Thursday, September 27, 2012

तुलसी रमण की कवितायेँ - २


अब देखिये तुलसी रमण जी की  आँखों से शिमला के कुछ अनदेखे दृश्य-

शिमला

पूरब के पहाड़ पर
चढ़ता सुबह का सूरज
धीरे-धीरे उतरती धूप
शहर के मस्तक से
पैर के अंगूठे तक
फिसलता जाता अंधेरा
पश्चिम की ढलानों पर

दरवाज़े पर
शटाक से गिरते
मैदानों से आये समाचार
एक क्षण थर-थराता पहाड़
और चाय की पहली प्याली के साथ
निगल जाता
हत्याओं और
आत्म-हत्याओं के समाचार

रोज सुबह गलरी से गुजरता
रद्दीवाला
पुकारता: खा ली, बो तलाँ..!

उबासियाँ लेता शहर
क्यों पी गई रात इतनी शराब

हर घर में घुस आता क्यों
बारहों महीने जुकाम?
कितना डरा हुआ सा चलता है
हर रास्ता
जाने कब क्या कुछ झपट जाएगा
जाखू का बिगड़ैल बंदर

शो-विंडो के साथ खड़े
दायीं ओर मुस्काते
शहर के स्वामी
माल की शाम घूमते-घूमते
बाबू बायें-बायें

ऊपर की जेब में सजाये
रेशमी रूमाल
विलायती उपहार
बस की पुरानी टिकटों
और काम्पोज की गोलियों से
भरी पड़ीं
भीतर की जेबें

ढलान पर उतरती लय:
कर याद अल्लाह, अल्लाह ई अल्लाह!
या महबूब, कर अहसान! !
ताल पर सरकते
रशीद, नज़ीर और
अमीन के पाँव
नाड़ियों में तैरता
श्रम का संगीत
ज़मीन में जज़्ब होता पसीना

माल-गोदाम से अनाज-मंडी तक
तीन पीठों पर सवार
चढ़ता तेल का एक ड्रम
तेल से जलता स्टोव
तवे पर पकती रोटी
एक दो तीन चार
एकाध पेट में

दो एक टिफिन में बंद
पहुँच जाती दफ्तर की मेज़ तक

निपटाती फाइलें
बैठकें जुटाती
कुछ बतियाती
और फिर भूख दे जाती
दफ्तर से पैदल लौटते हैं
खाली टिफिन

घिसते जूतों
फटती मोहरियों और
कुहनियों के साथ
बढ़ी हुई दाढ़ियों में
उलझ जाता बीड़ी का धुआँ
बर्फ़ के नीचे सुलगता जाता
मुँह का उजला और
पीठ से काला शहर

गिरजाघर की
जर्जर पसलियों में
दुबकी कहानियाँ
गोरी सड़क के
साबुन स्नान की
बूढ़े ‘गेइटी’ के माथे पर
उभर आती इबारत :
भारतीय और कुत्ते वर्जित हैं

शहर के अंग अंग पर गोदा
गुलामी का इतिहास

लिफ्ट से चढ़ आये
सैलानियों की भीड़ में
आज़ादी सड़कों पर
घिसटती रहती
भिखारी बच्ची
सुबह से शाम

बापू के गले में
टँग जाती एक माला
साल में दो बार
खबरों में
उड़-उड़ जाता शहर
अति विशिष्ट व्यक्तियों के
आराम के नाम
छिन जाती भिखारी की बच्ची से
उसके हिस्से की सड़क
इमारतों के जंगल में
लहू-लुहान टँगा है
एक यीशु देवदार
पैरों में गाड़ दिये सरिये
जिस्म में मेखें
तारों में उलझे
सिर के बाल

शाख़ से छनकर
बिखर-बिखर नहीं आता चाँद
एँटीना के साये में
रेत हुआ प्यार
देर से आता वसंत
बहुत जल्दी
निगल लेती बरसात
दबे पाँव घुस आता जाड़ा
दीवाली की रात
कुछ धूप में चिलकता
बाकी छाया में ठिठुरता शहर
कुछ विलायत में जीता
कुछ देश में

