Friday, April 16, 2010

आई प्रवीर - द आदिवासी गॉड - १०

(पिछली किस्त से जारी)

इन घटनाओं के बाद गिरफ़्तार आदिवासियों को ज़मानत पर छोड़ दिया गया. यह पुलिस विभाग के गैरज़िम्मेदाराना व्यवहार का एक प्रत्यक्ष उदाहरण था जिसे जनसामान्य का हितचिन्तक समझा जाता है. इसके बाद भेजरीपदर की घटनाओं ने सरकारी तन्त्र को सन्तुष्ट कर दिया था. अब उनकी समझ में यह बात आने लग गई थी कि राजनैतिक अपराधों के लिए बस्तर के आदिवासियों पर दोषारोपण करना निरर्थक है और यह भी कि इन राजनैतिक अपराधों की रोकथाम या उन्हें समाप्त करके उनका सहयोग प्राप्त किया जा सकता है. सरकारी अधिकारियों की सोच की यह दिशा अधिक स्वाभाविक थी. इसके कुछ समय बाद मध्यप्रदेश के मुख्यमन्त्री भगवन्तराव मण्डलोई ने समाचार संवाददाताओं को एक बयान में बताया था कि कोर्ट ऑफ़ वार्ड्स को हटा लेने का समय आ गया है किन्तु इस प्रक्रिया को पूरा करने में थोड़ा समय लग सकता है. इसी काल में अत्यधिक शराब पीकर उन्मत्त विजयचन्द ने अपनी ससुराल सायला (गुजरात) के पास एक गम्भीर मोटर दुर्घटना कर दि. जो दूसरा व्यक्ति कार के अन्दर बैठा था, कार के कांचों के बीच बुरी तरह फंस कर मर गया था. यहां हम उसकी चर्चा नहीं करेंगे क्योंकि उसके मरने से कोई राष्ट्रीय क्षति नहीं हुई. इसके फले भी एक बार जब कुंवरसेन बस्तर के पुलिस अधीक्षक के पद पर नियुक्त था और विजयचन्द्र बस्तर का सरकारी मान्यता प्राप्त महाराजा, तब भी महाराजा विजयचन्द्र ने अपने ही राज्य के एक छोटे से बच्चे की एक मोटर दुर्घटना में हत्या कर डाली थी. इस अपराध की सज़ा अदालत के उठने तक के लिए हुई थी, वह यह कि फ़ैसले की घोषणा होने के बाद उसे कुछ क्षणों के लिए उसी अदालत में खड़ा रखा गया था. सायला की इस गम्भीर दुर्घटना के बाद विजयचन्द्र अपने दोनों टखने खोकर बस्तर वापस आ गया. यह सूचना वह पूर्व में ही सरकार को दे चुका था. विजयचन्द्र की गम्भीर हालत देखकर हमने राहत का अनुभव किया था क्योंकि इसके पूर्व उसी के निर्देश पर असन्तुष्ट आदिवासी समुदाय के लोगों को खोज खोज कर उनका शिकार किया जा रहा था और पुलिस प्रशासन उन्हें मेरे महल में बचाव के लिए प्रवेश करने नहीं देता था. अब तक सरकारी अधिकारियों का एक वर्ग विजयचन्द्र के सुघड़ किन्तु अभद्र व्यवहार से उकता चुका था. होली पर्व के अवसर पर कुछ उच्च सरकारी व पुलिस अधिकारियों का दल महाराजा के प्रति अपना पारम्परिक सम्मान देने व होली मिलन के उद्देश्य से महल में गया था. विजयचन्द्र ने न केवल उन्हें गालियां दीं वरन उनके द्वारा बिना पूर्व अनुमति के महल में प्रवेश करने के लिए चुनौती भी दे दी. विजयचन्दे का व्यवहार अधिकारियों को बहुत बुरा लगा जो एक ट्रक में बैठ कर अपने महाराजा के साथ होली मिलन की रस्म पूरी करने आए थे और जिन्हें उनके ही अधीन काम करने वाले पुलिस अधिकारियों ने घन्टों तक गेट पर ही रोके रखा था. विजयचन्द्र ने अनुबन्ध पर हस्ताक्षर हो जाने के बाद महल का स्वामित्व प्राप्त कर लिया था जिसमें उसके बड़े भाई को जीवनपर्यन्त रहने की सुविधा दी गई थी. महल की व्यवस्था, देखभाल और रखरखाव मेरी ज़िम्मेदारी थी. शेष सम्पत्ति कानून की नज़र में प्रवीरचन्द्र के नाम थी किन्तु सरकार विधि विभाग के उन परामर्शों पर अमल नहीं करना चाहती थी जो उसने मुझे नरसिंहगढ़ जेल में निरुद्ध करने से पहले ही विधि विभाग से प्राप्त कर लिए थे. यह समाचार मध्यप्रदेश के राजपत्र में प्रकाशित हुआ था जिसके कारण पूरा राष्ट्र संवेदनशील हो गया था और लोग यही समझने लगे थे कि कोर्ट ऑफ़ वार्ड्स का प्रतिबन्ध कभी नहीं उठाया जा सकेगा.

