Sunday, August 21, 2011

एक युवा कवि को पत्र -1 - रेनर मारिया रिल्के


"एक युवा कवि को पत्र" रेनर मारिया रिल्के के लिखे दस ख़तों का संग्रह है. ये ख़त जर्मन सेना में भर्ती होने का विचार कर रहे फ़्रान्ज़ काप्पूस नामक एक युवा को सम्बोधित हैं. काप्पूस १९ का था जबकि रिल्के २७ का जब यह पत्रव्यवहार शुरू हुआ. काप्पूस ने अपनी कविताएं रिल्के को भेजीं और उनसे साहित्य और करियर की बाबत चन्द सवालात पूछे. यह पत्रव्यवहार १९०२ से १९०८ तक चला.

१९२९ में रिल्के की मौत के बाद काप्पूस ने इन पत्रों को एक किताब की सूरत में छपाया. ये पत्र अब विश्व साहित्य की सबसे चुनिन्दा धरोहरों में शुमार होते हैं.

पढ़िए इस श्रृंखला का पहला पत्र -


पेरिस
१७ फ़रवरी १९०३

प्रिय श्रीमान,

आपकी चिठ्ठी कुछ ही दिन पहले पहुंची. आपने मुझ में जो आत्मविश्वास जताया है उसके लिए मैं आपको धन्यवाद कहना चाहता हूं. मैं इतना ही कर सकता हूं. मैं आपकी कविताओं पर बहस नहीं कर सकता; क्योंकि ऐसा कोई भी प्रयास मेरे लिए अजनबी होगा. कोई भी चीज़ किसी कलाकृति को उतना कम स्पर्श नहीं कर सकती जितना आलोचना के शब्द: उनकी वजह से आमतौर पर हमेशा भाग्यशाली ग़लतफ़हमियां हुआ करती हैं. चीज़ें इतनी मूर्त और कथनीय नहीं हुआ करतीं जितना लोग हमसे यक़ीन करने को कहते हैं; ज़्यादातर अनुभव अकथनीय होते हैं, वे एक ऐसे शून्य में घटते हैं जहां कोई भी शब्द कभी भी प्रविष्ट नहीं हुआ होता, और बाक़ी सारी चीज़ों से ज़्यादा अकथनीय होती हैं कलाकृतियां, वे रहस्यमय अस्तित्व जिनका जीवन हमारे क्षुद्र और नाशवान जीवन से परे बना रहता है.

प्रस्तावना के तौर पर इस नोट के साथ, क्या मैं आपको बता सकता हूं कि आपकी कविताओं की कोई अपनी शैली नहीं है, अलबत्ता उनमें किसी व्यक्तिगत चीज़ की ख़ामोश और प्रच्छन्न शुरुआतें अवश्य हैं. मैं अन्तिम कविता, "मेरी आत्मा" में इसे सब से अधिक स्पष्टता के साथ महसूस करता हूं. यहां, आपकी कोई अपनी चीज़ शब्द और लय बनने की कोशिश कर रही है. और उस प्यारी सी कविता "लेओपार्डी के लिए" में उस महान, एकाकी आकृति के साथ एक तरह का सम्बन्ध शायद उभरता है. जो भी हो, ये कविताएं अभी अपने आप में कुछ भी नहीं हैं, कोई भी स्वतन्त्र चीज़, अन्तिम वाली और लेओपार्डी वाली भी. आपके उदार पत्र ने जो इनके साथ था, आपकी कविताओं को पढ़ते हुए मुझे उनमें विविध दोषों को स्पष्ट करने में सहायता की, अलबत्ता मैं उन्हें ख़ास तौर पर चिह्नित करने में असमर्थ हूं.