चिमनियाँ उगलती
भीतर का धुआँ
पनालों में बहता
शहर का मवाद
पश्चिम की पहाड़ी पर
डूबता शाम का सूरज
जाखू की चोटी से
विदा लेती पीली धूप
जिस्म पर अँगारे लिये
रात भर जागता है
खूबसूरती के लिये बदनाम
बाबुओं का शहर

माल रोड़ पर एक पीढ़ी


पुराने थैलों में
बीते सालों की चिट्ठियाँ
दिलों में धड़कता सन्नाटा
चेहरों पर लिये रोशनी रहस्य की
एक-एक कर गुज़रते हैं
कम्बरमीयर पुल से
बड़े डाकघर की ओर
ज़माने के पारखी
शहर के सयाने

कहवाघर की ऊँची दीवारों पर
गवाह हैं

नेहरू और रागिनी आर-पार
श्रीनिवास की भोली परिकल्पनाएँ
क्षण-क्षण धधकती एक निरंतर कविता
धमनियों में बजता देवदारुओं का जाज

उपनयन के साथ चख लिया था
निराला की हाँडी का माँस
किसी अंतरंग शाम
जीभ पर उतर आता स्वाद
हृदय में गहराता अनुराग
आँखों से टपकती शराब
गीतों से चूने लगते
ज़िंदा चित्र पक्के राग

दोपहर जीवन
लिखी कुछ लम्बी कविताएँ
पहनी अच्छी पोशाकें

दिन ढलते जब लौटती नहीं
घर से निकली चिर युवा कविता
झनझनाता ततैया का छत्ता
कवि का दिमाग
खाली होते गिलासों से
उमड़ता स्मृतियों का अम्बार
बारी-बारी चले आते
पाउंड पिकासो लोरका
कुछ नक्षत्र हुए कवि
तेजस्वी विचारक
और असंख्य चेहरे डूबे हुए
काल की धुँध में

हुड़क की ताल पर
नीरज की दाढ़ी में
फड़फड़ाता समय का जख्मी मोनाल
ज़हन में पहाड़ के बनते बिगड़ते रंग
राजे रानों के शौक
आजादी की लड़ाई
गूँजती ढँकारों में
प्रजामंडल विद्रोह की ऊँची आवाज
नेहरू की यात्राएं
परमार का जमाना
ज़ख्मों की तरह

क़दम क़दम खुलते पहाड़
खाली खलिहान में
ढोल के पूड़े पर जमती नाट्टी

बार-बार छीले काटे गये
पर कटे पहाड़
गीतों की लय में खनकती चीत्कार

महज़ संयोग नहीं है
आकाश-पाताल एक करता
हिमेश का ठहाका
करियाला की जमीन पर
मार्क्स की दहाड़
हाट-घराट की कहानियाँ
लोगों की भाखा में
पृथ्वी की कराह

दिन में कई बार पूछते
शराबघरों के बैरे
जीवन का हाल
चेहरे पर जलती भीतर की आग
पँख पँख उड़ता हवा में
ठंडे शहर का
भयावह सन्नाटा
संपादकों के नाम कलम के तीर
पहाड़ की पाती सत्येन के खत
दुख-सुख छापता है जीवन अखबार

मस्तक पर चमकती धूप
आँखों में अँधेरा
आत्मा में भीषण हाहाकार
जुबान पर उतर आते
संगीत की दुनिया के किस्से
कानों में गूँजती

बर्मन दा की धुनें
रगों में तैरते
उत्साही और उदास गीत

दफ्तर की फाइलों में
हँसती खेलती ज़िया की भाषा
मेट्रोपोल अनेक्सी के ठंडे कमरे में
भीतर जमे शाम के साथी
ट्रक के शोर में बाहर बैठी इंतजार में
नफीस की नज्में बेजोड़ कहानियाँ

सिगरेट में सुलगती जिगर की आग
हलक से उतरते रम के गिलास
धीरे-धीरे सरकता दुख का जीवन
ज़िया की चाल

(हुड़क - एक  लोक वाद्य, मोनाल - एक दुर्लभ सुंदर पहाडी पक्षी, करियाला - लोक नाट्य की एक विधा)

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