Thursday, June 30, 2011

नायक बनने की हबड़तबड़ नहीं साधारण बने रहने की विनम्र ज़िद

कुमार अम्बुज के कहानी संग्रह 'इच्छाएं' का एक आकलन प्रस्तुत है. एक्सक्लूसिव कबाड़.


हिन्दी साहित्य का संसार कुमार अम्बुज को एक कवि के रूप में जानता है. कविता के लिए दिये जाने वाले तमाम सम्मान और पुरुस्कार उन्हें मिल चुके हैं. समय-समाज के विभिन्न ज़रूरी विषयों-मुद्दों पर कलम चला चुके और कुल चार कविता-संग्रह 'किवाड़'. 'क्रूरता' 'अनन्तिम' और अतिक्रमण' दे चुके कुमार अम्बुज की रचनाधर्मिता अपनी गहरी प्रतिबद्ध मूल्यनिष्ठा के लिए जानी जाती रही है. अब वे अपना पहला कहानी संग्रह ले कर आए हैं.

इस कहानी संग्रह 'इच्छाएं' की पहली कहानी 'हकला' अपने तरह का इकलौता अद्वितीय दस्तावेज़ है. एक हकले नायक (यदि नायकोचित परिभाषाएं उस पर लागू की जा सकती हों) का आत्मवृत्त पढ़ना वेदना के बिल्कुल नए संसार से गुज़रने की अनुभूति देता है. हकलापन देह में अवस्थित एक ऐसी विकलांगता है जो इस से ग्रस्त व्यक्ति को मानव-भाषा के उच्चारण के अनुपम अनुभव से वंचित करने के साथ ही शर्म, असहायता और विवशता के अंधेरे संसार में धकेल देता है.

अपनी विषयवस्तु को खोल रही कहानी एक तरह की कराह से शुरू होती है. घर पर हकले बच्चे की उपस्थिति से हकबकाए पिता का "क्षोभ भरा विलाप" और उसी क्रम में साथ-साथ नायक का पिटना और उसका क्रमशः "पक्के तौर पर" हकला हो जाना एक सघन नैराश्य का निर्माण करने वाली छवियां हैं. कहानी के विकसित होने का सिलसिला नायक द्वारा अपने हकलेपन के बेहद इन्टेन्स विवेचन के साथ जुड़ा हुआ है. उस के सवाल आपसे मुख़ातिब है: "अनगिन शब्दों ने मेरा गला घोंटा है, मेरे कण्ठ में वे फंसे पड़े हैं, और मेरी नींद में, मेरे सपनों में चुभते हैं. टूटे-फूटे शब्दों के कोने-किनारे, उनकी नोकें किस कदर तकलीफ़ देती हैं, मुझसे ज़्यादा कौन समझेगा?"

समय के साथ साथ नायक बोले जाने वाले शब्दों के संसार से तिरस्कृत महसूस करता हुआ लिखित शब्दों के संसार में प्रवेश करता है जहां शब्दों के साथ हकलेपन की कोई समस्या नहीं होती. साथ ही वह स्वीकार करता है कि इस तिरस्कार भरे संसार में बेज़ुबान पशुओं ने उसे मनुष्यों से अधिक प्रेम दिया - गाय के बछड़े, तोते, आवारा कुत्ते उसकी इस कहानी के बेहद ज़रूरी हिस्से हैं. वह कहता भी है: "वे सब मेरे अधूरे शब्दों को पूर्ण बनाते थे. मेरे अर्धउच्चारित शब्दों या अटक कर बोले गए वाक्यों का उन्होंने कभी अनादर नहीं किया."

प्रत्यक्ष रूप से किंचित हड़बड़ी में लिखे गए इस आत्मवृत्त के अन्तिम हिस्से में वह अपनी शैली को न्यायोचित ठहराता हुआ पाठक से कहता है कि उसे हकले का दर्द और उसकी व्याकुलता को समझते हुए यह जानना चाहिये कि "हकला न होना कितनी बड़ी नियामत है." मां से जुड़ी एक बचपन की स्मृति की याद के साथ समाप्त होने वाला यह वृत्त आपको हकबकाया छोड़ देता है और मांग करता है कि इसे एक सामान्य कहानी की तरह ट्रीट न किया जाए बल्कि दोबारा-तिबारा पढ़ा जाए और हैरत की जाए. कई अर्थों में यह एक असाधारण कहानी है. शिल्प की दृष्टि से जैसी कि इसकी मांग थी, कुमार अम्बुज ने करीब छः पृष्ठों की इस कहानी को एक पैराग्राफ़ में लिखा है. इस से कहानी की गति कभी थमती या अटकती नज़र नहीं आती और अटक अटक कर बोलने की जन्मजात आदत से मजबूर हकले को एक बेहद मजबूत और संवेदनशील चरित्र प्रदान करने में सहायता मिली है.

