Monday, March 21, 2011

जो सुनना तो कहना ज़रूर

सत्तर की दहाई में उभरी कवि-रचनाकारों की बेहद सचेत पीढ़ी में राजेश शर्मा एक लोकप्रिय नाम हुआ करता था. मेरी उनसे फ़क़त एक मुलाक़ात थी - साल याद नहीं - शायद १९९२ - शाहजहांपुर. मौक़ा वरिष्ठ कहानीकार हृदयेश जी को पहल सम्मान दिए जाने का था. कार्यक्रम के उपरान्त राग दरबारी वाले श्रीलाल शुक्ल जी की मौजूदगी में किसी बात पर अंग्रेज़ी साहित्य का ज़िक्र हुआ तो प्रयोगवादिता का थोड़ा मखौल सा बनाते हुए शुक्ल जी ने एज़रा पाउन्ड की कविता द टेबल की ऐसी-तैसी की. राजेश जी मेरी बग़ल में बैठे थे. मैं पच्चीस-छब्बीस साल का दब्बू पर अड़ियल लौंडा भर था. मैंने दबी ज़ुबान में शुक्ल जी से असहमत होते हुए अपने ही से कुछ कहा तो राजेश जी ने अपना हाथ मेरे कन्धे पर धरा और बाहर चलने का संकेत किया. बाहर उन्होंने मुझसे मांगकर बाकायदा मेरी सिगरेट पी और हिन्दी-अंग्रेज़ी और दुनिया भर के साहित्य पर बात करते हुए काफ़ी समय बिताया. टी. एस. ईलियट का ज़िक्र आते ही उन्होंने मेरा हाथ बहुत कस कर थाम लिया और बोले - "आइ हैव मेज़र्ड आउट माई लाइफ़ विद कॉफ़ी स्पून्स ..."

मुझे लगता था इस नफ़ासत भरे शख़्स से मेरी लम्बी निभेगी मग़र बहुत समय नहीं बीता था जब मार्च सत्तनवे के एक दिन लखनऊ आकाशवाणी दफ़्तर से लगी हुई बहुमंज़िला ओ.सी.आर. बिल्डिंग से कूदकर उन्होंने अपनी जान दे दी. मुझे आज तक समझ नहीं आता ऐसा सुरीला, सुसंस्कृत शानदार आदमी आत्मघात कैसे कर सकता था. उनका सम्भवतः इकलौता कविता-संग्रह जो सुनना तो कहना ज़रूर मेरे पास आज भी धरा हुआ है. आज उसी से आपके सम्मुख पेश कर रहा हूं शीर्षक कविता और एक कविता के कुछ टुकड़े. राजेश जी की कुछ और कविताएं कल भी पढ़िये -

अजनबी शहर में

|| एक ||

सीधे चलते हुए दाएँ मुड़ना
फिर सीधे
फिर बाएँ
उस ने ठहर कर बताया
हम ने शुक्रिया अदा किया
ध्यान आया
अपने पुराने शहर में
वर्षों हो गए थे
किसी को शुक्रिया अदा किए
वर्षों हो गए थे किसी को
सहारे की आँखों से देखे

|| दो ||

कितनी अपनी थी वहाँ अजनबीयत भी
कंधे कितने हल्के थे

एतराज और सवाल नहीं थे

सूने पार्कों की औंधती बेंचों
और फुटपाथ की आप-धापी में
कोई चेहरा अपना नहीं था
लेकिन ग़ौर से देखो
तो सभी चेहरे अपने लगने को होते थे
लगभग....लगभग....

अपने शहर में
लगातार अपने ही बारे में सोचते हुए
हम हज़ार-हज़ार मुखौंटों में बँट चुके थे
एक मुखौटा दूसरे को धिक्कारता था
दूसरा तीसरे को
धिक्कार था जीवन अपने पुराने शहर में
अक्सर....अक्सर....

|| तीन ||

लगातार सोचते थे हम
दूसरों के बारे में
अजनबी शहर में
हमारे बारे में कोई नहीं सोचता था

सरकते थे चुपचाप पुराने दिन
शीशे की तरह
बहुत पीछे छूटा कोई दिन तो
हमें छू कर ही गुज़रता था
आंखों पर अक्स डालता हुआ

|| चार ||

बेपहचान के अँधेरे में
रहते थे हम दिन-रात
चलते थे किधर भी
दूर तक चलते थे
चुप रह सकते थे देर तक

