Sunday, May 22, 2011

ओ नज़रुल!

महाकवि काज़ी नज़रुल इस्लाम की रचना अग्निसेतु पढ़ने के बाद हिन्दी के उतने ही बड़े कवि शमशेर बहादुर सिंह ने अपनी अलग-सी शैली में नज़रुल पर यह ख़ासी लम्बी कविता लिखी थी. मैं बहुत लम्बे समय से इसे यहां लगाना चाहता था -


आकाशे दामामा बाजे ...

गर्दन झुकाए
एकटक कुछ देखते,सोचते,
निश्चय
ओ विद्रोही
--क्या देखते, जाने क्या सोचते
स्वतः अनजाने ही
तीन देशों के एक साथ नागरिक
तीन देशों की विप्लवी
एकता में
कहीं
चित्त बसाए
...हमारे लिए तीन
जो तुम्हारे लिए एक...
मौन शांत दृष्टि से
क्या अवलोकन करते
कौनसी कविता लिखते
किस नए कॉस्मिक विद्रोह और
निर्माण की !
"...आकाशे दामामा बाजे..."
विद्रोही !
क्या अब भी दामामे बज रहे हैं
--और किस आकाश में
किन-किन धरतियों के ऊपर
मानव-हृदयों में
दामामे बज रहे हैं ?!
"चल ! चल ! चल !" शुन, शुन,
शुन !
वह शोकगीत के दामामे हैं शायद :
मगर उनकी चोट कैसी कड़ी है
विद्रोही !
न, न, न,
वो शोकगीत के न होंगे,
विजय के ही होंगे निरन्तर
सदा की तरह !
क्यों तुम बोल न उठे
यकायक कभी ?
इतना कुछ हो गया
दुनिया में
हीरोशिमा नागासाकी ही नहीं
पूरा वियतनाम
पूरा चीन
पूरा अफ़्रीका
पूरी अरब दुनिया
--ये सब
मानव चेतना के इतिहास में
व्याप्त हो गया :
हम अपनी साँस में
इन सबको जीते हैं
...और तुम ?!
युद्ध समाप्त हुआ
जिसमें से और
भीषणतर युद्ध
आरम्भ हुए;
पश्चिम का दानवी रूप
प्रकट हुआ;
तीसरी दुनिया ने जन्म लिया
और आँखें खोलीं...!
यहूदियों अरबों ईसाइयों
की आने वाली क़यामत
अभी फट तो नहीं पड़ी है
इस धरती के सर पर,
मगर इसी विस्फोट के लिए
प्राण-पन से
अमरीका
निरंतर अहर्निश
घोर अभ्यास कर रहा है !
तुम्हें ख़बर नहीं ?
तुम अपने...
अपने सुदूर
विद्रोही अवचेतन में
कौन से महाकाव्य की
मूक सर्जना करते रहे
नज़रुल,
जो तीन दुनियाओं के
उत्तंगतम थपेड़े तुम्हें
उठा नहीं पाए
तुम्हारी सहज समाधि से?
अब तुम उसी
मूक महाकाव्य के साथ
हमारी सबकी
प्यारी धरती में
सहज ही समाधिस्थ
हो गए हो
धरती को अपनी
चेतना से
अधिक उर्वरा
करने.

नहीं जानता अभी
इतिहास में क्या
गुल खिलेंगे
दाईं ओर से, बाईं ओर से
कि और उनके बीच से ...!
गुल
तूफ़ानों से भीगे
और बड़े गुठ्ठल और कड़े
जैसे मध्य अमरीका
के बयाबानों में होते हैं
कैक्टाई
कड़े नसों वाले कैक्टस
रंग बिरंगी
कठोर कांटेदार
सुर्ख़ और हरे और सफ़ेद
और हरे-नीलम से
निर्गंध चमत्कार-से.
और ... गुल
देशों-देशों के
आक्षांशों को
अपनी सुगंध से मस्त बनाते हुए
सुर्ख़ ग़ुलाबों का
एक उभरता दरिया
सुर्ख़ ग़ुलाबों के शिशु मुख
उल्लास से तमतमाए हुए
आनंद में नहाए हुए
अनेक ऊर्जाओं की
हारमनी से संगीतमय,
मानो
अपने नृत्य-दोल से
प्यारी मासूम
धरती को
उद्वेलित किए हुए.