यह कहानी एक तरह से इस संग्रह की प्रतिनिधि कहानी होने का दर्ज़ा रखती है और निस्संदेह एक बड़ी उपलब्धि है. 'हकला' कहानी के साथ ही कुमार अम्बुज अपने कहानीकार की विशिष्ट शैली को स्थापित कर देते हैं और संग्रह की दूसरी कहानी 'मां रसोई में रहती है' में और भी मुखर होकर सामने आते हैं. भारतीय मध्यवर्ग के परिवारों की धुरी को सदियों से मजबूती के साथ थामे अडिग खड़ी माताओं की जिजीविषा का बहुत संवेदनशील चित्र इस कहानी में देखने को मिलता है.

संग्रह की कहानियों की विषयवस्तुएं इस कदर भिन्न्ता लिये हुए और अनूठी हैं कि उनमें से हर एक के बारे में लिख पाना यहां सम्भव भी नहीं है और सम्भवतः उचित भी नहीं होगा. विभिन्न तरीकों से इस क्रूर संसार में अपनी उपस्थिति को भरसक अर्थपूर्ण और संवेदनापूरित बनाए रखने के बेहद मुश्किल उद्यम में लगे भारतीय मध्यवर्ग का बहुत ही सामयिक और महत्वपूर्ण दस्तावेज़ीकरण इस तमाम कहानियों की खूबी है. नौकरियां, बीमारियां, परिवार, दफ़्तर, लोगबाग इन कहानियों के केन्द्र में हैं और उनमें नायक बनने की हबड़तबड़ नहीं साधारण बने रहने की विनम्र ज़िद दिखाई देती है.

यह संग्रह मानव जीवन की साधारणता का महान कोरस है जिसमें बग़ैर अधिक लाग लपेट के, बिना किसी साहित्यिक चमत्कार की कामना के, एक ज़रूरी और विरल तत्व का ईमानदार संधान किया गया है.

लम्बी कहानी 'संसार के आश्चर्य' का उपशीर्षक बहुत रोचक है: "जो विस्मित नहीं हो सकते, वे अधूरे मनुष्य हैं". इस कहानी के ठीक पहले वाली कहानी 'सनक' रत्तियां बेचने वाले, कविताओं की पंक्तियां इकठ्ठा करने वाले और फ़िलहाल जुगनू पालने का काम शुरू कर चुके एक ऐसे ही अधेड़ सेल्समैन का किस्सा है, जो अपने हर वाक्य से हमें विस्मय में डालता है.

'संसार के आश्चर्य' में लेखक अपने तीन यात्रा वृत्तान्त सुनाता है जिनमें वह जैसा कि शीर्षक से जाहिर है, संसार के आश्चर्यों की उसकी यात्राओं के विवरण दर्ज़ हैं. बदलते समाज, बदलती चिन्ताओं और उनकी जटिल विद्रूपताओं और उनकी खूबसूरत बारिकियों को किसी खिलंदड़े दार्शनिक की सी नज़र से देखा गया है. कहानी की शैली दिलचस्प भी है और अतीव मनोरंजक भी. कहानी की दरकार है कि उसके वाक्यों-शब्दों की सतह को खुरचकर उस के अन्दर प्रविष्ट हुआ जाए. आख़िर में एक जगह लिखा गया है: "पर्यटक होना भी मुश्किलों और पागलपन का पुलिन्दा हो जाना है. इतना तो आप भी समझ गए होंगे. पर्यटक अपने आप को असाधारण समझते हैं और शेष दुनिया उन्हें असामान्य मानती है. ... मेरी तरह आप भी सांसारिक व्याधियों और विपन्नता में फंसे हुए हैं, लेकिन फिर भी मैं कहूंगाकि आप थोड़ा सा समय, कुछ पैसा और उत्साह लेकर 'संसार के आश्चर्यों' की यात्रा ज़रूर करें. जितनी जगहों पर जाना मुमकिन हो, उतना ही सही."

'एक दिन मन्ना डे' और 'पीतल का अदमी' भी ऐसी ही कहानियां है जो बताती है कि बाहर से बेहद एकांगी दिखाई देने वाला मानव-संसार दरअसल हमें लगातार विस्मित करते जाने वाले तत्वों और चरित्रों से भरपूर है. और दिखाई देने वाले संसार के भीतर का यह संसार देख पाने के लिए किसी जादू की ज़रूरत नहीं होती. बस अपने आसपास की चीज़ों के प्रति थोड़ा अधिक सजग, थोड़ा अधिक संवेदनशील होना होता है.

