Wednesday, April 14, 2010

आई प्रवीर - द आदिवासी गॉड - ७

(पिछली किस्त से जारी)

यह सचमुच ही इस देश का दुर्भाग्य है कि भारत में भ्रष्टाचार न केवल निचले स्तर पर फैला हुआ है बल्कि इसने उच्चस्तरीय लोगों को भी अपने शिकंजे में जकड़ लिया है. वर्ष १९५७ के आम चुनावों के दौरान अखिल भारतीय कांग्रेस की महासमिति ने मध्यप्रदेश राज्य के आदिम जाति कल्याण मन्त्री राजा नरेशचन्द्र पर पार्टी विरोधी गतिविधियों का आरोप लगाया था. नरेश चन्द्र राजा के पत्रों की फ़ोटो प्रतिलिपियों पर उनकी लिखावट एवं हस्ताक्षर उनकी विशिष्ट हस्तलिपि की पुष्टि विशेषज्ञों ने भी कर दी थी किन्तु इस सब के बावजूद भी डॉ. कैलाशनाथ काटजू, तत्कालीन मुख्यमन्त्री के द्वारा पार्टी को मजबूती देने के नाम पर उसे पुनः कैबिनेट में वापस ले लिया गया. इस तरह नरेशचन्द्र को दण्ड के स्थान पर उपहार देकर कांग्रेसी अपनी साख बचाने की जी तोड़ कोशिश कर रहे थे. किन्त इसी अवधि में मुख्यमन्त्री डॉ. काटजू से मुझे एक नोटिस तथा निर्देश प्राप्त हुआ था जिसमें मेरे द्वारा बस्तर में की जा रही गतिविधियों को न केवल आपत्तिजनक बतलाया गया था वरन मुझे बस्तर छोड़कर बाहर चले जाने को कहा गया था. यह पत्र ही नहीं उसके निर्देश भी न केवल असंवैधानिक थे बल्कि उसके अधिकारक्षेत्र से भी परे थे. प्रान्तीय सरकार की इस दुर्नीति की जानकारी जब आदिम समुदाय के लोगों को हुई तो वह एक भारी भीड़ के रूप में महल के चारों ओर परिसर के अन्दर ही घेरा डालकर शन्तिपूर्ण प्रदर्शन करने लगा. इस शान्तिपूर्ण घेराबन्दी ने मुख्यमन्त्री डॉ. काटजू को अत्यधिक भयभीत कर दिया और अन्ततः उसे अपना यह दुर्भावनापूर्ण तथा असंवैधानिक आदेश वापस लेना पड़ा. फिर भी वह आदिम समाज की इस सक्रियता से भारी अप्रसन्न था और मेरे महाराजा के रूप में वैधानिक मान्यता को समाप्त कर दिए जाने का प्रश्न केन्द्रीय सरकार के सामने बार-बार उठाने लगा. मुझे तत्कालीन केन्द्रीय गृहमन्त्री पं. गोविन्द बल्लभ पन्त से दिल्ली में भेंट करनी थी. मध्यप्रदेश सरकार के एजेन्टों ने पं. गोविन्द बल्लभ पन्त के कानों में ज़हर घोलने की पूरी कोशिश की थी. इसके विरुद्ध मैंने भी गृहमन्त्री को संतुष्ट करने का पूरा प्रयास किया था. मैंने गृहमन्त्री को कह दिया था कि मध्यप्रदेश की प्रान्तीय सरकार तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश कर रही है और मुझेअपमानित करने के लिए कमर कस चुकी है. इसके बाद केन्द्रीय गृहमन्त्री ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर इन आरोपों को स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया था कि भारत सरकार अथवा किसी