के साथ उस से क्षमायाचना किया करती थी. वह बुरा आदमी नहीं था और वह खुशी खुशी उसे माफ कर दिया करता था. लेकिन जैसे ही वह अपने दोस्तों के साथ होता था या अपनी रईस छात्राओं को सिखा रहा होता था जिनकी उंगलियां कीबोर्ड पर सही तरीके से रखना सिखाने पर उसके स्पर्श से अब जरा भी नहीं कांपती थीं और जो उसके लिए हिकारत से भर चुके थे¸ पश्चात्ताप की आग उसे तुरन्त दबोच लेती थी. फिर वह बुझा हुआ चेहरा लेकर घर लौटता था और धड़कते दिल के साथ उसका इन्तजार कर रही लुईसा उसके चेहरे पर पहली ही निगाह में वही तिरस्कार देख लेती थी. या फिर वह एक शराबखाने से दूसरे में बाकी लोगों में अपना स्वाभिमान खोजता या उनसे दया की अपेक्षा रखता देर रात तक भटकता रहता था. ऐसी रातों को वह ठहाके मारता चीखता हुआ घर पहुंचता था और यह लुईसा के लिए बाकी दिनों के तिरस्कार से ज्यादा भयानक और त्रासद होता था. उसे लगता था कि एक हद तक वह पागलपन के इन दौरों के लिए जिम्मेदार है जिनमें उसके पति का बचा खुचा दिमाग और घर की बची खुची संपत्ति एक दिन गायब हो जाएंगे. मैल्कियोर धरातल में और भी गहरा धंसता गया. ऐसी आयु में जब उसने अपने दोयम दर्ज़े की प्रतिभा को विकसित करते रहने में दिन रात मशक्कत करनी थी उसने चीजों को अपने हाथों से छूट जाने दिया¸ और दूसरे लोगों ने उसकी जगह ले ली.

लेकिन उस अज्ञात शक्ति को इस सब से क्या वास्ता था जिसने उसे उड़ी रंगत वाले बालों वाली नौकरानी के साथ ला पटका था? वह अपनी भूमिका अदा कर चुका था , और नन्हे ज्यां क्रिस्तोफ़ ने धरती पर अपना कदम रख लिया था; जहां चाहे उसकी तकदीर उसे ले जाए.

रात पूरी तरह आ चुकी थी. लुईसा की आवाज ने ज्यां मिशेल को जगाया. बीती हुई घटनाओं और वर्तमान के बारे में सोचते सोचते उसकी आंख लग गई थी.

"पिताजी देर हो गई होगी शायद" बहुत अपनेपन के साथ उस युवा औरत ने कहा "आपको घर जाना चाहिए. आपको बहुत दूर जाना है."

"मैं मैल्कियोर का इन्तजार कर रहा हूं." बूढ़े ने जवाब दिया.

"प्लीज नहीं. मेरे खयाल से बेहतर होगा आप इन्तजार न करें."

"क्यों?"

बूढ़े ने अपना सिर उठाया और बहुत घूर कर उसे देखा.

वह कुछ नहीं बोली.

बूढ़े ने फिर बोलना शुरू किया.

"तुम्हें डर लग रहा है. तुम नहीं चाहती मैं उस से मिलूं?"

"हां हां. ऐसा करने से सब कुछ और बिगड़ जाएगा. आप दोनों एक दूसरे को गुस्सा दिला देंगे और वो मैं नहीं चाहती. मेहरबानी करके चले जाइए."

बूढ़े ने उसांस भरी और उठते हुए कहा:

"ठीक है ... मैं जाता हूं."

वह उसके पास गया और उसके माथे को अपनी कड़ी दाढ़ी से सहलाया. उसने पूछा अगर घर में किसी चीज की जरूरत है और दिया बुझाकर कमरे के अंधेरे में कुर्सियों से टकराता बाहर चला गया. लेकिन वह बमुश्किल ज़ीने तक पहुंचा जब उसने अपने बेटे के धुत्त होकर वापस आने के बारे में सोचा और हरेक सीढ़ी पर ठहरता हुआ वह उन भयानक खतरों की कल्पना करने लगा जो मैल्कियोर को अकेला वापस आने देने से उपज सकते थे …

