Thursday, May 6, 2010

प्रेम की सुन्दरता का निषेध करने वाले इसी तट आते हैं हाथ - पैर धोने



अख़बार , टीवी , इंटरनेट से गुजरते हुए पिछले कुछ दिनों से वीरेन जी की यह छोटी - सी कविता बार - बार याद रही है.....याद क्या आ रही है परेशान -सी किए हुए है...आइए देखते - पढ़ते हैं....



विद्वेष / वीरेन डंगवाल

यह बूचड़खाने की नाली है
इसी से होकर आते हैं नदी के जल में
खून चरबी रोयें और लोथड़े.
प्रेम की सुन्दरता का निषेध करने वाले
इसी तट आते हैं हाथ - पैर धोने.
-----------------
चित्र : विन्सेन्ट वान गॉग

4 comments:

दिलीप said...

waah sirji dil me utar gayi aapki panktiyan...

PD said...

राज के ढाई बजे इसे पढ़ने के बाद नींद कि बची खुची उम्मीद भी खत्म सी होती दिखाई दे रही है..

वाणी गीत said...

waah ...!!

Ashok Kumar pandey said...

अद्भुत