प्रान्तीय सरकार द्वारा मुझे भारत की सीमा के अन्दर या बाहर कहीं भी आने-जाने के लिए कोई प्रतिबन्ध लगाया गया ह या मुझे मेरे किसी संवैधानिक अधिकार से वंचित किया जा रहा है. इसके साथ ही गृहमन्त्री ने एक लिखित बयान जारी करने के लिए राजी कर लिया था कि बस्तर में हुई अप्रिय घटनाओं तथा अपराधों के लिए कांग्रेस पार्टी या सरकारी अधिकारी दोषी नहीं हैं. दूसरी ओर इसी अवधि में जब मैं बस्तर वापसी की यात्रा की तैयारी कर रहा था, प्रशासनिक प्रेस द्वारा जारी किए गए एक संवाद में मेरे बस्तर प्रवेश पर प्रतिबन्ध तथा गिरफ़्तार कर लेने का आदेश प्रसारित किया गया. इस दोगली नीति के संवाद की जानकारी के तुरन्त बाद मैं पं. गोविन्द बल्लभ पन्त से मिला तथा उनसे यह आदेश वापस लेने को कहा जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया था. जब मैं उड़ीसा राज्य के क्टक शहर से जैपुर की ओर यात्रा कर रहा था, रेडियो पर यह प्रसारित किया जाने लगा कि मेरे बस्तर प्रवेश पर प्रतिबन्धात्मक गिरफ़्तारी का आदेश वापस ले लिया गया है , लेकिन इसके बावजूद भी जब मैं बस्तर की सीमा पर पहुंचा, एक पुलिस दल ने मुझे गिरफ़्तार कर लिया और मार्ग से ही नरसिंहगढ़ की जेल में ले जाया गया. यह सैकड़ों मील की एक लम्बी और उकता देने वाली कष्टप्रद यात्रा थी. साथ ही नरोना का चिरपरिचित अभिभावकीय प्यार का प्रदर्शन भी था जो उन दिनों रायपुर संभाग का कमिश्नर बन चुका था. इस दोगले अभिभावक ने पूरे मार्ग में कहीं कोई विश्राम तो क्या भोजन-पानी तक देने की ज़रूरत नहीं समझी. जगदलपुर में इस घटना पर बिन्देशदत्त मिश्र ने एक प्रस्ताव पारित कर संवेदना जतलाई थी किन्तु जगदलपुर में ही इसी विषय पर आयोजित एक सार्वजनिक सम्मेलन में वह शायद अधिक अवसरवादी हो गया था जिसे आम आदमी ने आवश्यक सम्मान नहीं दिया और मैं समझता हूं कि आदिम समुदाय में उसकी लोकप्रियता समाप्त हो जाने का यही इकलौता कारण था. इसके अलावा बिन्देशदत्त मिश्र का अनैतिक गठबन्धन रविशंकर शुक्ला के पुत्रों से था जिनकी मंशा थी बस्तर में छत्तीसगढ़ क्षेत्र के आठ विधायकों के समर्थन से उसे पार्टी में एक प्रमुख व्यक्ति बना देना. पार्टी प्रमुख बनाने का यह सब्ज़बाग़ उसे पूर्व मुख्यमन्त्री रविशंकर शुक्ला का पुत्र श्यामाचरण शुक्ला कर रहा था. श्यामाचरण शुक्ला ने अपने पत्र "महाकोशल" के सभी संस्करणों में मेरी प्रत्येक गतिविधि पर आलोचना लिखकर प्रकाशित करना अपना लक्ष्य बना लिया था. इसके पीछे उसकी एक ही योजना थी - अपनी उन घृणित योजनाओं को अमल में लाना जो उसकी राजनैतिक आकांक्षाओं की पूर्ति कर सके, जो केवल मेरे पतन - राजनैतिक पतन से ही सम्भव था.

