Wednesday, February 29, 2012

वहीं वे फूल भी हैं जो जीवन में खिलना चाहते हैं

शरणस्थली और क़त्लगाह 


-कुमार अम्बुज

जीवन में अगर चीख़ है
तो क्या बुरा है कि वह कविता में सुनायी दे
दरवाजा है तो उसमें से गुज़रा जा सके
चुम्बन है तो होंठों पर उसका स्वाद हो
यह कविता की कला है लेकिन भाषा के साथ है
उसका एक काम यह भी हो सकता है
कि वह हमें दिन के मरुस्थल या रात की सुरंग के
पार ले जाए और किसी अजायबघर में छोड़ दे

इस बीच बाज़ारों की क्यारुयाँ तुम्हें लुभाती हैं
विश्वविद्यालयों के परिसर तुम्हें पुकारते हैं
राजनेता और धर्माचार्य तुम्हें
झाडियों में ले जाने के लिए उद्यत हैं
इतिहास पर टुकड़ों में रोशनी गिरती है
और इन्हीं के बीच से होकर कविता का रास्ता है
जो कला भी है और भाषा भी

वहीं वह बन्दूक भी है जो जब कविता में चलती है
तो ठीक उसी वक़्त जीवन में भी चलती है
वहीं वे फूल भी हैं जो जीवन में खिलना चाहते हैं
तो खिलते हैं कविता में भी
वहीं वह स्पर्श है जो इन्द्रियों को
एक साथ उल्लसित और मूर्छित करता है

चौराहे की भीड़ को चीरते हुए जब तुम सुबह-सुबह
गुजरते हो तो कितने बेरोजगार
तुम्हारी तरफ झपटते हैं उम्मीद से
यह दो-चार दिन पुरानी बात भी नहीं है
जब एक निरीह बच्चा अपना हाथ फैलाए
तुम्हारे सामने खड़ा था और तुम उसे झिडक रहे थे
अक्सर ही तुम्हारे घर की बाई
अपनी उतनी छोटी बेटी को एवज़ी में भेज देती है
जो बमुश्किल पहुँच पाती है सिंक की ऊंचाई तक

यदि तुम इस तंत्र का शिकार हो तब भी
तुमने उतनी दूर तक दौड नहीं लगाई है
जितनी बिल्ली को देखकर चूहा लगाता है
तुम जो कविता को शरणस्थली बनाते हो
जो कला भी है लेकिन हर बार
खुले में एक मोर्चा बन जाती है
और शरणस्थलियों को क़त्लगाह बनाती है.

1 comment:

मोहन श्रोत्रिय said...

"यदि तुम इस तंत्र का शिकार हो तब भी
तुमने उतनी दूर तक दौड नहीं लगाई है
जितनी बिल्ली को देखकर चूहा लगाता है
तुम जो कविता को शरणस्थली बनाते हो
जो कला भी है लेकिन हर बार
खुले में एक मोर्चा बन जाती है
और शरणस्थलियों को क़त्लगाह बनाती है."
कला को,कला होने के साथ-साथ और क्या बन जाना पड़ता/पड़सकता है, यह सच्चाई और अनुभव की आंच पर तपा, बेहद महत्वपूर्ण बयान है.