फ़्रांज़ काफ़्का से लेकर ज्ञानरंजन तक लेखकों द्वारा पिताओं को लेकर दुनिया भर के साहित्य में बहुत सारा गद्य लिखा गया है - 'मुश्किल' और 'कहना-सुनना' शीर्षक कहानियां इस विषय पर नई दृष्टि डालती हैं. खास तौर पर 'कहना-सुनना' कहानी में क्रमशः वयस्क और अधेड़ होते पुत्र और बूढ़े होते पिता के सम्बन्धों के बीच पसर जाने वाले रेगिस्तान को कुमार अम्बुज किसी तटस्थ और उस्ताद करीगर की बारीक निगाह से उधेड़ देने का जोखिम उठाते हैं.

घर के छोटे बच्चे को हो गई टीबी को लेकर एक पिता की चिन्ताओं, चिकित्सकों द्वारा सुरक्षित उपचार के बाबत आश्वस्त कर दिये जाने के बावजूद पत्नी से इस बात को छिपाने की जद्दोजहद और एक छोटे से घर की छोटी सी ज़िन्दगी के भीतर बहुत संवेदनशीलता के साथ झांका गया है 'ख़ुशी' शीर्षक कहानी में.

किताब के ब्लर्ब पर जितेन्द्र भाटिया का कथन है: "अव्वल तो ये कहानियां फ़ॉर्म के किसी पूर्वनिर्धारित ढांचे में सीमित किये जाने की मोहताज नहीं हैं और न ही इन्हें अम्बुज के मुकम्मल, सुपरिचित कवि संसार का महज विस्तार या उसका स्वाद बदलने वाला 'बाई प्रोडक्ट' माना जा सकता है. इस कथन के परिप्रेक्ष्य में 'बारिश' कहानी का ज़िक्र करना आवश्यक लगता है.

'बारिश' एक काव्यात्मक कहानी है. दरअसल यह कहानी एक मुकम्मिल कविता है और जब कुमार अम्बुज "अपनी बारिश" का ज़िक्र करते हैं तो लगता है कि बताना चाह रहे हैं कि ये कहानियां मेरी "अपनी" हैं - ये तमाम कहानियां बेशक एक कवि ही लिख सकता था, जिसकी अभिव्यक्ति के संसार को सचमुच ही किसी बने-बनाए सांचे के बरअक्स नहीं देखा जा सकता और देखा जाना चाहिये भी नहीं. इस तरह के कई मायनों में यह संग्रह न सिर्फ़ महत्वपूर्ण माना जाना चाहिये, कुमार अम्बुज की तरफ़ से आगे के दिनों में आने वाले साहित्य की समृद्ध विविधता की तरफ़ इशारा भी करता है.

'बारिश' कहानी के शुरू में भूमिका तैयार करते हुए कुमार अम्बुज लिखते हैं:
"जानता हूं कि बारिश को ठीक-ठाक पूरा-पूरा किसी कविता में भी नहीं लिखा जा सकता. कहानी में तो कतई नहीं. वह गद्य के स्पर्श भर से स्थूल हो जाएगी. या हो सकता वह विवरण के किसी रेगिस्तान में ही विलीन हो जाए. जबकि उसके हर अंग से बारिश होती है. उन अंगों से भी जो मृत कोशिकाओं से बने हैं. उसके नाख़ूनों से. उसके रोओं से. और पलकों से. ..."

इतना लिख चुकने के बाद वे बारिश के बारे में लिखते जाने का जोखिम उठाते हैं और उसके विविध प्रत्यक्ष-परोक्ष आयामों से आप को रू-ब-रू कराते चलते हैं. गाब्रीएल गार्सिया मारकेज़ की कहानी 'वॉचिंग इट रेन इन माकोन्दो' में अनवरत बारिश को देखती हुई ईसाबेल को कभी कभी जैसा महसूस होता रहता है, कुछ कुछ वैसा ही इस कहानी के कुछ हिस्सों में देखने को मिलता है. इस विकट कविता-कहानी या कहानी-कविता का अन्त इन पंक्तियों से होता है :

"अब उसने दूसरी सारी आवाज़ों को आग़ोश में ले लिया है.
दसों दिशाओं से बारिश की आवाज़ आती है.
उसने हर दृश्य को ढांप लिया है.
अब सब तरफ़ सिर्फ़ बारिश है.
मेरी बारिश."

(इच्छाएं, कहानी-संग्रह, लेखक: कुमार अम्बुज, भारतीय ज्ञानपीठ, रु. ११०)

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

सरल बने रखने की जिद हमारी भी है।