दूर तक ग़ुलाबों का
एक ओर-छोरहीन दरिया
अरे नज़रुल!
... तुम हमारे बीच में
थे न अब तक
... मगर हमें तो
अब पता चला
कि तुम हमारे ही बीच में
थे अब तक:
तुम्हारी अतिशय-अतिशय
मध्यम-गुमसुम
तुम्हारा शान्त महाकाव्य
हमें बेमालूम तौर से
-- अपना सांस जैसे
सहज संगीत में
लिए हुए था
अब तक
और अब भी ...
क्या कोई अंतर आ गया है?
ग़ौर से देखो
अनुभव करो
क्या कोई अंतर
आ गया है?
जहां तुम थे
अब भी वहां हो
इस मौन में
अजब धूमधाम है
-- हां यह पहले नहीं
थी:
इस मूकता में
एक अजब बहार-सी है
तुम्हारे युगयुगीन
विद्रोही तराने की
--जो अभी सेपहले
इतनी आबोताब
लिए हुए नहीं था!

याद है, याद है
याद है,
गुरुदेव ने कहा था?
"भाई नज़रुल!
तुम्हारी विद्रोही संग्रह की;
पहली ही
कविता को
मैं लगातार तीन दिन तक
पढ़ता रहा
और उसी से
मेरे जिन गीतों ने
जन्म लिया है
उन्हें मैं तुम्हें
इस कारागृह में भेंट देने के लिए
स्वयं तुम्हारे सम्मुख
आ खड़ा हुआ हूं
इन्हें स्वीकार कर
मुझे धन्य करो!
तुम एशिया की महान शक्ति हो, भाई!"
और तुमने क्या कहा था
याद है?
"गुरुदेव,
तुम सचमुच गुरुदेव हो!"
एक महाकवि
कारा के बाहर
और एक कारा के भीतर:
तुम्हारी वाणी ने
दोनों के संगीतों को
--एक कारा के भीतर के
--एक बाहर के
--दोनों संगीतों के
स्वरों को
कहां केन्द्रीभूत कर दिया था!?
तुम्हारा मौन मुझे बहुत अखरता है!
बहुत भारी व्यंजना लगता है
बहुत स्थाई
... और फिर भी इतिहास
की धड़कन में चुपचाप
निरंतर बजता हुआ
मैं तुम्हें सुनता हूं
और देखता हूं
सरों की नोकीली काली हरी क़तारों में--
जहां भी धान का कोई
एक दाना है, वहां--
जहां भी कोई बात
"शोनार" और "शोणित" से
शुरू होगी
वहां तुम ही
अचल
सर झुकाए
एकटक सामने से
देखते
न देखते हुए
मूक
मौन
मुखर
तीनों भौतिक देशों
की आंतरिक एकता में
मुखर
अचल
मूक
लंबवत
आशीषवत
तीनों देशों के युद्ध
वैमनस्य
नाना योजनाओं के
परे
दृढ़, अचल,
एक-रूप जैसे कि ...
... हां अल्लाह एक है
जैसे कि
उसकी मख़लूक
यह प्यारी दुनिया
हम-तुम
एक हैं!
इस एकता को
अपनी भवों में उठाए
अपनी आंखों में
एक पवित्र सपने की तरह आंजे
बैठे हो
अब भी बैठे हो
हमारी आंखों के सामने
हमारे हृदय आज
ढाका की उस
पावन धरती पर
श्रद्धा और प्रेम के
फूल बन कर
अर्पित हो रहे हैं
चारों ओर से

कविर्मनीषी!
ओ हमारी
सोने की मिट्टी के प्राण!
ओ हमारे प्राणों के
अमर विद्रोही!
और हमारी विश्व-शंति के
अमर समायोजक!
--जो मौन मूक और
भुलाया हुआ-सा है
वही
हमारे साथ
सांस लेता भी रहा है
हम भी उसके साथ
बराबर निरन्तर
सांस लेते रहे हैं
और अब भी
उसकी सांस
हमारी सांस में
इतिहास बनती हुई
चल रही है!

2 comments:

Anonymous said...

बेहतरीन...

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही अच्छा।