Wednesday, September 22, 2010

कवि लीलाधर जगूड़ी से ओम निश्चल की बातचीत - 2

(पिछली किस्त से जारी)

ओम निश्चल: ‘इस यात्रा में’ की भूमिका ‘पुराने प्रसंग के प्राण’ में आपने लिखा शायद माँ का अभाव मेरी कविता का उद्भव है । उसी को ढूँढने और पाने के लिए मैने अपनी कविताओं में स्त्रियों को तरह-तरह से रचा है । एक कविता में आपने कहा है कि स्त्रियाँ न होती तो आधी भाषा न होती और पूरा जीवन न होता । इससे आपका क्या आशय है ?

लीलाधर जगूड़ी: मेरा बचपन मेरी वृद्ध दादी जो अपने युवा काल में ही विधवा हो गयी थी, की गोद में बीता, पांच वर्ष का होते ही माँ से वंचित हो गया था। इस तरह मैं एक ‘गडवालू’ (छोटे बच्चों की गोद खिलाने वाला) बच्चा बन गया। जब गांव में शाम को बच्चे खेतों से लौटी हुई अपनी माँ से लिपट जाते थे, तो हम तीनों भाई अपनी रतौंधी ग्रस्त दादी से लिपट जाते थे।

मुझे बचपन में सिर्फ़ इतना पता था कि मरने के बाद सब भूत बन जाते हैं। इसलिए अंधेरे में श्मशान में और भीड़ में मुझे कभी डर नहीं लगा क्यों कि मै किशोर उम्र तक यह मानकर चलता रहा कि भूतों को मेरी माँ कह देगी कि वह मेरा बच्चा है। जो भी वजह रही हो, मुझे भूत कभी दिखायी नहीं दिये। मैं दस वर्ष का हुआ ही था कि 1951 की बसन्त पंचमी को मेरा विवाह एक ऐसी लड़की से कर दिया गया जो तब सात वर्ष की हो चुकी थी, वह हमारे घर में किसी डरे सकुचे मेहमान बच्चे की तरह लेकिन दिन भर घर के छोटे-छोटे कामों में जुटी रहती थी। उसी वर्ष मैं घर छोडकर भाग गया। ऋषिकेश से राजस्थान तक संस्कृत विद्यालयों में मुफ़्त का भोजन और मुफ़्त की शिक्षा प्राप्त कर लगभग ग्यारह-बारह वर्ष बाद जब मैं धर लौटकर आया तो उस लड़की को अपने घर में मौजूद पाया। मैं अपनी माँ के अभाव को दूसरी तरह से देखता था और वह लड़की बाल्यकाल से ही, माँ बाप के जीवित होते हुए भी, उनके अभाव को एकदम दूसरे रूप में देखती थी। उसने एक बार मुझ से विमाता के अन्यायों से तंग आकर कहा कि यह अच्छा है कि आपकी अपनी माँ नहीं है। मेरी तो अपनी माँ है लेकिन उसने मुझे सात वर्ष की अवस्था में ही घर से विदा कर दिया था। ऐसे वक्त महाभारत का का वह वाक्य याद आता है जो उसने नल और दमयंती उपाख्यान में लिखा है-

--स्त्री के समान दूसरी कौन सी दुःख की महौषधि है? भार्या के समान दुखी मनुष्य का और कोई मित्र नहीं। वह आर्त की परम औषध है। पुरूष से बढकर स्त्री का कोई रहस्य ज्ञाता नहीं। यदि कोई पुरूष स्त्री को आकाश में भरी हुई रात्रि की तरह देखे तो भी वह उसे एक दीप्त नक्षत्र की तरह देखती है।

