Saturday, May 28, 2011

कुरजां का स्वागत कीजिए....


जयपुर से निकली कुरजां पिछले दिनों ग्वालियर तक आ पहुंची और खबर है कि अब वह राजस्थान से पूरे हिंदुस्तान में फैल रही है...सात समंदर पार की यह पंक्षी प्रेमचंद गांधी ने ठेठ हिन्दुस्तानी ठाठ के साथ भेजी है, शताब्दी वर्ष का होना खडी बोली हिन्दी और हिन्दुस्तानी की विरासत के धीरे-धीरे प्रौढ़ होते जाने की सूचना दे रहा है और साथ में उन चिंताओं और चुनौतियों की ओर भी संकेत कर रहा है जो अपने लगभग एक सदी के इतिहास में इसके सामने आ खडी हुई हैं.

अगर एक पंक्ति में कहूँ तो कुरजां की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह सेलीब्रेटेड त्रयियों या चतुष्टयों से आगे जाकर उनको भी भरपूर सम्मान देती है जो इस आयोजन काल में भी अलक्षित रह गए. इसीलिए इसमें शमशेर, नागार्जुन, अज्ञेय, केदार, के साथ-साथ उपेन्द्र नाथ अश्क, गोपाल सिंह नेपाली, भुवनेश्वर, भगवत शरण उपाध्याय,राधाकृष्ण हैं तो उर्दू के फैज़, असरार उल हक मजाज, नून मीम राशिद, अंग्रेजी के अहमद अली, राजस्थानी के कन्हैया लाल सहल, गुजराती के उमा शंकर जोशी, कृष्ण लाल श्रीधरणी, भोगी लाल गांधी, तेलगु के श्री श्री के साथ रविन्द्र नाथ टैगोर को उनके प्रसिद्द उपन्यास 'गोरा' के सौ साल पूरे होने के बहाने आत्मीयता से याद किया गया है. 'दुसरे गोलार्द्ध' से जेस्लो मिलोज को भी याद किया गया है तो संगीत के महान उस्तादों विष्णु नारायण भातखंडे, मल्लिकार्जुन मंसूर और उस्ताद अब्दुल रशीद खान के साथ फिल्मों की दुनिया से हमारे अपने दादामुनि अशोक कुमार और जापान के युग प्रवर्तक फिल्मकार अकीरा कुरासोवा को भी शिद्दत से याद किया गया है.

अंग्रेजी से एक कहावत उधार लूं तो Last but not the least है महिला दिवस पर लिखा मनीषा कुलश्रेष्ठ का आलेख. मनीषा ने लीक से हटकर एक बेहद विचारोत्तेजक लेख लिखा है जो पत्रिका के आगामी अंको के तेवर की ओर संकेत करता है.

अब फकत २८१ पन्नों में इतना कुछ समेटना आसान कतई नहीं लेकिन फिर भी यह पत्रिका आम के साथ-साथ 'खास' पाठकों के लिए भी भरपूर सामग्री उपलब्ध कराती है. अज्ञेय पर एक लंबे साक्षात्कार को छोड़ दें तो आमतौर पर विगलित भक्तिभाव नहीं दिखता. प्रियंकर पालीवाल का वि ना भातखंडे पर लिखा आलेख और केदार पर हिमांशु पंड्या का आलेख मुझे अंक की उपलब्धि लगे. फैज़ पर कुछ पाकिस्तानी लेखकों/पत्रकारों द्वारा जुटाई गयी सामग्री अंक को और समृद्ध करती है.

बहरहाल, विस्तार से फिर कभी...अभी तो कुरजां की टीम को बधाई और आप सबसे इस पत्रिका को पढ़ने की गुजारिश....

पत्रिका की कीमत है १०० रुपये और इसे भाई प्रेमचंद गांधी से 09829190626 पर फोन या prempoet@gmail.com पर मेल करके मंगाया जा सकता है. अगर ग्वालियर के आसपास हों तो मुझसे ले लें.

6 comments:

Astrologer Sidharth said...

स्‍वागत है कुरजां का... पता कर लिया है बीकानेर में सर्वत्र उपलब्‍ध है शाम तक ले आउंगा....


सूचना और समीक्षा के लिए आभार...

Neeraj said...

धन्यवाद अशोक भाई, इस नायाब खजाने की कीमत तो १०० रूपये भी कम ही है | सबकी अपनी अपनी पसंद है, तो मैं इसे हिंदी/उर्दू के फ़ालतू कवि /कहानीकारों के बजाय अकिरा कुरोसावा के लिए खरीदना पसंद करूँगा |

Ashok Kumar pandey said...

नीरज जी...हिन्दी/उर्दू के कवि/कहानीकार आपको फालतू लगते हैं...यह जानकर दुःख हुआ...खैर...

अजेय said...

फालतू तो नहीं यार ......

Neeraj said...

फ़ालतू थोडा ज्यादा हो गया | will modify it when get exact word.

नीरज गोस्वामी said...

अपनी भाषा में पढने का आनंद ही कुछ और है...इस स्तरीय पत्रिका के प्रकाशन पर संपादक मंडल को ढेरों बधाई...

नीरज