मेरी गिरफ़्तारी के समाचार मात्र से ही से आदिवासी समुदाय के लोग भारी संख्या में कलेक्टर कार्यालय के आसपास जमा हो गए. इस पर कलेक्टर मि. आर. एस. राव उन्हें बड़ी चतुराई से हटाकर हवाई अड्डे ले गया तथा शालीनता से संध्या तक मेरी वापसी की बात कह कर समझा लिया. पूरे ज़िले में सभी ओर भारी तनाव था. हज़ारों की संख्या में आदिवासी समुदाय के लोग जमा थे. वे कलेक्टर के वक्तव्यों और घोषणाओं से संतुष्ट नहीं हुए और सरकार की इस दोगली और अनैतिक कार्रवाही के विरुद्ध प्रदर्शन करने लगे. केन्द्रीय शासन ने प्रान्तीय शासन की सिफ़ारिश पर विजयचन्द भंजदेव को बस्तर के महाराजा के रूप मे मान्यता दे दी जिसने पूरे बस्तर के आम आदमी को भारी उद्वेलित कर के रख दिया. इसका मुख्य कारण यह था कि आदिवासी समुदाय ने शासन के इस नए प्रस्ताव को न तो अपनी सहमति दी थी न ही उसे प्रशासन द्वारा विश्वास में लिया गया था. पुलिस प्रशासन इस पर बुरी तरह बौखला गया और उसने आना दमनचक्र चलाना शुरू कर दिया. तोकापाल में परिगणित समुदाय द्वारा आयोजित एक सम्मेलन में चैतू नामक आदिवासी को पुलिस द्वारा इतना मारा गया कि वह बेहोश होकर सदा के लिए दोनों कानों से बहरा हो गया.इसके अलावा पुलिस इन आदिवासियों को तोड़ने के लिए इन लोगों को बलपूर्वक लॉरियों-मोटरगाड़ियों में ठूंसकर उन्हें जमाव से दूर ले जा कर जंगलों और सड़कों पर उनके साथ मारपीट करने लगी. पुलिस तथा अन्य प्रशासनिक अधिकारी वर्ग की शह पर विजयचन्द्र ने अपने ही भाई पर अनिष्ठा की स्पष्ट घोषणा कर दी. यह सब उसके उन्हीं घृणित अभियानों का एक भाग था जो वह इन कांग्रेसियों और प्रान्तीय सरकार द्वारा प्रायोजित सरकारी अधिकारियों से मिलकर अपने ही बड़े भाई के विरुद्ध चला रहा था. उसने जमा हो गई भीड़ का एक चक्कर लगाया तथा एकत्रित जनसमुदाय को भयभीत करने के लिए धमकी दे डाली कि जो कोई उसकी अधीनता को स्वीकार नहीं करेगा, उसे महाराजा नहीं मानकर उसकी योजनाओं का किसी भी तरह का विरोध करेगा, उसे गोली मार दी जाएगी. विजयचन्द्र की इस धमकी ने आदिवासियों के असन्तोष पर जले पर नमक छिड़कने का कार्य किया. कमिश्नर नरोना ने भी इन आदिवासियों को बहलाने की भरसक कोशिश की थी. वह एकत्रित जनसमुदाय को झूठे आश्वासन दिए जा रहा था. उसका कहना था कि मुझे ३१ मार्च १९६१ तक हर हाल में वापस ले आया जाएगा. यह शायद वही तारीख थी जब मुझे जबलपुर में सलाहकार बोर्ड के सामने पेश किया जाना था. सरकारी अधिकारी नए महाराजा को अपने हथकण्डों से अपना हथियार बना लेना चाहते थे. उनकी इस योजना के तहत घटना के दिन जगदलपुर से कुछ ही दूरी पर स्थित ग्राम धरमपुरा में विजयचन्द को बहुत ही अधिक शराब पिलाई गई और उसे पूरी तरह अपनी योजना के क्रियान्वयन के लिए सभी प्रकार से उद्यत करा लिया गया. लोहण्डीगुड़ा ग्राम की उस दिन की घटना के बारे में जिस किसी ने भी बताया वह केवल एक ही बात कहता था कि उसने इस तरह का वीभत्स दृश्य इसके पूर्व न कभी देखा था न सुना था. पास ही के एक ग्राम नारायणपाल में सूर्यपाल तिवारी एक उत्सव का आयोजन कर रहा था जिसे वह बस्तर के महाराजा का पतन समारोह "बोहरानी" घोषित कर रहा था. केन्द्रीय सरकार मुझे जबलपुर में सलाहकार मण्डल के सामने मेरे विरुद्ध न्यायिक परिवाद परीक्षण के लिए पेश किये जाने से पूर्व मेरा बयान प्राप्त कर लेना चहती थी. केन्द्र की कांग्रेस सरकार बस्तर के इस आदिवासी समुदाय द्वारा इस सन्दर्भ में इतने प्रचण्ड विरोध की परिकल्पना भी नहीं कर सकी थी. यह इस सरकार के लिए चमत्कारिक ही था कि बस्तर के इस महाराजा को उसकी प्रजा आज भी इतना अधिक सम्मान और स्नेह देती है. उसके प्रति सम्पूर्ण समर्पण और निष्ठा रखी जाती है और वह अपनी प्रजा की सम्पूर्ण श्रद्धा का एकमेव केन्द्रबिन्दु है. जवाहरलाल नेहरू जो स्वयं एक इतिहासविद हैं अच्छी तरह समजह्ते थे कि वह भारत के प्रधानमन्त्री का सम्मान तो प्राप्त कर सकते हैं पर बस्तर के महारजा का सम्मान नहीं.