जिस लड़की से मेरा विवाह हुआ उसकी वजह से कालांतर में मैं अपनी माँ को कुछ भुला पाया। लेकिन तभी गांव में एक भयावह घटना हो गयी। किसी स्त्री पर भूत लग गया और उस भूत ने अपना नाम वह बताया जो कि मेरी माँ का नाम था। इतने वर्षो बाद मेरी माँ अभी भी भूत है, यह बात मुझे बहुत पीड़ादायक लगी। जिसे मैंने इतने वर्षों के अंधेरे में बहुत तलाशा और वह तब भी मुझे नहीं मिली तो यह सिर्फ़ पाखंड है और कुछ नहीं। पता नहीं मुझे उस समय क्या हुआ कि वहां पर पड़ा एक जूता उठाकर मैंने उस स्त्री को जूते से खूब पीटा, वह स्त्री बाल फैलाये हुए थी। और अपने को भूत द्वारा ग्रसित बता रही थी भूत भाग गया और वह स्त्री सामान्य हो गयी। लेकिन उसके पति ने कहा कि तुमने मेरी पत्नी को जूते से क्यों पीटा? मेरे जवाब ने उन्हे निरूत्तर कर दिया। मैंने कहा, आपकी पत्नी को नहीं मैंने अपनी माँ को पीटा है, ताकि वह आइंदा भूत बनकर किसी को न सताये । मेरी दादी ने बताया कि उस परिवार से पिछले दो साल से हमारे झगडे़ चल रहे हैं इसलिए यह भूत कांड भी बदले की एक कार्रवाई थी।

ओम जी, इन बातों को अगर छोड़ दिया जाय तो भी जीवन स्त्री या कि स्त्रियों के बिना अधूरा है। जन्म से लेकर पुनर्जन्म तक स्त्रियों ने अपने कर्म सौन्दर्य से ऐसे-ऐसे शब्दों और संज्ञाओ का निर्माण किया है कि पुल्लिंग की यात्रा स्त्रीलिंग के बिना जीवन में और व्याकरण में, दोनों जगह अधूरी है। मनुष्य चाहे वह स्त्री हो या पुरूष, सभी के कर्मों ने और प्रकृति के परिवर्तनशील स्वभाव ने हर युग में भाषा की स्थिति (पैटर्न) को बदला है। नयी जीवन शैली और नये उत्पादन भी अपनी अभिव्यक्ति के लिए नयी-नयी प्रतीतियों के साथ नये शब्द ले आते हैं और यह भी स्त्री पुरूष का एक संयुक्त उद्यम है। अद्वितीय सहकार है। बिना स्त्री के पौराणिक देवताओं की उत्पति बहुत बडी फ़ैंटेसी लगती है। विष्णु से ब्रह्मा सीधे पैदा दिखाये गये हैं। शिव भी स्वयंभू हैं। बीच में कोई स्त्री (जननी) नहीं है। लेकिन इन आयोनिज देवताओं का, भी जीवन में स्त्री के बिना काम नहीं चला। मैंने मनुष्य समाज के संदर्भ में स्त्रियों की बात कही है। स्त्री, पुरूष का आधा सौभाग्य है।

ओम निश्चल: आपने अपनी कविता के तीन उद्गम माने हैं। लोक जीवन, सामाजिक जीवन और कर्म से विस्तृत वैश्विक ब्रह्माण्डीय दृष्टि। आपने माना कि अब तक के सभी बारह संग्रह इन्ही प्रवृत्तियों का विस्तार है? इनके अलावा आपकी कविता को समकालीन कविता की प्रचालित प्रवृत्तियों की विशिष्टताओं से किस तरह अलग से देखा जाना चाहिए?

लीलाधर जगूड़ी: खुद को प्रवृत्तियों की दृष्टि से देखना बहुत बडे जासूसी अवलोकन की अपेक्षा रखता है। मेरी कविता में नाटकीय सूक्तियां अधिक हैं। निरंतर एक संवादात्मकता है जो किसी बातचीत का अंत नही होने देती। मैने छोटी-छोटी टेढी-मेढी पंक्तियां की उपेक्षा लंबी पंक्तियों या कहें कि लंबे वाक्य ज्यादा लिखे हैं। लंबे वाक्यो का संकट एक यह भी है कि उनमें आख्यानपरकता और व्याख्यात्मकता ज्यादा होती है। मै हर पात्र और वस्तु से उसके अस्तित्व का एकल अभिनय करवाना चाहता हूँ।

इधर मेरी कविताएं आकार में छोटी हुई हैं। भवसागर में छोटी-छोटी डोंगियों की तरह प्रवाहित और प्रकाशित छोटे-छोटे दीयों की तरह।