नरसिंहगढ़ की जेल से मेरी मुक्ति के बाद मेरे द्वारा जारी प्रेस-बयान ने भारत में प्रजातन्त्र के लिए एक प्रश्नचिन्ह लगा दिया था. इससे सम्बन्धित लोगों को यह जानकर आश्चर्य हुआ था कि मेरी सम्पत्ति उस समय तक भी मेरे भाई के नाम पर स्थानान्तरित नहीं की गई थी. सरकारी तन्त्र हमेशा की तरह यही कहता था कि ऐसा एक अत्यधिक धर्मप्रिय देश की वंशानुगत परम्पराओं के कारण नहीं किया जा रहा है जो कि एकमात्र पूर्व महाराजा को एकाधिकार देता है. जैसा कि इस धर्मप्रिय देश के लोगों को यह समझा पाना कठिन है कि ईश्वर समग्र ब्रह्माण्ड का एक प्रतीक चिन्ह है, केवल एक चमत्कार ही नहीं है और यह भी कि वह अपने ही विश्व का एक अंग है. यह सचमुच ही आश्चर्यजनक था कि केवल समाचार पत्रों की एक खबर पर ही इस नए महाराजा ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर मेरी सम्पत्ति को विमुक्त कर दिए जाने की निन्दा कर दी जबकि इस विषय पर हुए अनुबन्ध पर स्वयं उसने अपने हस्ताक्षर किए थे तथा सरकार को इस विमुक्ति के लिए अपनी सहमति भी दी थी. यह सब दशहरा पर्व शुरू होने के कुछ ही दिन पहले जानबूझकर बस्तर में गड़बड़ी फैलाकर वातावरण दूषित बनाने की नीयत से किया गया था. साकारी तन्त्र हमेशा की तरह इस पर मूक दर्शक बना हुआ था क्योंकि कलेक्टर राव अपनी कठिनाइयों के दिन देख रहा था. मेरी सम्पत्ति के कोर्ट ऑफ़ वार्डस के विमुक्ति के कुछ ही दिन बाद कुछ आदिवासियों ने, जिन्हें गालियां देकर प्रताड़ित किया गया था और भिण्ड-मुरैना के डाकुओं से बदतर अपराधी माना गया था, सम्भवतः जगदलपुर के समीप ही एक ग्राम भेजरीपदर में दो पुलिस सिपाहियों की हत्या कर दी थी. इस पर पुलिस अन्य आदिवासियों को प्रताड़ित कर अपनी तुष्टि के लिए उनकी हत्या करने लगी.. पुलिस बदला लेने की यह कार्रवाई दस साल पहले हुई किसी हत्या की जांच के नाम पर कर रही थी. अफ़वाह यह थी कि ग्राम कारेंगपाल, जो भेजरीपदर के पास ही है, के बिस्सू माड़िया के लड़के को जांच पड़ताल के नाम पर इतना प्रताड़ित किया गया कि उसकी मौत हो गई. एक अनय आदिवासी हड़मा की लड़की के साथ उसके पिता के सामने ही छीना झपटि और अश्लील ज़बरदस्ती की गई. जब हड़मा ने पुलिस का विरोध किया तो उसके दोनों पैर तोड़ डाले गए. यह माड़िया जिसका नाम हड़मा है, अपने नैतिक विरोध के कारण अपने दोनों पैर खो चुका है. इन सभी अमानुषिक घटनाओं के घटित होने की पुष्टि देखने और भोगने वालों ने देवी की शपथ लेकर की है. भेजरीपदर में पुलिसकर्मियों की हत्या की घटना दोपहर के आसपास हुई थी और सूर्यास्त होते न होते जगदलपुर के महल के मुख्य द्वार पर पुलिस तैनाती कर दी गई थी. ऐसा कहा जाने लगा था कि ये माड़िया मारे गए पुलिसवालों के सिर लेकर महल में प्रवेश कर चुके हैं. पुलिस उन्हें इसी बात पर गिरफ़्तार करने में सफल हो गई किन्तु बरामदगी के नाम पर उसके हाथ एक छोटा सा ताबूत हाथ लगा जिसे पंदरीपानी गांव से बरामद किया गया था. पुलिस अधीक्षक ने एक भेंटवार्ता में मुझे बताया कि मेरे द्वारा आदिवासियों को गुमराह कर