Tuesday, June 26, 2012

सिंध में सत्रह महीने - १



बाबा नागार्जुन का यह संस्मरणात्मक यात्रावृत्त हुंकार में 23 एवं 30 दिसंबर 1945 को प्रकाशित हुआ  था.

एक.

गर्मी बेहद थी. ट्रेन में रेत उड़-उड़कर इतनी आ रही थी कि सभी आंख-मुंह ढके हुए थे. स्टेशनों पर पानी का मिलना असंभव था. कई जगह देखा, देहाती लोग पानी के लिए मिट्टी का बर्तन लेकर इंजन  की प्रतीक्षा में खड़े थे. पंजाब-सिंध सरहद के इस इलाक़े में पानी की इतनी कमी है कि लोगों को या तो शहर से पानी लाना होता है या रेलगाड़ी के ड्राइवरों की कृपा पर वे निर्भर रहते हैं. दो-तीन प्रकार के मरु-उम्दिदों के क्षितिजचुंबी जंगलों में सैकड़ों ऊंट चर रहे थे. बस ऊंट ही ऊंट और जानवरों का नाम तक नहीं. पथ और पगडंडियां जनशून्य थीं. सहयात्री एक मुसलमान फ़कीर था. पूछने पर जवाब मिला - "हूरों के उत्पात से छोटे-छोटे स्टेशन बंद हो गये हैं."

सुबह हम मुल्तान में गाड़ी पर चढ़े थे. समासहा जंक्शन तक तो पंजाबी वातावरण-सा रहा, उसके बाद हिंदुओं के परिधान में धोती के दर्शन होने लगे. तहमत और पाजामा पंजाब के साथ-साथ पीछे छूट गया. ट्रेन ज्यों-ज्यों सिंधु नद के कछार में आती गयी, त्यों-त्यों जंगल घना होता गया. यह जंगल  विराटकाय वनस्पतियों के नहीं थे, तो भी काफ़ी घने थे. रोहड़ी के पास उस महान सिंधु नदी की झांकी मिली कि जिसकी धारा में डूब लगाकर सिकंदर ने अपने देश-देवता जुपीटर को अर्घ्य दिये थे.

रोहड़ी सिंधु के किनारे अवस्थित एक प्राचीन नगर है. आजकल नार्थ-वेस्टर्न रेलवे का जंक्शन होने के कारण उसकी प्रसिद्धि है. पर पहले बड़े-बड़े सूफ़ियों की लीला-भूमि के रूप में ही यह स्थान विख्यात था. अभी भी सूफ़ियों के दो-चार अखाड़े वहां मौजूद हैं. सिंधु के उस पार सक्खर जैसा प्रसिद्ध नगर है. बीच में साधुबेला जैसा प्रसिद्ध टापू पड़ता है. पास में इंजीनियरिंग का महान चमत्कार वह महासेतु है. पंजाब से आनेवाली गाड़ियां यहां काफ़ी देर ठहरती हैं, फिर क्वेटा या करांची की ओर जाती हैं. 

रोहड़ी स्टेशन पर उतरते ही ‘पल्ला’ मछली के तले हुए बड़े-बड़े टुकड़ों ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया. जन्मजात मत्स्य-लोलुपता पानी बनकर जीभ पर उतर आयी और मैंने अंदर-ही-अंदर अपने मैथिल पूर्वजों की स्वादवृत्ति को प्रणाम किया. तो क्या प्रणाम ही करके रह गया? नहीं, स्टेशन से बाहर निकलकर सराय  में ठहरा और गुरु नानक होटल में बैठकर इत्मीनान से भगवान के मत्स्यावतार की पूजा की. दूसरे दिन पुल पार करके सक्खर देखने गया. बाज़ारों में हिंदुओं को धोती ही पहने पाया. नौजवानों और बच्चों की बात छोड़ दीजिये. अभी कल सुबह तक मैं पंजाब में था, जहां धोती का पहनावा हिकारत  की निग़ाह से देखा जाता था. पाधा-पुरोहित, पूजा-पाठ, भोजन-भंडारा के समय धोती पहन लें, तो पहन  लें; वरना वे भी पंजाब का भद्र परिधान ही पहनते हैं. चुस्त पाजामा, अचकन या कोट और सिर पर साफ़ा. चादर हुई तो हुई. इस प्रकार पंजाब के दैनिक जीवन से धोती को हिंदुओं ने हटा दिया है. पंजाब ही क्यों, लखनऊ से हम यही हाल देखते आ रहे थे. सिंधु के किनारे-किनारे मीलों तक चली गयी है सक्खर बस्ती. ज़रा दूर हटकर नया सक्खर भी बस रहा है. उस दिन शायद पूर्णिमा थी. हज़ारों नागरिक सिंधुनद के दर्शन करने आये थे. दोने में कुंकुम और अक्षत डालकर दीप जलाकर उसे प्रवाह में छोड़ रहे थे. शत-सहस्र दीपिकाओं का वह समूह अरब सागर की ओर बहा जा रहा था. और मैं सिंधी जनता के श्रद्धा-निवेदन का वह मधुर प्रतीक देख-देखकर चित्र-लिखित-सा खड़ा था. एक वृद्ध सज्जन ने भावावेश  में पाकर मुझे छेड़ दिया - "कहां से आये महाराज?"

मैंने संक्षेप में बता दिया और पूछा - "नदी के किनारे इस प्रकार श्रद्धापूर्वक दीप बहाते तो मैंने कहीं नहीं देखा है, आपके देश में यह कौन-सी रीति है?"

वृद्ध सज्जन ने कहा - "हम सिंधी वरुण के उपासक हैं. जहां जायेंगे, आप इस देश में यही रीति पायेंगे."

उसी प्रसंग में उक्त सज्जन ने एक अनुष्टुप सुनाया-

"केचिदत्रा निराकाराः साकाराश्च तथाऽपरे.
वयं संसार संतप्ता नीराकारमुपास्महे."

अर्थात् - कुछ आदमी तो इस दुनिया में निराकार की उपासना करते हैं, कुछ साकार की; परंतु भव-ताप से संतप्त हम प्राणी निराकार यानी जलमय भगवान् की उपासना करते हैं.

मैं यह सुनकर दंग रह गया. आगे कई बार, कई जगह सिंध में इस प्रकार के दृश्य देखने को मिले. उन पर पृथक् ही एक लेख लिखा जा सकता है. प्रकारांतर वरुण की उपासना में यहां के मुसलमान भी भाग लेते हैं. सिंधुनद को ‘दरियाशाह’ जैसे महामान्य नाम से वे संबोधित करते हैं. उस दिन घूमघाम कर साधुबेला भी देख आया. उदासी साधुओं का बहुत बड़ा अखाड़ा है. पांच सौ बीघे का रकबा होगा. साधुओं का बगीचा ठहरा, हिंदुस्तान-भर से तरह-तरह के फलों की गुठलियां ला-लाकर यहां वे लगाते हैं. एक ही जगह आम, अमरूद, जामुन, कटहल, केला, लीची, संतरा, अंगूर, नासपाती, सेब, बेर आदि मैंने वहीं देखे.

(जारी)

1 comment:

विम्मी सदारंगानी said...

ओह तो यह संस्मरण बाबा नागार्जुन जी का है. मैंने इसका सिन्धी अनुवाद पढ़ा था एक सिन्धी साहित्यिक पत्रिका में मगर वहां यह संस्मरण फणीश्वर नाथ रेणु के नाम से था.. शुक्रिया, यह संस्मरण पढ़वाने के लिए..