मैं प्रकृति को भी राजनीतिक दृष्टिकोण से देखता हूं। जैसे परिवार की एक राजनीति होती है वैसे प्रकृति की भी होती है। प्रकृति में जहां-जहां मैनें मनुष्य की उपस्थिति देखी है वहां-वहां उस मानवीय उपस्थिति ने प्रकृति को बदल डाला है।
विचारधाराओं की तरह कहीं-कहीं बची है

चोटियों पर बर्फ़
विचारधारा के बिना भी ठंड की तानाशाही कायम है।

आज कविता को इस नजरिए से भी देखा जाना चाहिए कि उसने कितने नये शब्द, मुहावरे और बिम्ब गढ़ने के अलावा वाक्यों के कथन ओर गठन में क्या-क्या अंतर पैदा किये हैं, उससे कैसे कविता के जैविक संगठन मे सहायता मिली। न कहने को आखिर किस तरह कहकर भी नहीं कहा या क्या से क्या कहकर कहा? और किसने कविता को एक समाजशास्त्रीय लेख बनाकर बिम्बहीन बना दिया?

ओम निश्चल: ‘इस यात्रा में’ की कविता ‘आत्मविलाप’ में आपने कविताओं को कविता नहीं एक इच्छा माना है। एक ऐसी इच्छा जिसमें पानी हर तरफ़ से किनारे पर तो ला देता है पर छोडता नहीं। इतनी सुदीर्घ काव्य यात्रा में जहां भाषा अनुभव और कथ्य मे हर बार आपके भीतर कुछ नया खोजने रचने का उद्वेग सक्रिय रहा है। इच्छा-जल में संतरण ही आपको अभीष्ट है? या इस जल को भी आप कहीं पहुंचाना चाहते हैं ?

लीलाधर जगूड़ी: ‘इस यात्रा में’ नामक संग्रह में 1970 -73 की कविताएँ संकलित हैं। इसके तीसरे संस्करण के लिए प्रकाशक ने मुझ से कहा कि मैं इसकी अब एक भूमिका लिख दूँ। अपने ही संग्रह की लगभग 40 वर्ष बाद भूमिका लिखना चुनौती भी थी और यह इस बात का भी प्रमाण है कि यह संग्रह अब भी पढ़ा जा रहा है।

इच्छा जल एक तरह से अपने अतःकरण को सदानीरा अथवा अजस्र बनाये रखने की आकांक्षा भी है। उद्गम सूखना नहीं चाहिए । आत्म विलाप एक पश्चाताप लिये हुए है कि यहां हम कुछ बचा न सके। जो भी हमने प्राप्त किया वह नष्ट होने के लिए एक उपलाब्धि थी। विकास के लिए रोज रोज हमने जो कुछ किया उसने तो हमने बदला हो लेकिन अभीष्ट बदलाव में जो कुछ हमने प्राप्त किया उसने भी हमें नहीं छोड़ा। उसमें का परिवर्तन कहीं न कहीं हममें का परिवर्तन धटित होने लगा ।

‘मैने जो धुआं देखा जिन्दगी के हवन से, उसमें सूर्य की किरण झाड़ू की सींक से बेहतर नहीं थी। यहां न हम अपना विनाश बचा पाते हैं न अपना निर्माण। यहां तक कि अपने बाल और नाखून भी नहीं बचा पाये । संभवतः अपने अस्तित्व के लिए ही दुनिया का अस्तित्व है । वरना दुनिया की भी क्या जरूरत? इच्छा जल की मृत्यु मनुष्य की मृत्यु है। इसी इच्छा पाश से बंधा हुआ मनुष्य यहां तक पहुंचा है कि आज सब कुछ ‘इच्छा बटन’ (स्विच) के नीचे आगया है । यह दुनिया इसलिए सुंदर है क्यों कि यहां संलाप करने वाला ही नही बार बार आत्म विलाप करने वाला भी एक मनुष्य मौजूद रहता है जो इस इच्छा जल को अपने अनुसार या अपने को इस इच्छा जल के अनुसार चलाता रहता है। ‘भव सागर’ जो मुहावरा है वह इसी ‘इच्छा जल’ से भरा है।

(जारी)

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