Tuesday, November 19, 2013

बुरे दिन कविता के लिए अच्छे दिन होते हैं



बुरे वक़्त की गवाही

असद ज़ैदी

हिन्दुस्तानी अवाम के लिए बुरा वक़्त आने वाला है, और उसके बहुत से हिस्सों के लिए तो आ भी चुका है.  इसकी अलामतें चारों तरफ़ दिखाई देने लगी हैं. एक अचूक लक्षण हैं वह भयानक ख़ामोशी जो संस्कृति और साहित्य की दुनिया में उतर आई है. जब कोई भी आसन्न ख़तरे का या विपत्ति का ज़िक्र न करे तो समझिये वह ख़तरा या विपत्ति बिल्कुल सर पर है. भारतीय फ़ासिज़्म की गहरी होती शाम में हमारा कलाकार, लेखक और चिंतक जो मध्यवर्गीय नागरिक भी है —  अब निजी सुरक्षा और समझौते के रास्तों की तलाश में है. वह बर्बरों से संवाद और समझौते की जगह बना रहा है, अपने लिए  ऐसी तजवीज़ निकालना चाहता है जिसमें उसका  सम्मान बना रहे और सुविधा भी. लिहाज़ा वह चाहे-अनचाहे भाषा को, बहस की शब्दावली को, विमर्श की शर्तों को भी बदलने में लगा है. 

उसके भीतर एक कशमकश है जिसमें वह अकेला, खुद अपने से छिपकरअपने ज़मीर से, अब तक की नैतिक उपलब्धि से लड़ रहा है. उसे यह बोध हो गया है कि अन्यायकारी तंत्र अब एक नये युग में प्रवेश कर रहा है, और उसे इस युग से डील करना है तालमेल बिठाना है. वह आईना देखना बंद कर देता है. जब वह इस तहख़ाने से निकलकर आता है तो वह उसे खुद पता नहीं होता वह कितना नया है और कितना पुराना.  अपने नागरिक पतन को वह कभी अतिशय श्रृंगार के तो कभी अराजक हाहाकार के पर्दे में छुपाने लगता है. दरअस्ल अपने से रूठा, अपने से नफ़रत करता यह कलाकार  आज के इस संक्रमणकाल की ख़ास पहचान है.  जिस फ़ासिज़्म ने उसे अकेला किया है उसी की बाहों में वह शरण ढूँढ़ता है.

मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में को लिखे आधी सदी बीत गई है. यह कुछ इस तरह बीती है कि बहुत से जाने पहचाने चेहरे, जो हमराही से लगते थे, आज अंधेरे में  के उस भयानक जुलूस में शामिल हैं. उन्हें पता है कि उसके कंधों पर एक विशेष तरह का ऐतिहासिक, अत्यंत घृणित कार्यभार है. माहिर जल्लाद की तरह उन्हें इस कार्यभार को अंजाम देना है.

क़ायदे से यही समय कलाकारों, खासकर लिखने वाले लोगों के लिए, असली इम्तिहान और सचमुच की उपलब्धियों का समय होना चाहिए.  साहित्य की सार्थकता बुरे वक़्तों ही में  सामने आती है. बुरे दिन कविता के लिए अच्छे दिन होते हैं. पूरी बीसवीं सदी के अनुभव ने  हमें यही सिखाया था. पर लगता है हम किसी ऐतिहासिक दरार में गिर गए हैं, पूरी एक पीढ़ी खोए जा रही है. शायद उससे अगली भी. हो सकता है आगे जाकर इसे साहित्य और कला में ख़ाली समय की तरह ही देखा जाए.

ज़रा गुजरात पर एक  नज़र डालें. समकालीन गुजराती साहित्य और उसके ज़्यादातर कर्णधार क्या अपने सूबे को और अपने देशवासियों को फ़ासिज़्म के नरक में धकेले जाने की परियोजना का हिस्सा नहीं बन गए हैं ? उनमें से कितने ख़ुद  को शर्मसार महसूस करते हैं? कहीं यह शर्म दर्ज हुई है? फ़ासिज़्म तो है, उससे आँखें मिलाता साहित्य कहाँ है? वह किस चीज़ का गवाह है? उसका अंतःकरण कहाँ है? साहित्य ही कहाँ है? क्या पिछले दस-ग्यारह साल में जो रचा गया उसे वे साहित्य कहते हैं?

