Saturday, January 28, 2012

नए तिब्बत की कविता - ६


तिब्बतपन

तेनजिन त्सुंदे

निर्वासन के उन्तालीस साल.
तो भी कोई देश हमारा समर्थन नहीं करता.
एक भी देश तक नहीं!

हम यहाँ शरणार्थी हैं.
खो चुके एक देश के लोग.
किसी भी देश के नागरिक नहीं.

तिब्बती - दुनिया की सहानुभूति के पात्र;
शांत मठवासी और जिंदादिल परम्परावादी;
एक लाख और कुछ हज़ार
अच्छे से घुले-मिले हुए
आत्मसात कर लेने वाले तमाम सांस्कृतिक आधिपत्यों में.

हरेक चेक-पोस्ट और दफ्तर में
मैं एक "भारतीय - तिब्बती" हूँ.
मुझे हर साल अपना रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट
रिन्यू करना होता है एक सलाम के साथ -
भारत में जन्मा एक शरणार्थी.

मैं भारतीय अधिक हूँ.
सिवा अपने चपटे तिब्बती चेहरे के.
"नेपाली?" "थाई?" "जापानी?"
"चीनी?" "नागा?" "मणिपुरी?"
कोई नहीं पूछता - "तिब्बती?"

मैं तिब्बती हूँ.
अलबत्ता मैं तिब्बत से नहीं आया.
कभी गया भी नहीं वहां.
तो भी सपना देखता हूँ
वहां मरने का.

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

साम्राज्यों की चूल हिलेगी, तब तिब्बत जी पायेगा।

अजेय said...

कविता के रहस्य को मिल गया शांति का नोबेल पुरस्कार.

मुनीश ( munish ) said...

किसी देश का दर्द तिब्बत से बड़ा नहीं है । लेकिन उन्हें कोई नहीं पूछता । सब चीन की चौधराहट के आगे कंपायमान हैं । यानि जिसकी लाठी उसी की भैंस ।

jagdish said...

Lajawab