Tuesday, October 5, 2010

चन्द्रमा को गिटार सा बजाऊँगा तुम्हारे लिए

एक और कविता चन्द्रकान्त देवताले जी की




मैं आता रहूँगा तुम्हारे लिए

मेरे होने के प्रगाढ़ अंधेरे को
पता नहीं कैसे जगमगा देती हो तुम
अपने देखने भर के करिश्मे से

कुछ तो है तुम्हारे भीतर
जिससे अपने बियाबान सन्नाटे को
तुम सितार सा बजा लेती हो समुद्र की छाती में

अपने असंभव आकाश में
तुम आजाद चिड़िया की तरह खेल रही हो
उसकी आवाज की परछाई के साथ
जो लगभग गूंगा है
‌और मैं कविता के बन्दरगाह पर खड़ा
आँखे खोल रहा हूँ गहरी धुंध में

लगता है काल्पनिक खुशी का भी
अन्त हो चुका है
पता नहीं कहाँ किस चट्टान पर बैठी
तुम फूलों को नोंच रही हो
मैं यहाँ दुःख की सूखी आँखों पर
पानी के छींटे मार रहा हूँ
हमारे बीच तितलियों का अभेद्य परदा है शायद

जो भी हो
मैं आता रहूँगा उजली रातों में
चन्द्रमा को गिटार सा बजाऊँगा
तुम्हारे लिए
और वसन्त के पूरे समय
वसन्त को रूई की तरह धुनकता रहूँगा
तुम्हारे लिए

(चित्र: समकालीन अमेरिकी चित्रकार डार्लीन कीफ़ की पेन्टिंग: गिटार)

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

चन्द्रमा को ध्वनि व आधुनिकता से जो़ड़ने का अभिनव प्रयोग।

मनीषा पांडे said...

बहुत सुंदर। कितनी सीधी और सच्‍ची।

महेन्‍द्र वर्मा said...

तितलियों का अभेद्य परदा और चंद्रमा का गिटार जैसे प्रतीक हिंदी कविता के संदर्भ में एकदम नए हैं।...अप्रतिम कविता...वाह।

शरद कोकास said...

बहुत अच्छी कविता ।