मां की बगल में लेटा हुआ बच्चा फिर से हरकत करने लगा था. उसके अस्तित्व की गहराइयों से एक अनजाना दर्द उठ चुका था. उसने मां से सटा कर खुद को कड़ा कर लिया. उसने अपने शरीर को ऐंठा¸ मुठ्ठियों को भींचा और अपनी भंवों को टेढ़ा किया. उसकी यातना बढ़ती गई – खामोश – उसे इस यातना की ताकत का अन्देशा था. वह नहीं जानता था कि वह क्या थी या कहां से आई थी. वह उसे विराट लगी – और वह विलाप करता हुआ रोने लगा. उसकी मां ने उसे प्यारभरे हाथों से सहलाया. उसकी यातना अभी से कम होने लगी थी. लेकिन उसने रोना जारी रखा क्योंकि वह यातना उसे अब भी आसपास महसूस हो रही थी; अब भी उसके भीतर. यातना झेलता हुआ आदमी अपना दर्द यह जानकर कम कर सकता है कि वह कहां से उपजी है. अपने विचारों के माध्यम से वह उस यातना को शरीर के किसी भी एक हिस्से में महसूस कर सकता है जिसका उपचार किया जा सकता हो या जरूरत पड़ने पर जिसे देह से अलग किया जा सकता हो. वह उसके बंधनों की मरम्मत करता है. किसी बच्चे के पास ऐसा भरमाने वाला स्रोत नहीं होता. यातना के साथ उसका पहला साक्षात्कार हमेशा ज्यादा त्रासकारी और सच्चा होता है. खुद उसके अस्तित्व की तरह यातना भी अनन्त प्रतीत होती है. उसे लगता है जैसे कि वह उसके सीने में उसके दिल में उसकी देह में मालकिन बनी बैठी हो. और यही होता है. वह उसे तब तक छोड़कर नहीं जाती जब तक उसे निगल न ले. उसकी मां उसे चिपटा लेती है और गुनगुनाती हुई कहती है : "बस हो गया हो गया! मत रोओ मेरे नन्हे ईसा¸ मेरी छोटी सी सुनहरी मछली ..." लेकिन उसका अन्तहीन रोना जारी रहता है. यह ऐसा होता है मानो उस बिचारे बिना आकार और चेतना के लोथड़े के लिए दुखों से भरा पूरा जीवन इन्तजार कर रहा हो¸ और दुनिया की कोई भी चीज उसे चुप न करा सकती हो ....

रात में सेन्ट मार्टिन की घन्टियां बजीं. उनकी आवाजें गम्भीर और धीमी हैं. नम हवा में वे काई पर चलते कदमों जैसी आती हैं. एक सिसकी के बीच में बच्चा चुप हो गया. दूध की बाढ़ जैसा शानदार संगीत जैसे उसकी आत्मा के भीतर बह उठा. रात रोशन हो गई थी; हवा मुलायम और नमीभरी थी. उसका दुख अदृश्य हो गया और उसके दिल ने हंसना शुरू किया; और सब कुछ छोड़छाड़ कर वह एक लम्बी सांस के साथ अपने सपने के भीतर फिसल गया.

कल होने वाले उत्सव के लिए बज रही घंटियां मुलायम स्वर में बजती रहीं. उन्हें सुनते हुए लुईसा भी सपने देखती रही: खुद पर बीत चुकी त्रासदी और अपनी बगल में लेटे प्यारे बच्चे के भविष्य के बारे में. वह कई घन्टों से बिस्तर में थी: थकी हुई और पीड़ा में. उसकी हथेलियां और उसकी देह दोनों जल रहे थे; वह भारी रजाई के बोझ तले दबी हुई थी; उसे लग रहा था कि अंधेरा उसे कुचले दे रहा है; लेकिन वह हिलने की हिम्मत नहीं कर सकी. उसने बच्चे को देखा और वह उसके नाकनक्श पढ़े बिना नहीं रह पाई जो अभी से बूढ़े नज़र आ रहे थे. नींद उस पर सवार हो गई; उसके दिमाग में बुखारभरी छवियां तैर रही थीं. उसे लगा कि उसने मैल्कियोर को दरवाजा खोलते हुए सुना और उसका दिल धक्क रह गया.