भड़काया जा रहा है जिसके कारण इस तरह की घटनाएं हो रही हैं. किन्तु उसने कभी भी यह अनुभव नईं किया कि किसी प्रशासन को सम्हालकर उसकी व्यवस्था करना कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी होता है और इसके लिए निष्पक्ष और न्यायप्रिय होनी आवश्यक होता है. इसके अलावा उसकी स्वयं की गतिविधियां, जैसे महाराज के विरुद्ध सरकार को गलत सूचनाएं देना, भी इन गड़बड़ियों का मुख्य कारण थी. जगदलपुर में कांग्रेस के तथा अन्य विघ्नप्रिय लोगों का दुर्भावनापूर्ण प्रदर्शन और उनके क्रियाकलाप बस्तर की इन गतिविधियों का एक अन्य कारण थे. कांग्रेस की सरकार तथा पुलिस के अधिकारीगण समय समय पर केन्द्र को झूठी और गलत सूचनाएम भेजते रहे हैं. उन्होंने न तो कभी कल्पना ही की या कभी अनुभव ही किया कि इस राजपरिवार में विद्वेष की भावना फैलाकर इसे विघटित करने के लिए की जा रही कार्रवाईयों के एक दिन दूरगामी परिणाम उत्पन्न होंगे किन्तु इतना सब होते हुए भी ठीक इसके विपरीत नरोना को अतिरिक्त मुख्य सचिव पद के लिए आश्वस्त किया गया है. मैं समझता हूं कि राजपरिवार के किसी सदस्य को जो वांछित योग्यता रखता हो, बस्तर में पुलिस अधीक्षक के पद पर नियुक्त करना बस्तर और सरकार दोनों के लिए लाभप्रद होगा. इस से पुलिस प्रशासन और आदिवासियों के बीच सौहार्द बढ़ेगा. इसके साथ ही यदि इन आदिवासियों के युव वर्ग को अपने अपने ग्रामों में शान्ति तथा व्यवस्था बनाने की ज़िम्मेदारी सौंप दी जाए तो भाईचारे की भावना को बढ़ावा तो मिलेगा ही साथ ही पुलिस की आतंकवादी गतिविधियां स्वयं प्रतिबन्धित हो जाएंगी. यह आदिम युवा वर्ग पुलिस के उच्चतम कमान के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अधीन हो तथा केवल उसी के प्रति उत्तरदाई हो अन्यथा पुलिस और आदिवासियों के बीच सौहार्द बन पाना असम्भव लगता है. इसके अलावा बस्तर में अय परेशानियां भी हैं. सुदूर ग्रामों में रहने वाले ये आदिवासी भारतीय संविधान का पहला पाठ भी नहीं जानते. सरकार के कर्मचारी तथा वकीलों का एक समूह इनकी अज्ञानता का गलत तरीके से भारी लाभ उठा रहा है तथा उन्हें भड़काने के लिए कई अनैतिक क्रियाकलाओं में लीन है. वर्ष १९६३ के दशहरा पर्व के समय एक युवा वकील मामा वाजपेई ने प्रेस को एक बयान दिया था कि वह चाहता था कि देवी दन्तेश्वरी को रथ पर न बिठाया जाए दशाहर के समय आदिवासी इस रथ में देवी दन्तेश्वरी के छत्र को रथासीन करते हैं. मामा वाजपेई के अनुसार - जो स्वयं को एक ब्राह्मण मानता है- आदिम समुदाय द्वारा इस रथ का खींचा जाना दासता का प्रतीक है. ये लोग बस्तर में अन्य विघ्नप्रिय एवं खुराफ़ाती लोगों जैसे मुरलीधर दुबे, गुरुदयाल सिंह, गंगाधर दास (रथ), राज नायडू, कुंवर बालमुकुन्द सिंह, रमेश दुबे, नरसिंहराव, आदर्शीराव आदि परदे के पीछे से इन आदिवासियों को दबाने तथा प्रताड़ित करने के लिए प्रशासन नामक इस पागल हाथी को प्रभावित करते रहते हैं. यहां इसका एक नमूना उद्धृत करना चाहूंगा -

(जारी)

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