समकालीन हिन्दी साहित्य और संस्कृति का हाल इतना बुरा न हो पर अच्छा भी नहीं है. चर्चा और पुरस्कारों को लेकर जितनी तत्परता और तेज़ी से साहित्य और संस्कृति के लोग, जिनमें युवा लोगों की तादाद भी कम नहीं है, बहस में कूद पड़ते हैं और भद्दे ढंग से झगड़ने लगते हैं कि हैरानी होती है. जैसे कि यही उनकी दुनिया हो! इसका दसवाँ हिस्सा दिलचस्पी भी वे देश की सामाजिक - राजनीतिक दुर्गति, बढ़ती असमानता, साम्प्रदायिक नरसंहार, कारपोरेट लूट, भूख, बेरोज़गारी, आसन्न फ़ासिज़्म के ख़तरे, हिन्दुत्ववादी ताक़तों के घृणा अभियान, राजकीय आतंकवाद, सार्वजनिक नियंत्रण के अवसानकृषि व्यवस्था के विनाश या राजनीति के अपराधीकरण और नागरिक अधिकारों के हरण पर नहीं दिखाते. उन्हें न अपने हमवतनों की आम तकलीफ़ों से कोई मतलब है, न उनकी आँखों के आगे होते लोकतंत्र के क्षरण की चिंता. ऐसा क्यों है, इसका जवाब वही दे सकते हैं. 

कुछ लेखकों का आधा जीवन ही पुरस्कार, सम्मान, स्वीकृति, मंच पर बुलावे की तलाश में गुज़र जाता है और कुछ तो हर तरह की सीमाएँ लाँघ जाते हैं. अपना अंतःकरण, अपना आत्मसम्मान और  अपना अतीत गिरवी रखने के बाद उनके पास बेहयाई के सिवा कोई मूल्य नहीं बचता और न चरित्र-हनन के सिवा कोई हथियार. वे ईर्ष्या-द्वेष, हिर्सो-हवस से इतना भरे रहते हैं कि उनसे किसी तरह की संजीदा बातचीत या न्यूनतम मानवीय स्पर्श तक की उम्मीद नहीं की जा सकती. जो जितना लालची है उतना ही अपने को वंचित बताता है.

ऐसे लोगों की तादाद में पिछले सालों में ख़तरनाक ढंग से इज़ाफ़ा हुआ है. उनकी फुसफुसाहटें, सिसकियाँ, दहाड़-चिंघाड़ और चीत्कार-फूत्कार सुन-सुनकर जी बेज़ार हो जाता है. नव-उदारवादी पूँजीवाद की छत्रछाया में सम्पन्न होते इस 'नये हिंदी नवजागरण' के हाहाकार और इस हंगामी दौर के बेचैन बौपारियों से कहीं भी निजात नहीं. अब कहाँ मुँह ढँककर जा पड़ें!  मोमिन ख़ाँ  वाली हालत है — "कल जो मस्जिद में जा फँसे 'मोमिन' / रात काटी ख़ुदा ख़ुदा करके ." 

हर व्यवस्था अपने लेखकों, कलाकारों और अख़बारनवीसों को जानती है. इस तरह की फ़ज़ीहत और अंतर्कलह इस बात का संकेत हैं कि ये बिरादरियाँ ख़ुद को सिस्टम का अंग मानती हैं और उसमें अपनी जगह के लिए लड़ रही हैं यानी वे व्यवस्था से छिटककर दूर नहीं जा रहीं, उसी में अच्छी तरह समा जाने को व्याकुल हैं. किसी भी निज़ाम के लिए इससे आश्वस्तिकारी चीज़ और क्या हो सकती है! राजनीतिज्ञ, अफ़सर और सांस्कृतिक अहलकार हमेशा लालच की चीख़ और सच्चे प्रतिरोध का फ़र्क जानते हैं. ये लोग विशेषज्ञ हैं. उन्हें मालूम होता है चुनौती कहाँ से है और कहाँ से नहीं. उन्हें निगाहें ही सब कुछ बता देती हैं.

मुझे मालूम है कि लेखन के अपने समय से संबंध को कुछ सरल सूत्रों में नहीं समेटा जा सकता. पर कुछ चीज़ें अपरिवर्तनीय होती हैं. मसलन एक बात यह कि ज़्यादातर लेखन मिटाई जा रही या भुलाई जा सकने वाली चीज़ों के बारे में होता है और तमाम बातें इसी फ़िक्र में दर्ज की जाती हैं कि किसी शक्ल में कुछ बचा रहे, कि शायद इसमें कुछ काम का हो.  और कुछ नहीं तो प्रतिरोध या लड़ाई की याद ही बची रहे. दूसरी यह कि स्मृति के सारे कारोबार वर्तमान ही से निकलते हैं और उसी में अटके रहते हैं.  निवर्तमान यथार्थ और रचना के रिश्ते की बुनियादी तासीर ये है कि जिस वाक़ये का बयान किया जाता है वह लिखते ही घट चुका होता है. यह वर्तमान को अतीत की तरह देखने और बनाने की कोशिश है. बक़ौल कलीम आजिज़, वो जो शाइरी का सबब हुआ, वो मुआमला भी अजब हुआ / मैं ग़ज़ल सुनाऊँ हूँ इसलिए, कि ज़माना उसको भुला न दे. और तीसरी बात यह कि यहीं पर, इसी जगह साहित्य और हाशिये के रिश्ते का राज़ छिपा है.