इस पूरे समय ज्यां मिशेल घर के बाहर इन्तजार कर रहा था. वह बारिश से भीगा हुआ था और उसकी दाढ़ी नमी के कारण गीली पड़ चुकी थी. वह अपने तबाह बेटे का इन्तजार कर रहा था: उसका दिमाग उसे निरन्तर जोर देकर ज्यादा पीने के बाद होने वाली तमाम बरबादियों के बारे में आगाह करता रहा था ; और हालांकि वह इन पर यकीन नहीं करता था तो भी वह एक पल को भी नहीं सोया क्योंकि वह अपने बेटे को वापस घर आते देखना चाहता था. घंटियों की आवाज़ ने उसे अवसाद से भर दिया क्योंकि उसे वे सारी उम्मीदें याद हो आईं जिन पर पानी फिर चुका था. उसने एक पल को सोचा कि वह उस समय सड़क पर खड़ा वहां क्या कर रहा था और शर्मसार होता हुआ वह रोने लगा.

दिनों का विराट तूफान धीरे धीरे चलता है. दिन और रात किसी समुन्दर के ज्वार भाटे जैसी निश्चितता के साथ आते रहते हैं. हफ्ते और महीने बीतते जाते हैं और फिर दुबारा शुरू होते हैं और दिनों का यह क्रम एक दिन जैसा होता है.

असीम होता है दिन: अस्पष्ट¸ उजाले और अंधेरे की ताल के स्प्ष्ट निशान लगाता हुआ¸ अपने पालने में सोए स्वप्नरत जीव के जीवन की ताल के – उसकी दुखभरी या सुखी जरूरतें – वे भी उतनी नियमित होती हैं कि लगता है रात और दिन का होना उन्हीं की वजह से है.

जीवन का पेण्डुलम बहुत धीरे डोलता है और उसकी मद्धम गति में सारा संसार डूबा हुआ लगता है. बाकी सब सपनों के अलावा कुछ नहीं. सपनों के टुकड़ों के अलावा कुछ नहीं : निराकार और झुण्ड में उड़ते हुए¸ अणुओं की धूल की निरुद्देश्य गति¸ एक उनींदा चक्रवात¸ जो या तो हंसियां लेकर आता है या आतंक. दर्द की कराहें , हंसती आकृतियां, दुख, आतंक, हंसी, सपने, सपने ... सब कुछ सपना है ... दिन भी और रात भी ... और इस गड़बड़झाले में उसे देखकर मुस्कराती हुई दोस्ताना आंखें¸ आनन्द का वह प्रवाह जो उसकी मां की देह से उसकी देह तक बहता आता है¸ दूध से भरी उसकी छातियों से – वह शक्ति जो उसके भीतर है¸ वह अपार अचेतन शक्ति जो उसके भीतर इकठ्ठा हो रही है¸ वह हिलोरें लेता महासागर जो एक शिशु के देह की संकरी कारागार में दहाड़ रहा है. और उन आंखों को जो इसे देख सकें दिखाई देंगे अंधेरे में आधे दफनाए गए समूचे संसार और शक्ल लेती एक अन्तर्नक्षत्रीय शून्यता और निर्मित होता हुआ एक ब्रह्माण्ड. उसका अस्तित्व सीमाहीन है. वही एक है जो है ....

महीने बीत जाते हैं … उसके जीवन की नदी में से स्मृति के द्वीप उभरना शुरू करते हैं. शुरू में वे अनचीन्हे द्वीप होते हैं: पानी की सतह से बस जरा सा बाहर निगाह डालतीं चट्टानें. उनके आसपास और उनके पीछे भोर के धुंधलके में पानी की विशाल शान्त चादर होती है; उसके बाद नए द्वीप जिन्हें सूर्य की सुनहरी रोशनी स्पर्श करती है. सो आत्मा की खोह में से निश्चित आकृतियां प्रकट होती हैं¸ और अनजानी स्पष्टता के दृश्य. और हमेशा की तरह एक बार फिर शुरू हो रहे दिन के भीतर उसकी महान और उबाऊ ताल के साथ दिनों का क्रम चालू हो जाता है: उनमें से कुछ मुस्करा रहे होते हैं कुछ उदास होते हैं. लेकिन जब भी इस जंजीर की कड़ियां टूटती हैं¸हफ्तों और महीनों से ऊपर उठकर स्मृतियां आपस में जुड़ती हैं ...

