Thursday, June 25, 2015

मगर हीरो का बचना लाजिमी होता है

प्रमोद सिंह का गद्य पिछले बरस ‘अजाने मेलों में’ नामक किताब की सूरत में सामने आया था. हिन्दी ब्लॉग जगत में वे एक जाना माना नाम हैं. आज उन्हीं के ब्लॉग से एक उम्दा पोस्ट शेयर करने का मन है -  

फोटो www.youthkiawaaz.com से साभार

कुत्‍तों से भरी दुनिया में हीरो..

 -प्रमोद सिंह

एक हीरो के समर्थन व बचाव में ऐसे ज़ोर मारते निर्दोष प्रेम के खिलाफ़ आख़ि‍र कुछ धृष्‍ठ तत्‍व हैं इतनी छाती क्‍यों पीट रहे हैं? स्‍कूलों में जो भी पढ़ाया जाता हो, समाज में कदम रखते ही बच्‍चा दनाक् से अपना सबक सीख लेता है कि कैसा भी सामुदायिक जोड़ हो, उसमें एक, या कुछ हीरो होंगे और बाकी जो भी होंगे उन्‍हें उनका लिहाज करने के लिए भले जुनियर आर्टिस्‍ट्रस बोला जाता हो, होते वो कुत्‍ते ही हैं, तो इस सामुदायिक जोड़ का बच्‍चे के लिए कामकाजी तोड़ यही होता है कि वह हीरो का करीबी होने की कोशिश करे और कुत्‍तों से अपनी दूरी बनाकर चले. समाज में सहज साफल्‍य का सामयिक सर्वमान्‍य नियम है, परिवार से शुरु होकर जीवन व समाज के सभी क्षेत्रों में हम रोज़ न केवल उसका पालन होता देखते हैं, खुद लपक-लपककर उसका हिस्‍सा होते रहते हैं. नहीं होते तो समाज हंसते हुए दूर तक हमें कुत्‍ता पुकारता चलता है. 

परिवार का कोई ताक़तवर सदस्‍य हो, सबके उससे अच्‍छे संबंध होंगे. थोड़ा नीच व अपराधी प्रकृति का हुआ तोउसके चहेते होने में इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ेगा. उसी परिवार में कोई दुखियारी विवाहित, प्रताड़ि‍त, रोज़ लात खाती एक गरीब बहन हो, आप थोड़ा याद करने की कोशिश कीजिये, कोई उस बहन की ख़बर नहीं रखता होगा. परिवार की यह बेसिक कहानी समाज के लगभग सभी क्षेत्रों की कहानी है, और बिना किसी अपवाद के आपको हर क्षेत्र में सघनभाव क्रियारत मिलेगा. आदर्शवादी जोड़-तोड़ में लगे किसी फ़ि‍ल्‍म प्रोड्यूसर के पास जाइये, उसे अपने गरीब एक्‍टरों की याद नहीं होगी, वह उसी बड़े सितारे के सपनों में तैरता मिलेगा जिसने कभी उसके लिए एक दिन शूटिंग का समय निकालकर उपकृत किया था. प्रोड्यूसर के फेसबुक वाले पेज़ पर सितारे की महानता की संस्‍तुति में आपको ढेरों स्‍मरणीय पंक्तियां मिलेंगी. यही कहानी थोड़े बदले शक्‍लों में किसी प्रकाशक की, कॉलेज अध्‍यापक की, मीडिया में सक्रिय किन्‍हीं और आदर्शवादी तोप के संबंधों के नेटवर्क में उसी सहजभाव से आपको घटित होता दिखेगी. उसमें ज़रा सा भी अतिरेक न होगा. सामाजिक परिवर्तन के लिए सबकुछ दावं पर लगाने का मूलमंत्र जपनेवाले समूहों के बीच भी. 

तब जब पूरे समाज का यही एक इकलौता मूल्‍य है तो बेचारे एक बड़े सितारे की जान को क्‍यूं आनापिये में एक ज़रा ग़लती हो गई, तो आप क्‍या करोगे, उसके लिए बेचारे नन्‍हीं सी जान को फांसी पर चढ़ाओगेउससे कुत्‍तों का जीवन किसी भी तरह संभल जायेगाकल को आप मुहब्‍बत भरे कुत्‍तों को अंकवार लेने लगोगेअब आप तुनककर न्‍याय-स्‍याय मत बोलने-बकने लगियेगा. लोकतंत्र हो या कोई तंत्र हो, न्‍याय ही नहीं, जीवन का सबकुछ वहां गैर-बराबरी पर चलता है. आप बहुत भोले होंगे तब भी इतना जानते होंगे. नहीं जान रहे हैं तो फालतू मेरा और अपना समय ज़ाया कर रहे हैं. सड़क पर सो रहा और समाज में बिना किसी हैसियत का बच्‍चा क्‍या खाकर कल को समाज में आपके बच्‍चे की बराबरी, या उससे मुकाबला करेगाकरने को खड़ा हुआ तो सबसे पहले आप ही कुत्‍ता-कुत्‍ता का रौर उठाना शुरु करेंगे.

सारी हिन्‍दी फिल्‍में मुंबई, पंजाब, दिल्‍ली और फिरंगी हवाइयों में ही घूमती फिरती है और हीरो हमेशा इन्‍हीं जगहों के होते हैं, और जाने कितने ज़माने से यही सब देख-देखकर आपकी आत्‍मा तृप्‍त होती रही है. इस दुनिया का नियम इसके सिर रखकर किसी फ़ि‍ल्‍म में हीरो का त्रिपुरा, मेघालय या झारखंडी किसी प्रदेश का बनाकर एक मर्तबा देखिये, या हिरोईन ही को, देखिये, कैसी वितृष्‍णा में आपका मुंह टेढ़ा होता है. उसके हिक़ारत में इस तरह तिरछा होने में कुछ भी अनोखा नहीं है. आप सिर्फ़ समाज में बड़े व्‍यापक और घर, तकिये और आपके चप्‍पल तक में घुसे वही इकहरे इकलौते अनूठे हीरोगिरी वाले वैल्‍यू को सब्‍सक्राइब कर रहे हैं- जिसमें बहुत थोड़े लोग ही हैं जो हीरो हैं, बाकी समाज का लातखाया, हाशिये पर छूटा, दुनिया से भुलाया तबका अपने घर में अपने को चाहे जो समझता हो, आपकी नज़रों में कुत्‍ता ही है. अपने जीवनरक्षा या अधिकार के लिए उसके ऐसे, या कैसे भी फुदकने का बहुत औचित्‍य नहीं है. फ़ि‍ल्‍म के आख़ि‍र में यूं भी कुत्‍तों की किसे याद रहती है, मगर हीरो का बचना, किसी भी सूरत में, लाजिमी होता है. हीरो बचेगा ही. समाज में जब तक ऐसे गहरे धंसे कुत्‍ता मूल्‍य हैं, हीरो का कौन बाल बांका करनेवाला हुआ. हीरो जिंदाबाद.  

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