Friday, February 24, 2012

गनीमत है मैं आठवीं जमात से आगे नहीं गया - २

पिछली किस्त से आगे)


गनीमत है मैं आठवीं जमात से आगे नहीं गया - २

शंभू राणा

एक मास्साब हमें कृषि विज्ञान पढ़ाया करते थे। वे न जाने क्यों हमेशा दो पायजामे पहने रहते- एक के ऊपर एक। प्लास्टिक के जूते, दो पायजामें, कुर्ता या शर्ट, कोट और टोपी- यह उनकी पर्मनेंट पोशाक थी। वे क्लास में आते- हूँ क्या है रे आज, कल क्या था ? पुस्तक निकालो। ला तो रे किताब दे तो। खुरपका मुँह पका हो गया था ? धान की खेती….हाँ चलो गन्ने की खेती लिख मारो। पैरा नम्बर 3, 5, 8 को छोड़ कर सब लिख मारो। अतः, फलतः, प्रायः, स्वतः और चूँकि शब्द जहाँ आएँ उन्हें मत लिखना। नहीं तो इम्तहान में इक्जामनर सोचेगा कि तुमने नकल की है। ये सब कठिन शब्द हैं। हम गन्ने या मक्के की खेती वाले पाठ को किताब से कॉपी में नकल करने लगते अतः-फलतः को छोड़ कर। मास्साब दोनों हथेलियाँ पायजामे की कमर में डाले क्लास में टहलने लगते- हस्तलेख जरा ठीक बना रे। दलिद्दर कहीं के। बीच-बीच में किसी लड़के की कमर में एकाध ठोकर लगा देते। मीलों तक गन्ना लहलहा उठता और घंटी बज जाती। हिन्दी वाले मास्साब एक दिन किसी प्रसंग में हमें बता रहे थे कि उस रात चन्द्रशेखर आजाद किसी किसान की झोपड़ी में ठहरे थे। सुबह को जब वे दातून कर रहे थे तो उन्होंने पुलिस की सीटी सुनी और फिर पुलिस से उनकी मुठभेड़ हुई। मैं किसी पत्रिका में पढ़ चुका था कि वह मुठभेड़ इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में हुई थी। चुप रहा, कौन डंडा खाये।

तो जी इस तरह पिटते-पिटाते, हँसते-खेलते अतः, स्वतः और फलतः आठवीं जमात पास कर गये। बाप ने सोचा होगा लड़का ठीक जा रहा है। कुल का नाम रोशन करेगा। कुल का नाम रोशन करना कि सरकारी नौकरी पा जाना, जो कि वे कर रहे थे। कुल-खानदान का नाम रोशन करने के लिये फीस देकर इतने सालों तक पिटने की भला क्या तुक है! समय और पैसे की बर्बादी और नतीजा अनिश्चित। इसके लिये तो मंत्री की कार में पत्थर मारना, डीएम या एसपी की बीवी-बेटी को छेड़ देना ही पर्याप्त है। जैसा चाहो वैसा नाम। नौकरी करते हुए खानदान का नाम रोशन होने की कोई गारंटी नहीं। जरूरी नहीं कि आप इतने बड़े नौकरशाह बनो कि मंत्री के साथ मिलकर करोड़ों-अरबों का घोटाला करने का अवसर आपको मिले ही। मामला खुले ही, आप मीडिया में छा ही जाओ- कोई गारंटी नहीं।

सही समय पर सही राय कोई साला देता ही नहीं। हमें शुरू से ही गलत राय और दिशा देकर भटकाया गया। घर में भी, स्कूल में भी। भटकाने वाले, सच कहें तो बेचारे खुद ही भटके हुए थे। हमें क्या भटकाते, क्या दिशा देते। दोष उनका भी नहीं। वे अध्यापक नैतिक शिक्षा की क्लास में हमें पढ़ा रहे थे कि माता-पिता की सेवा करनी चाहिये। माँ का दर्जा भगवान से भी ऊँचा होता है वगैरा। और ‘हमारे पूर्वज’ नाम की किताब में पढ़ा रहे थे कि परशुराम इतने पितृ भक्त थे कि उन्होंने पिता के कहने पर अपनी माँ की गर्दन काट डाली। इसी विरोधाभासी शिक्षा का नतीजा है कि अधिकांश बच्चों को उनकी संचयिका का पैसा वापस नहीं मिलता। मुझे तो जहाँ तक याद है, कभी नहीं मिला। शायद अच्छा हुआ वर्ना हो सकता है संचय करने की लत लग जाती।

पढ़ाया चाहे जो जा रहा हो लेकिन अपनी समझ में इतना तो तब भी आ गया था कि पितृभक्त होने में कोई बुराई नहीं, लेकिन उसके लिये परशुराम जैसा उजड्ड, विवेकहीन और शायद हाई बी.पी. का मरीज कतई आदर्श नमूना नहीं। इससे तो अच्छा कि बाप के हाथों मार खा लो। माँ गोद में बिठा कर तुम्हारे घाव सहला देगी।

