Sunday, January 15, 2012

भूल रहा हूँ वनस्पतियों की संज्ञा

निज़ार क़ब्बानी (21 मार्च 1923- 30 अप्रेल1998) की कविताओं के अनुवाद आप 'कबाड़ख़ाना' के अतिरिक्त कई अन्य  वेब ठिकानों और हिन्दी की कुछ प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं में पढ़ चुके हैं। सीरिया के इस बड़े कवि को हिन्दी  कविता के प्रेमियों की बिरादरी में पसंद किया गया है। आज प्रस्तुत है उनकी एक और कविता :



निज़ार क़ब्बानी की कविता
वर्षा उत्सव
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

किसी एक ठाँव ठिकाना नहीं मेरा
अप्रत्याशित है मेरा हाल मुकाम
एक पागल मछली की मानिन्द दूर तलक की है मेरी यात्रा
मेरे रक्त में ज्वाल है
चिंगारियाँ हैं मेरी आँखों में।

अन्वेषण कर रहा हूँ समीरण की स्वतंत्रता का
वश में कर लिया है अपने भीतर के घुमंतुओं को
दौड़ रहा हूँ हरिताभ मेघों के पीछे
अपनी आँखों से पी रहा हूँ हजारों छवियों को
अग्रसर हूँ यात्रा के अंतिम पड़ाव तक की यात्रा पर।

जलयात्रा पर हूँ एक दूसरे अंतरिक्ष की ओर
उठ रहा हूँ गर्द - गुबार से
भूल रहा हूँ अपना नाम
भूल रहा हूँ वनस्पतियों की संज्ञा
वृक्षों का इतिहास
उड़ान भर रहा हूँ सूर्य से
वहाँ की ऊब थकाने लगी है अब
भाग रहा हूँ नगरों- बस्तियों से
शताब्दियाँ बीत गईं  सोया नहीं
चंद्रमा के पदतल में।

अपने पीछे छोड़ रहा हूँ
कँचीली आँखे
पथरीला आकाश
अपना पैतृक वास -  स्थान
मुझे सूर्य की ओर लौट चलने के लिए न कहो
क्योंकि अब मैं सम्बद्ध हूँ बारिश के उत्सव संग।
--
( चित्र : जोआन मीरो की कलाकृति)

4 comments:

vidya said...

बहुत बढ़िया...
शुक्रिया.

प्रवीण पाण्डेय said...

आपका अनुवाद कवि के भावों को यथावत लाने में सक्षम है।

दीपिका रानी said...

एक अच्छी रचना को हम तक पहुंचाने के लिए धन्यवाद।

अरुण चन्द्र रॉय said...

बढ़िया अनुवाद