आपने पूछा है कि क्या आपकी कविताएं किसी भी लायक हैं. आप ने मुझ से पूछा है. आप पहले भी दूसरों से यह बात पूछ चुके हैं. आप उन्हें पत्रिकाओं में भेजा करते हैं. आप उनकी तुलना दूसरी कविताओं से करते हैं और जब कोई सम्पादकगण आपके काम को अस्वीकार कर देते हैं तो आप परेशान हो जाते हैं. अब (चूंकि आपने कहा है कि आप को मेरी सलाह चाहिए) मैं आपसे भीख मांगता हूं कि इस तरह का काम करना बन्द कर दें. आप चीज़ों को बाहर से देख रहे हैं और इस वक़्त आपने ठीक यही करने से बचना चाहिए. कोई भी आपको सलाह नहीं दे सकता न आपकी मदद कर सकता है - कोई भी नहीं. आपने सिर्फ़ एक काम करना चाहिए. अपने भीतर जाइए. उस कारण को खोजिए जो आपको लिखने का आदेश देता है; ढूंढिए कि क्या उसने अपनी जड़ें आपके दिल की गहराइयों तक फैला ली हैं या नहीं; अपने आप से स्वीकार कीजिए कि अगर आपको लिखना निषिद्ध कर दिया जाए तो क्या आपको मर जाना होगा. और सबसे ज़रूरी; अपनी रात के सबसे शान्त क्षणों में अपने आप से पूछिए - क्या मुझे लिखना चाहिए? एक गहन उत्तर के लिए अपने आप को खोदिए. और अगर यह उत्तर सहमति में गूंजता है, अगर इस गम्भीर प्रश्न का सामना एक मज़बूत और साधारण "हां" से होता है तो अपने जीवन का निर्माण इस आवश्यकता के अनुसार कीजिए, अपने सम्पूर्ण जीवन का, आपके सबसे विनम्र और बेपरवाह क्षणों ने भी इस आवेग का संकेत और उसका गवाह बनना चाहिए. उस के बाद प्रकृति के नज़दीक जाइए. उसके बाद, जैसे किसी ने भी पहले कोशिश न की हो, उसे कहने की कोशिश कीजिए जो आपको दिखता है, जिसे आप महसूस करते हैं और प्रेम करते हैं और खो देते हैं. प्रेम कविताएं मत लिखिए; उस तरह के प्रारूपों से बचिए क्योंकि वे बहुत सहज और साधारण होते हैं; उनके साथ काम करना सबसे मुश्किल होता है और उसके लिए एक महान पूर्णतः विकसित शक्ति चाहिए होती है ताकि कुछ ऐसा व्यक्तिगत रचा जा सके जिसमें अच्छी और यहां तक कि शानदार परम्पराओं का प्रचुर अस्तित्व होता है. सो अपने आप को इन आम विषयवस्तुओं से बचाइए और उस बारे में लिखिए जो रोज़मर्रा का जीवन आपके सामने प्रस्तुत करता है; अपने दुःखों और इच्छाओं का वर्णन कीजिए, अपने मस्तिष्क से हो कर गुज़रने वाले विचारों और किसी क़िस्म के सौन्दर्य पर अपने विश्वास का वर्णन कीजिए. दिल से महसूस की गई ख़ामोश और विनम्र ईमानदारी के साथ इन सब का वर्णन कीजिए, और जब आप अपने को अभिव्यक्त कर रहे हों, अपने आसपास की चीज़ों, अपने स्वप्नों की छवियों और याद रह गई वस्तुओं का इस्तेमाल कीजिए. अगर आपकी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी दीनहीन लगती है तो उस पर दोष मत मढ़िए; दोष ख़ुद पर मढ़िए, स्वीकार कीजिए कि आप पर्याप्त रूप से कवि नहीं हैं कि जीवन की दौलत का आह्वान कर सकें; क्योंकि सर्जक के लिए न ग़रीबी होती है न कोई दीनहीन, मामूली जगह. और अगर आप अपने आप को किसी कारागार में पाते हैं जिसकी दीवारों से दुनिया का एक शब्द भी भीतर नहीं आ सकता - क्या तब भी आप के पास अपना बचपन नहीं होगा, किसी भी क़ीमत से परे वह नगीना, स्मृतियों का वह खज़ाना? अपना ध्यान उस तरफ़ मोड़िए. कोशिश कीजिए इस विशाल भूतकाल की कुछ डूब चुकी भावनाओं को जगाने की, आपका व्यक्तित्व और भी मज़बूत होता जाएगा, आपका एकान्त फैलता जाएगा और एक ऐसी जगह बन जाएगा जहां आप गोधूलि में रह सकते हैं, जहां सुदूर कहीं दूसरे लोगों की ध्वनियां गुज़रती हैं. और अपने भीतर मुड़ने औए अपने ख़ुद के संसार में डूबने से कविताएं बाहर निकलती हैं तो आपको किसी से पूछने की ज़रूरत नहीं होगी कि वे अच्छी हैं या नहीं. न ही आप पत्रिकाओं में इन कृतियों के प्रति दिलचस्पी पैदा करने की कोशिश करेंगे : क्योंकि आप उन्हें अपनी प्रिय नैसर्गिक सम्पत्ति के रूप में देखेंगे, आपके जीवन का एक हिस्सा, उस से निकली एक आवाज़. कोई भी कलाकृति अच्छी होती है अगर उसकी रचना किसी आवश्यकता के कारण हुई हो. उस पर किसी भी तरह का निर्णय लेने का यही इकलौता तरीक़ा है. सो, प्रिय मान्यवर, मैं इस के सिवा आप को कोई सलाह नहीं दे सकता - अपने भीतर जाइए और देखिए वह जगह कितनी गहरी है जहां से आपका जीवन प्रवाहित होता है; उस के मुहाने पर आपको इस प्रश्न का उत्तर मिलेगा कि आपने रचना करनी चाहिए या नहीं. उस उत्तर को स्वीकार कीजिए, जैसा वह आपको दिया जाए, बग़ैर उसकी व्याख्या करने की कोशिश किए हुए. शायद आप पाएंगे कि आप को एक कलाकार बनने का आदेश दिया जाए. तब उस नियति को धारण कीजिए और उसके बोझ और उसकी महानता को ढोइए, बिना एक बार भी यह पूछे कि बाहर से आपको क्या पुरुस्कार मिल सकता है. क्योंकि सर्जक को अपने लिए अपना पूरा संसार होना चाहिए और उसने हरेक चीज़ ख़ुद में खोजनी चाहिए या प्रकृति में, जिसके लिए उसका पूरा जीवन समर्पित होता है