दरअसल यह एक ही बात है जिसके ये तीन पहलू थे. वो बात यह है कि साहित्य अपना एक हाशिया बनाता है. इसे हाशिया न कहें तो प्रति-संसार कह लें. बिना इस प्रति-संसार की रचना किए साहित्य दुनिया-जहान के मामलात में प्रभावी ढंग से दख़ल नहीं दे सकता. सामाजिक हस्तक्षेप की यह शर्त है. वह इसी अर्थ में पत्रकारिता से भिन्न है. हालाँकि इस भिन्नता पर  बहुत ज़ोर देना भी ठीक नहीं है. मुझे वो लोग बहुत बोर मालूम होते हैं जो अपने कारोबार की विशिष्टता पर, अपने पेशे के ख़ास हुनर पर, ख़ुद अपनी महारत पर बल देते रहते हैं. यह दुर्गुण उनमें आलोचकों और प्राध्यापकों की संगत से और उनके व्यावसायिक शोरोग़ुल को सुनते रहने से  आया है.


बहरहाल, जब बड़ी-बड़ी घटनाएँ घट रही होती हैं जिन्हें देखने और दिखाने में ज्ञान, संचार और अख़बार के राजकीय और ग़ैर-राजकीय तंत्र लगे  रहते हैं तो एक कवि अक्सर और बातों पर भी ध्यान लगाए होता है, उसके कान कुछ और भी सुनते हैं. उसकी ओ बी वैन एक उजाड़ में किसी कीड़े की तरह रेंगती या एक बदरंग चिंदी की तरह पड़ी दिखाई देती है.  कलाकार को, लेखक को अपने हाशिए या प्रतिसंसार से बोलना और लड़ना आना चाहिए. क्योंकि अंत में मुक्तिबोध और सआदत हसन मन्टो की बात और गवाही बच रहती है, टाइम्ज़ ऑफ़ इंडिया  का सम्पादकीय या लाल क़िले की फ़सील से बोले गये झूठ बचें या न बचें.

(नवभारत टाइम्स से साभार)

2 comments:

मुनीश ( munish ) said...

असल में सूचनास्फोट के इस समय में आदमी का स्पैन ऑफ़ अटेंशन जो है वो बमुश्किल महज़ तीनेक मिनट का रह गया है । इसके बाद उसे कुछ और चाहिए जो उसकी पहुँच के भीतर है भी । यहाँ आदमी से मेरी मुराद पढ़े लिखे और अंतर्जाल को मुठ्ठी में रखे घूमते इंसान से है । मतलब ये कि पोस्ट नेट रेनेसाँ से पहले की ये सुगबुगाहट है और अभी रचयिता भी हक्का, बक्का, भौंचक्का सा यूँ तके है अपना परिवेश के जैसे मेले में ऊँट ना के कोई ठहरा सा दरवेश । अभी ये कनफ़्यूज़न चलेगा क्योंकि जब वो अभी तक पढ़ी सुनी बातों को तारेक फ़तेह, रॉबर्ट स्पेंसर या सीधे सच्चे हसन निसार की बातों से कंपेयर करता है तो कलेजा उसका मुँह को आता है के भई ये क्या कह गए इतना खुला-खुला जो उसकी अभी तक की तमाम ट्रेनिंग से मेल नहीं खाता । फिर यूरोपीय दुनिया के हाल भी जो हैं वो छिपे नहीं जहाँ से हिन्दी साहित्य ऊष्मा पाता रहा है । तो इस कनफ़्यूज़न से निवृत्ति के बाद शायद कुछ नया कहा , सुना जाएगा वो भी शायद विडियो या माइक्रोब्लौग की शक्ल में नहीं बल्कि फिर से किताब के पन्नों में ।

दीपा पाठक said...

बहुत ही सामयिक और ज़रूरी विश्लेषण हमारे दौर का। बहुत अरसे से ये बात बहुत शिद्दत के साथ महसूस हो रही है जो आपने बहुत खूबसूरती के साथ ज़ाहिर की है। शुक्रिया