नारायणपाल ग्राम से सूर्यपाल तिवारी किसी तरह भाग जाने में सफल हो गया अन्यथा उसे फांसी पर लटका देने का मन आदिवासी समुदाय बना चुका था.

लोहण्डीगुड़ा की घटनाओं ने बस्तर के प्रशासन तन्त्र को बुरी तरह विक्षुब्ध कर दिया था और वे इस मोड़ पर जलियांवाला बाग़ की पुनरावृत्ति देखने में रुचि रखते थे. बुलाए गए इन आदिवासियों को देवी दन्तेश्वरी के फ़ोटोग्राफ़ हाथ में उठाकर प्रणाम करने को कहा गया.और उसके बाद कलेक्टर ने उनसे विजयचन्द्र को अपना नया महाराजा मानने को कहा. सरकार की नज़र में शायद वही नए महाराजा का राज्याभिषेक था जिसे वहां एकत्रित जनसमुदाय ने न केवल साफ़ साफ़ अस्वीकार कर दिया वरन इस सरकारी कार्रवाई का घोर विरोध भी किया. ऐसा कहा जाता है कि भीड़ द्वारा अस्वीकार किये जाने के तुरन्त बाद गोली चला दी गई जो निस्संदेह प्राथमिक रूप से नए महाराजा द्वारा चलाई गई थी और बाद में उसके तथा अन्य अधिकारियों के निर्देश पर. नए महाराजा द्वारा चलाई गई गोली के परिणामस्वरूप एक जोगा माड़िया की तत्काल मौके पर ही मौत हो गई और इसके तुरन्त बाद पुलिस ने भीड़ पर अन्धाधुन्ध गोलियां चलाना शुरू कर दिया. पुलिस प्रशासन ने यह भी अनावश्यक समझा कि कि घटना की जांच-पड़ताल की जाए कि गोली किसने और क्यों चलाई. किसकी शह पर यह घटना हुई और कौन इस घटना से कितने लोग और कौन लोग हताहत हुए. चित्रकोट जाने वालि सड़क को यातायात के लिए पूरी तरह पहले से ही प्रतिबन्धित कर दिया गया था. यातायात बन्दी का यह कार्य एक सोची समझी साज़िश के तहत किया गया था ताकि पुलिस बर्बरता का साक्ष्य तक न जुटाया जा सके. इसी काल में जबलपुर के उन्मादी साम्प्रदायिक दंगों के कारण पं. नेहरू की नींद हराम हो गई थी. फलतः बस्तर की इन दुखद घटनाओं के सम्बन्ध में बस्तर प्रशासन के विरुद्ध कोई कदम नहीं उठाया गया. इस घटना से पहले ही बस्तर का कलेक्टर जबलपुर के सलाहकार मण्डल के समक्ष उपस्थित होकर मुझे अपराधी सिद्ध कर देने के लिए जबलपुर चला गया था. मैंने सलाहकार मण्डल के समक्ष सम्पूर्ण मौन रखने का निश्चय कर लिया था. न्यायिक कार्रवाईयां चलने लगीं. कलेक्टर राव सभी प्रयासों के बावजूद यह समझ गया था कि उस स्थान पर और अधिक समय तक बने रहना निरर्थक है. उसे दूसरे दिन अनुपस्थित पाकर मैंने राहत की सांस ली. एक मि. लाबो सरकारी वकील को कलेक्टर राव के स्थान पर मण्डल के सामने सरकार का पक्ष रखने की स्वीकृति दी गई थी जबकि मुझे किसी वकील की सेवाएं लेने की अनुमति तक नहीं दी गई थी. जबलपुर उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों का वह सलाहकार मण्डल बस्तर तथा उसके महाराजा के सन्दर्भ में सरकार को सलाह देने के उद्देश्य से प्रान्तीय सरकार द्वारा गठित किया गया था.

(जारी)

2 comments:

36solutions said...

आवश्‍यक है इन कडियों का नेट पर प्रकाशन. बहुत बहुत धन्‍यवाद पाण्‍डेय जी.

डॉ .अनुराग said...

पढ़ रहा हूँ ओर रिक्तता सी महसूस कर रहा हूँ