लेकिन अपने भीतर और अपने एकान्त में उतरने के बाद शायद आपको कवि बनने का विचार त्याग देना होगा (अगर, जैसा मैंने कहा है, आपको लगता है कि आप लिखे बग़ैर रह सकते हैं, तो आपने क़तई नहीं लिखना चाहिए). अलबत्ता इस आत्म-अन्वेषण से जो मैं आपसे करने को कह रहा हूं, ऐसा नहीं कि आपको कुछ भी नहीं मिलेगा. वहां से आपका अन्तर तब भी अपने रास्ते खोज लेगा जो अच्छे, सम्पन्न और चौड़े हो सकते हैं जैसा कि मैं आपके लिए आपके लिए कामना करता हूं

और मैं आपको क्या बता सकता हूं? मुझे ऐसा लगता है कि हर चीज़ का एक यथायोग्य प्रभाव होता है; और अन्त में मैं एक छोटी सी सलाह देना चाहूंगा - आप खामोशी से और ईमानदारी से अपना विकास करते रहें, अपने सम्पूर्ण विकास से, जिसे आप अधिक हिंसात्मक तरीके से बाधित नहीं कर सकते बजाए बाहर की तरफ़ देखने और उन प्रश्नों के बाहर से आने वाले उत्तरों की प्रतीक्षा करने के, जिन्हें सम्भवतः आपके सबसे शान्त पलों में केवल आपकी अन्तरतम भावना दे सकती है.

आपके पत्र में प्रेफ़ेसर होरासेक का नाम देखना मेरे लिए सुखद था. उस उदार, पढ़े-लिखे व्यक्ति के लिए मेरे भीतर बड़ी श्रद्धा है और एक कृतज्ञता जो वर्षों से बनी हुई है. क्या आप उन्हें मेरी भावनाएं बता पाएंगे; मेरे बारे में उनका अब भी सोचना बहुत अच्छा है और मैं इस बात की कद्र करता हूं

जो कविता आपने मुझे सौंपी थी, मैं वापस आपको लौटा रहा हूं. और मैं आपके प्रश्नों और सच्चे विश्वास के लिए धन्यवाद कहता हूं, जिसके लिए, हरसम्भव ईमानदारी से उत्तर देकर, एक अजनबी के तौर पर मैंने अपने को उस से थोड़ा और क़ाबिल बना लिया है जैसा मैं वास्तव में हूं.

आपका

रेनर मारिया रिल्के

2 comments:

Swapnrang said...

na jaane kitni baar padha hai is patr ko aagy bhi jaha mil jaayaga padhti rahungi.baaki patro ka intzar rahega.

Raghav Dutt said...

Sukhad hai ye