Monday, February 27, 2012

एक असंभव आह्लाद की दहलीज पर खड़े होने के क्या मायने हैं

उस्ताद का गायन एक असमाप्त सभा है सुशोभित सक्तावत
मैहर घराने के सितार वादक पं. निखिल बैनर्जी उस घटना को ताउम्र नहीं भूले। 1950 के दशक का उत्तरार्ध रहा होगा। वे एक संगीत सभा में अपने अग्रज गुरुभाई पं. रविशंकर का सितार वादन सुनकर लौट रहे थे कि तभी हवा में तैरती एक आवाज सुनकर ठिठक गए। एक अनसुना-सा राग और एक अप्रतिम गहन-गंभीर स्वर।

कुछ ऐसा ही, जिसे कीट्स ने ‘फुल थ्रोटेड ईज’ कहा है। वे सभा में लौट आए। वह कर्नाटकी संगीत का राग अभोगी कानड़ा था, जिसे किराना घराने के उस्ताद अब्दुल करीम खां ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में प्रचलित कर दिया था। और गाने वाले थे अब्दुल करीम खां साहब के उत्तर-स्वर उस्ताद अमीर खां। उस्ताद अमीर खां का गाना सुनकर ठिठक जाने वाले पं. निखिल बैनर्जी अकेले नहीं थे। वे उस सम्मोहन के अकेले साझेदार नहीं थे।

 उस्ताद अमीर खां के स्वर की राग-दीप्ति ही कुछ ऐसी है। उन्हें सुनते हुए हमेशा मन में एक दीर्घ व्यक्तित्व की छवि बनती है। उन्हें सुनते हुए हमेशा पहाड़ याद आते हैं। वे सुरों के सुमेरु हैं। मेरुखंड गायकी की मेखला के विराट धारक। उस्ताद को सुनते हुए इंदौर एक शहर नहीं घराना है।

 उत्तरप्रदेश का किराना और मध्यप्रदेश का इंदौर। भूगोल कहता है कि इन दो जगहों के बीच सैकड़ों मील की दूरी है, लेकिन संगीत की दुनिया में ये दो जगहें नहीं, एक-दूसरे से परस्पर अंत:क्रिया करते दो शुद्ध स्वर हैं। षड्ज और पंचम। एक वादी, दूसरा सम्वादी।

 किराना में ही उस्ताद अब्दुल करीम खां जन्मे, यहीं उस्ताद अब्दुल वहीद खां ने सुर साधा और यहीं किराना घराने की जगविख्यात खयाल गायकी का ठाठ जमा। कोमल स्वराघात और धीमी बढ़त का भद्र सौंदर्यपरक गायन। यूं तो उस्ताद अमीर खां इंदौर घराने के हैं, लेकिन किराना घराने वाले उन्हें अपना मानते हैं।

 अलबत्ता अमीरखानी गायकी का सम्मोहन किसी एक स्वर वैशिष्ट्य से निर्मित नहीं हुआ था। उसमें उस्ताद अब्दुल वहीद खां सरीखी विलंबित लय है, उस्ताद रजब अली खां सरीखी तानें हैं और उस्ताद अमान अली खां सरीखी मेरुखंड शैली है। बंबई के भिंडीबाजार घराने के अमान अली खां का गाना अमीर खां ने उनके घर के बाहर खड़े होकर सुन-सुनकर सीखा था। इन अर्थो में वे संगीत की श्रुति परंपरा के भी संवाहक हैं।

 हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन के स्थापत्य और सौंदर्यशास्त्र के बारे में बात करते समय यह याद रखना चाहिए कि यह संगीत उस आदिम संसार से आता है, जो कंठ की कंदराओं में बसा है। अर्थध्वनियां उसके सिंहद्वार पर ठिठकी रहती हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन अनहद का आलाप है, जो समूचे अस्तित्व के मंद्रसप्तक से उठकर आता है। गायन में सम पर आमद किसी प्रतिक्रमण से कम नहीं, षड्ज पर विराम परिनिर्वाण से कम नहीं और अमीर खां की गायकी में ये तत्व पूरी धज के साथ मौजूद हैं।

 उस्ताद बड़े गुलाम अली खां अगर ठुमरी के सम्राट थे तो अमीर खां खयाल के सिरमौर। बड़े खां साहब का गायन अगर संबोधन था तो अमीर खां साहब का गायन आत्ममंथन। ये दोनों मिलकर हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन के शीर्ष राग-द्वैत का निर्माण करते हैं। विपर्यय किंतु परस्पर।

 यदि कलागत सौंदर्य साक्षात की तात्कालिक संभावना है तो कह सकते हैं कि संगीत इसका सबसे बड़ा प्रतिमान है। यही वह चीज है, जो सदियों से इंसान की रूह को रूई की मानिंद धुनती चली आ रही है। अमीर खां का मालकौंस या तोड़ी सुनें तो समझ आ जाएगा कि एक असंभव आह्लाद की दहलीज पर खड़े होने के क्या मायने हैं।

 यह गायन देशकाल के मिथक को तोड़ता है। वह तमाम जमानों और इलाकों के परे है। उसमें कायनात की विलंबित नब्ज है और गहन दार्शनिक चिंतन है। कह सकते हैं कि उस्ताद की आवाज ने हमारे जीवन को एक असमाप्त सभा बना दिया है और हम उसमें कोमल गांधार की तरह ठिठके हुए हैं।

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

संगीत भी अपनी सीमाओं के परे संवाद करता है..

Ashish said...

Bahut badhiya likha hai.
Bahar sunkar seekhne waali baat kaafi pasand aayi.