Sunday, December 18, 2011

कैर-सांगरी चिंतन

पेड़ों के पास है यहाँ

सिर्फ इतना ही हरापन

कि पौंछा जा सकता है जिसे

ऊँगली के पोर से.

त्याग देतें हैं पेड़ इसे भी

थोड़े और बुरे मौसम में

बची रहती है हरीतिमा फिर

उनकी स्मृतियों में ही.

गर्मियों में

झाड़ियाँ सहेजती हैं सिर्फ

शूल की नोक भर आर्द्रता

और आत्मा में

पानी का एकाध अणु

इस धूसर विस्तार में

सब कुछ सूखा सूखा

और भुरभुरा है

बावजूद इसके यहाँ

हमेशा के लिए खत्म नहीं होता

सब कुछ

ये एक लंबी ग्रीष्म निद्रा सा है

जिसमें अगर जागने की संभावना न मानें

तो भी

फिर से ज़िंदा होने की तो

बची ही रहती है.

सब कुछ पानी में भी

जीवित नहीं रह पाता

और न मर पता है

उसके बिना भी.

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सांगरी रेगिस्तान के जीवट का मूर्त रूप है.ये खेजड़ी के पेड़ पर लगने वाली फलियाँ हैं, जिन्हें सुखा कर लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है.और कभी भी सब्ज़ी के तौर पर खाया जा सकता है. पर अगर खेजड़ी पास में है तो इन्हें पेड़ से तोड़कर उसी वक्त भी सब्ज़ी बना कर खाया जा सकता है,जाता रहा है.पर शर्त ये है कि ये कच्ची हों तभी सब्ज़ी में काम आ सकती है. पकी हुई तो खैर सीधे ही खाई जा सकती है,पर वो अलग मामला है.

बचपन में घर के पास खेजड़ी का पेड़ था. समाज के सामुदायिक भवन परिसर में उगा हुआ ख़ूब बड़ा और लदा फदा.वक्त आने पर उसमें ख़ूब फल आते और पक कर गिरते.जिन्हें हम बटोर कर खाते. ये तब की बात है जब घर महल्लों में इस तरह के पेड़ पौधो को बड़े लाड प्यार से बर्दाश्त किया जाता था.

तो खैर,कच्ची सांगरी के लिए इन्हें पेड़ पर थोड़ा चढ़कर तोड़ना होता था क्योंकि एक तो उस पेड़ ने खासी ऊँचाई पकड़ रखी थी दूसरे उसकी डालियाँ नीचे से पहुँच में नहीं थीं.मैं कोई आठेक साल का ही था और पड़ौस से किसीने कहा कि रोज़ इस पेड़ के आसपास ही दिखते हो तो कुछ कच्ची सान्गरियाँ तोड़ लाओ.मैं मना नहीं कर पाया पर जानता था कि पेड़ पर चढ़ने का अभ्यास नहीं हैं.जैसे तैसे चढ़ने लगा और मेरे लिहाज से कुछ ज्यादा ही ऊपर तक पहुच गया. पेड़ के रूखे वल्क की असंख्य दरारों से मकोड़े हाथ और पाँव पर चढ़ने लगे. त्वचा पर उनकी सूक्ष्म हरकत से आत्मा तक में सरसराहट महसूस होने लगी.नीचे उतरना ही एकदम उचित था,पर जब ऊपर से धरती पर नज़र डाली तो इतनी ऊँचाई से चक्कर आने लग गए.वो चरम अकेलेपन के क्षण थे,जब ईश्वर भी नदारद था.

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कम से कम मारवाड़ के शहरों और कस्बों में इन दिनों सुखाई हुई कैर-सांगरी की सब्ज़ी अवसर विशेष पर या शीतला सप्तमी के दिन जिस दिन ठंडा खाने की प्रथा है को ही बनाई जाती है.

ये सब्ज़ी मंडी में कम किराणा स्टोर्स पर सूखे रूप में पैकेट्स में बहुतायत से और महंगे दामों में मिलती है, पर इसकी शेल्फ लाइफ अच्छी खासी होती है.

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कैर सांगरी कूमटिया की सब्ज़ी बनाने की विधि- (पत्नी के बताए अनुसार)

सामग्री-

कैर(रेगिस्तान की जंगली झाडी से प्राप्त बेरी का प्रकार)- १०० ग्राम

सांगरी५० ग्राम

कुमटिया(कूमट के पेड़ से प्राप्त छोटे छोटे चपटे आकार में)- ५० ग्राम

सूखे अमचूर के टुकड़े- २-३

किशमिश-१०० ग्राम

मसाले( स्वाद अनुसार)-

लाल मिर्च पाउडर, नमक, हल्दी पाउडर, धनिया पाउडर

तड़का- तेल,राइ,ज़ीरा,सौंफ,तेज पत्ता, हींग.

उपरोक्त सूखी सब्ज़ियों को ४-५ घंटों तक भिगो कर रखें.किशमिश को अलग बर्तन में भिगोएँ.फिर इन्हें साफ़ पानी से दो बार धो लें और कुकर में थोड़े पानी के साथ इन्हें(किशमिश को छोड़कर)डालकर दो सीटी लगाएं.ठंडा होने पर पानी से इन्हें निकाल लें. सभी बताए गए मसालों का थोड़े पानी में गाढा घोल बना कर रखिये. अब एक पैन में तेल गरम रखिये.राइ ज़ीरा हींग सौंफ और तेजपत्ता डालिए.उसके बाद मसालों का घोल तडके में डालिए और अच्छी तरह तब तक हिलाइये जब तक तेल ऊपर आ जाए.अब पहले उबली सब्जियां पानी पूरी तरह निकाल कर डाल दीजिए फिर किशमिश को पानी हटा कर डालिए.थोड़ी देर कुडछी चलाइए. ऊपर से थोड़ी शक्कर मिलाइए.

गरमा गरम सब्ज़ी तैयार है.

4 comments:

Vandana Ramasingh said...

चिंतन प्रभावी है और कैर सांगरी की सब्जी बनाने की विधि के लिए धन्यवाद

Ek ziddi dhun said...

pahle kavita ka aur phir gady ka lutf chal hi raha tha ki कैर सांगरी कूमटिया की सब्ज़ी banane ki vidhi aa gaii. to ab is sabzi ko khilane ki jimmedari bhi apki ban gaii hai. post achhi lagi.

sanjay vyas said...

धीरेश जी ये ज़िम्मेदारी सहर्ष शिरोधार्य है.साथ ही इन सूखी सब्ज़ियों का एक पैकेट भी आपके लिए रहेगा ताकि उक्त रेसीपी आप को आप भी आजमा सकें:)

शुक्रिया.

अजेय said...

खेजड़ी की एक और खासियत का पता चला..... सच मुच यह रेगिस्तान का कल्प वृक्ष है. एक पेकेट मेरे लिए भी :) बेहतरीन पोस्ट !