नदी … घंटियां … जब तक वह याद रख सके : सुदूर समय की गर्त के भीतर अपने जीवन के हर घंटे : उनकी परिचत और गूंजती हुई ध्वनियां हमेशा बजती रही हैं.

रात – आधी नींद – एक जर्द रोशनी खिड़की को आभासित करती है ... गुनगुनाती है नदी. हालांकि खामोशी की आवाज अब भी सर्वशक्तिमान है; वह सारे प्राणियों पर शासन करती है. कभी कभी वह उनकी नींद को दुलराती है और ऐसा लगता है कि वह घूमते हुए अपने ही चक्रवात में कहीं गुम हो गई है. कभी कभी वह गुस्से में आ जाती है और काटने पर आमादा किसी रौद्र पशु की तरह गुर्राने लगती है. कोलहल धीमा पड़ता है. अब एक अनन्त मुलायम गुनगुन है¸ नन्ही घंटियों की साफ आवाज़ों जैसी¸ बच्चों की हंसी जैसी¸ या धीमे स्वर में गाती किसी आवाज सी – एक महान मातृसुलभ आवाज जो कभी नहीं सोती! वह बच्चे के पालने को झुलाती रहती है जैसा वह सदियों से करती आ रही है¸ जन्म से मृत्यु तक¸ वे सारी पीढ़ियां जो उस से पहले रही थीं; वह उसके विचारों में भर जाती है और उसके सारे सपनों में निवास करती है; वह अपनी तरल धुन के लबादे में उसे लपेट लेती है; जो तब भी उससे लिपटा होगा जब वह राइन नदी के तट पर की छोटी सी कब्रगाह में लेटा हुआ होगा.

घंटियां … भोर हो चुकी है! वे अपनी उदास¸ अवसादभरी और दोस्ताना आवाजों का उत्तर देती जाती हैं. उनकी धीमी आवाजों से उसके भीतर सपनों के ढेर उमड़ आते हैं – बीते समय के सपने¸ उन की इच्छाओं और उम्मीदों के सपने जो यहां से जा चुके¸ जिन्हें यह शिशु नहीं जानता था¸ हालांकि उनके भीतर इस शिशु का अस्तित्व था जिस तरह इस के भीतर वे दुबारा से जीवित हैं. स्मृतियों की पीढ़ियां उस संगीत से निकलती हैं. इतना सारा शोक¸ इतना सारा उत्सव! और घंटियों की आवाज के साथ जैसे कमरे की गहराइयों से होकर गुजरीं मुलायम ध्वनियां¸ आजाद पंखों वाले परिन्दे¸ और हवा की नमी. खिड़की से झांकता हुआ आसमान का एक टुकड़ा मुस्कराता है; परदों से होकर सूरज की एक किरण बिस्तर तक पहुंच जाती है. वह छोटा सा संसार जिससे बच्चा परिचित है ¸ वो सब जिसे वह हर सुबह जागने पर अपने बिस्तर से देखता है¸ वो सब जिसे वह बहुत श्रम के साथ जानने और समझने की कोशिश करता है ताकि वह इस सब का भाग्यविधाता बन सके : रोशन हो जाता है उसका साम्राज्य. वह रही मेज जहां बैठकर लोग खाना खाते हैं¸ वह अल्मारी जहां वह खेल खेल में छिपता है¸ वह चौखानेदार फर्श जिस पर वह घिसटता है¸ वह वॉलपेपर जिस पर बनी आकृतियां उसके लिए कितनी ही हंसानेवाली और डरानेवाली कहानियां छिपाए हैं¸ और वह घड़ी जो इतने सारे अबूझ शब्दों से भरी आवाजें निकालते हैं. कितनी सारी चीजें हैं इस कमरे में! वह उन सब को नहीं जानता.

1 comment:

शैलन्द्र झा said...

corporate bhatti me din raat jhonka jata rahne k bawjood, jab apka blog dekhta hoon to din bhar ka awsaad nikal jata hai, ye khalis ki kahin koi baudhik vikas nahi ho raha hai, is naukri k karan, nikal jati hai, rommain rolland ki is kriti ko main pahle angrezi me padh chuka hun, par apka anuvad bhi kisi mool rachna ki tarah hi anand deta haimeri taraf se sadhuvaad grahan karen,