अजनबी शहर में हम
न स्याह होते थे न सफ़ेद
न पक्षधर न विद्रोही
चुन सकते थे रास्ता कोई नया
उम्मीद की पहली ईंट रख सकते थे
ख़ालिस मनुष्य बन कर
शुरू कर सकते थे ज़िन्दगी
बिल्कुल शुरू से

|| पाँच ||

हमें मालूम था यह निरर्थक है
हम जानते थे छोटी-सी हँसी
और अधूरी आवाज़
दूर तक नहीं जाती
लेकिन हम उस शहर से आए थे
जहाँ लंबी हँसी और पूरी आवाज़ भी
काम नहीं आई थी
कभी-कभी तो रोकती थी
वह लंबी हँसी
वर्षों से सहेज कर रक्खे
रिश्ते को टोकती थी

|| छह ||

शायद हमें पता था
अधिक रुकना ख़तरनाक होता है
अधिक रुकना पहचान से
आगे बढ़ कर
भरोसे में बदलता है
भरोसा कभी बहुत तकलीफ़ देता है
अधिक रुकना पतली पहचान
और छोटी-सी हँसी का
अतिक्रमण है

अधिक रुकना ख़तरनाक है
क्योंकि तब अजनबी शहर
अजनबी नहीं रहता |


जो सुनना तो कहना ज़रूर

देखो भाई!
जो सुनना तो कहना ज़रूर
एक शब्द सुनना तो एक शब्द कहना
सुनते-सुनते बीत गई ज़िन्दगी
कितनी-कितनी ज़िन्दगी हिसाब है
हिसाब है कोई?
शताब्दियों पहले कहा था
जो चुप हैं उन्हें अलग ख़ानों में डालो
फिर कहा गया जो चुप हैं
उन्हें चुप ही रहना है

आज कहते हैं जो चुप हैं
उन्के लिए कुछ करेंगे
कोई नहीं कहता जो चुप हैं
उनकी आवाज़ होनी चाहिए
ईंट पर ईंट और गारे पर गारा
होना चाहिए
इसलिए चुप्पी नहीं भाषा होनी चाहिए
भाषा वह जो कहती हो
एक-एक
शब्द वह जो करता हो
ईंट-ईंट स्तब्ध!

6 comments:

Neeraj Rohilla said...

वाह क्या बात है कि उस समय (१९९२) हम भी शाहजहाँपुर में ही थे, सातवीं कक्षा में और उस समय छोटा चौक इलाके में रहते थे। अलबत्ता, हृदयेश का नाम तब सुना जब १९९७ में अमर उजाला ने एक कहानी विशेषांक निकाला था।

आभार,
नीरज

बाबुषा said...

मैंने अक्सर ही देखा है जो खूब जीना चाहता है, भरा होता है ज़िन्दगी से लबालब...वही आत्मघात कर बैठता है. शायद जैसा जीना चाहता होगा, वो इबारत न पसंद होगी ज़िन्दगी को. और वो नाज़ुक मिजाज़,जिंदगी को प्यार करने वाला, शायद न सह पाता होगा ज़िन्दगी की बेरुखी. वो कहते हैं ना - “Suicide is man's way of telling God, "You can't fire me - I quit."” खैर !

आपने एक संवेदनशील कवि से परिचय करवाया, आभार.

बाबुषा said...

मैंने अक्सर ही देखा है जो खूब जीना चाहता है, भरा होता है ज़िन्दगी से लबालब...वही आत्मघात कर बैठता है. शायद जैसा जीना चाहता होगा, वो इबारत न पसंद होगी ज़िन्दगी को. और वो नाज़ुक मिजाज़,जिंदगी को प्यार करने वाला, शायद न सह पाता होगा ज़िन्दगी की बेरुखी. वो कहते हैं ना - “Suicide is man's way of telling God, "You can't fire me - I quit."” खैर !

आपने एक संवेदनशील कवि से परिचय करवाया, आभार.

शिवा said...

बहुत सुंदर ....

Naveen Joshi said...

डियर अशोक, आपने राजेश को याद किया, यह बहुत अच्‍छा किया.लोग उनको लगभग भूल चुके हैं. राजेश बहुत संवेदनशील इनसान और महत्‍वपूर्ण कवि थे. लम्‍बे समय तक डिप्रेशन के शिकार रहे और बहुत अकेले भी पड गये थे, जब उन्‍होंने आत्‍महत्‍या की, उसी इमारत की 11वीं मंजिल से कूद कर जिसकी 10वीं मंजिल में वे कई वर्ष रहे थे.

प्रवीण पाण्डेय said...

संवेदनशील कवितायें, साहित्यिक परिचय का आभार।