इंटर कॉलेज में नवीं-दसवीं की पढ़ाई का दो-एक साल का अनुभव है। वहाँ हम फीस खा जाना, पीरियड गायब करना, स्कूल न जाकर पिक्चर जाने जैसी कलायें सीख गये।

एक दिन पूरी की पूरी क्लास स्कूल से भाग गई। नतीजतन क्लास टीचर ने हर लड़के को दो-दो रुपये का फाईन कर दिया जो कि उस जमाने में एक अच्छी रकम थी। अठन्नी और मिलाओ तो सिनेमा का टिकट आ जाता था। कुछों ने इसी तरह फाईन माफ करवा लिया तो ज्यादातर ने चुका दिया। हमारे बीच एक माई का लाल ऐसा भी था कि उसने दो रुपये क्लास टीचर की जेब से निकलवा लिये। उसने कहा- सर मैं भागा नहीं था। मैं तो स्कूल ही नहीं आया था। कैसे आता मेरी दादी मर गई थी। क्लास टीचर ने कहा- अरे अच्छा, ओ हो यार ये तो गलत हो गया। अब यार मैं माफ तो नहीं करता क्योंकि प्रिसिपल साहब भी नाराज होते हैं कि पहले फाइन करता है फिर माफ कर देता है। तु मुझसे दो रुपये ले ले, फाइन भर दे।

एक टीचर हमें गणित पढ़ाते थे। इंटरवल के बाद उनका पीरियड होता था। वे लगभग दस मिनट बाद स्टाफ रूम से निकलते। एक हाथ में चॉक का डिब्बा, दूसरे हाथ से डस्टर को अंगूठे और तर्जनी की मदद से पेंडुलम की तरह झुलाते हुए क्लास में आते- किताब निकालो, फलाँ पन्ना, फलाँ सवाल। वे क्लास की ओर पीठ किये ब्लैक बोर्ड पर सवाल हल करते जाते। पूरा ब्लैक बोर्ड भर जाता। फिर एक कोने में कॉपी बराबर जगह में सवाल हल करते। उसके बाद वे हाथ झाड़कर क्लास से मुखातिब होते- देखो तुम इम्तहान में इतना लंबा सवाल हल मत करना। तुम सिर्फ इतना करना (एक कोने में जो उन्होंने किया होता) जो इतना लंबा सवाल करे वह चूतिया है। क्या समझे ? बगल में साइंस वाले लड़के पढ़ रहे हैं, ये तरीका उनको मत बताना। बात आज तक पल्ले नहीं पढ़ी कि जब इतना लम्बा करना ही नहीं तो वे हमें करके क्यों दिखाते थे।

बस इतनी भर यादें हैं स्कूल के दिनों की। इससे आगे जिसे विश्वविद्यालय कहते हैं, वहाँ जाना नहीं हुआ। जिसके लोगो में ‘सर्वज्ञाने परिसमाप्यते’ टाइप का कुछ लिखा है। जिसका ठीक-ठीक मतलब मुझे आज तक मालूम नहीं। उन दिनों हम इसकी व्याख्या यूं करते थे- परिसर में आकर सारा ज्ञान समाप्त हो जाता है। तब छिछोरपने में की गई यह व्याख्या आज देखता, सुनता और महसूस करता हूँ कि एकदम ही बकवास तो नहीं थी।

थोड़ा सा जिक्र अपने सहपाठियों का कर लूँ। कई बार लोगों को कहते सुनता हूँ कि फलाँ मंत्री अपने साथ पढ़ता था। वो जो था हमसे एक साल जूनियर था, आज कल फलाँ जगह का कोतवाल है। अरुण तो फॉरेन सर्विस में चला गया था। आया था एक बार, बढ़िया जॉनी वॉकर लाया था। फलाँ ब्रिगेडियर हो गया है। चंदू का बिहार कैडर था। वहीं कहीं डी.एम. है आजकल। उनका कोई क्लास फैलो सेल में मैनेजिंग डायरेक्टर होता है तो कोई भेल में। ऐसी बातें सुनकर रश्क तो नहीं होता, हाँ सोचता हूँ कि भविष्य का वह मंत्री भी कभी पिटता होगा, फीस खाता होगा, गधे की पदवी से नवाजा गया होगा, तो एक तरह का सुकून महसूस होता है। अपने साथ का कोई लड़का न डी.एम. बना न मंत्री। एकाध फौज में है, एकाध मास्टर। सब के बारे में जानकारी नहीं है। बांकी कोई टैक्सी चलाता है तो कोई सड़क किनारे बैठा हर माल दस रुपये वाली चड्ढियाँ बेच रहा है। अलाँ मजदूरी करता है और फलाँ चाय की दुकान। वाइन शॉप में भी एकाध लड़का नजर आ जाता है। सब जीवन की गाड़ी खींच रहे हैं जैसे भी बन पड़ता है। और मैं ? वहीं निखद्द का निखद्द तब भी आज भी।

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

एक पढ़ाई, एक परिवेश, अलग अलग राहें...