Thursday, February 18, 2016

सत्य के प्रयोग की भूमिका


आत्मकथा लिखने का मेरा आशय नहीं है. मुझे तो आत्मकथा के बहाने सत्य के जो अनेक प्रयोग मैंने किये हैं, उसकी कथा लिखनी है. उसमें मेरा जीवन ओतप्रोत होने के कारण कथा एक जीवन ओतप्रोत होने के कारण कथा एक जीवन-वृत्तान्त जैसी बन जायेगी, यह सहीं है; लेकिन उसके हर पन्ने पर मेरे प्रयोग ही प्रकट हो तो मैं स्वयं इस कथा को निर्दोष मानूँगा. मैं ऐसा मानता हूँ कि मेरे सब प्रयोगों का पूरा लेखा जनता के सामने रहे, तो वह लाभदायक सिद्ध होगा अथवा यों समझिये कि मेरा मोह है. राजनीति के क्षेत्र में हुए प्रयोगों को तो अब हिन्दुस्तान जानता है, लेकिन मेरे आध्यात्मिक प्रयोगों को, जिन्हें मैं जान सकता हूँ, और जिनके कारण राजनीति के क्षेत्र में मेरी शक्ति भी जन्मी है, उन प्रयोगों का वर्णन करना मुझे अवश्य ही अच्छा लगेगा. अगर ये प्रयोग सचमुच आध्यात्मिक हैं तो इनमें गर्व करने की गुंजाइश ही नहीं. इनमें तो केवल नम्रता की ही वृद्धि होगी. ज्यों-ज्यों मैं अपने भूतकाल के जीवन पर दृष्टि डालता जाता हूँ, त्यों-त्यों अपनी अल्पता स्पष्ट ही देख सकता हूँ.

मुझे जो करना है, तीस वर्षों से मैं जिसकी आतुर-भाव से रट लगाये हुए हूँ वह तो आत्मदर्शन है,. ईश्वर का साक्षात्कार है, मोक्ष है. मेरे सारे काम इसी दृष्टि से होते हैं. मेरा सब लेखन भी इसी दृष्टि से होता है; और मेरा राजनीति के क्षेत्र में पड़ना भी इसी वस्तु के अधीन है. लेकिन ठेठ से ही मेरा यह मत रहा है कि जो एक के लिए शक्य है, वह सबके लिये भी शक्य है. इस कारण मेरे प्रयोग खानगी नहीं हुए-नहीं रहे. उन्हें सब देख सके, तो मुझे नहीं लगता कि उससे उनकी आध्यात्मिकता कम होगी. ऐसी कुछ चीजें अवश्य हैं कि जिन्हें आत्मा ही जानती है, जो आत्मा में ही समा जाती हैं परन्तु ऐसी वस्तु देना, यह मेरी शक्ति से परे की बात है. मेरे प्रयोगों में आध्यात्मिकता का मतलब है नैतिक, धर्म का अर्थ है नीति; आत्मा की दृष्टि से पाली गयी नीति ही धर्म है.

इसलिये जिन वस्तुओं का निर्णय बालक, नौजवान और बूढ़ें करते है और कर सकते है, इस कथा में उन्हीं वस्तुओं का समावेश होगा. अगर ऐसी कथा में मैं तटस्थ भाव से निरभिमान रहकर लिख सकूँ, तो उसमें से दूसरे प्रयोग करने वालों को कुछ सामग्री मिलेगी. इन प्रयोगों के बारे में मैं किसी भी प्रकार की सम्पूर्णता का दावा नहीं करता. जिस तरह वैज्ञानिक अपने प्रयोग अतिशय नियमपूर्वक, विचारपूर्वक और बारीकी से करता है, फिर भी उसमें उत्पन्न परिणामों को वह अन्तिम नहीं करता अथवा वे परिणाम सत्य ही हैं, इस बारे में मेरा भी वैसा ही दावा है मैंने खूब आत्मनिरीक्षण किया है; एक-एक भाव की जाँच की है, उसका पृथक्करण किया हैं. किन्तु उसमें से निकले हुए परिणाम सबके लिये अन्तिम ही है, वे सच हैं अथवा वे ही सच है ऐसा दावा मैं कभी करना नहीं चाहता. हाँ यह दावा मैं अवश्य करता हूँ कि मेरी दृष्टि से ये सच हैं और इस समय तो अन्तिम जैसे ही मालूम होते हैं. अगर न मालूम हो तो मुझे उनके सहारे कोई भी कार्य खड़ा नहीं करना चाहिये. लेकिन मैं तो पग-पग पर जिन-जिन वस्तुओं को देखता हूँ उनके त्याज्य और ग्राह्य-ऐसे दो भाग कर लेता हूँ, और जिन्हें ग्राह्य समझता हूँ, उनके अनुसार अपना आचरण बना लेता हूँ. और जब तक इस तरह बना हुआ आचरण मुझे, अर्थात् मेरी बुद्धि को और मेरी आत्मा को सन्तोष देता है , तब तक मुझे उसके शुभ परिणामों के बारे में अविचलित विश्वास रखना ही चाहिए.

मैं तो सिर्फ यह चाहता हूँ कि उनमें बतायें गये प्रयोगों को दृष्टान्तरूप मानकर सब अपने-अपने प्रयोग यथाशक्ति करें. मुझे विश्वास है कि इस संकुचित क्षेत्र में आत्मकथा के मेरे लेखों से बहुत कुछ मिल सकेगा; क्योंकि कहने योग्य एक भी बात मैं छिपाऊँगा नहीं. मुझे आशा है कि मैं अपने दोषों का खयाल पाठकों को पूरी तरह दे सकूँगा. मुझे सत्य के शास्त्रीय प्रयोगों का वर्णन करना हैं; मैं कितना भला हूँ, इसका वर्णन करने की मेरी तनिक भी इच्छा नहीं होती है. जिस गज से स्वयं मैं अपने को मापना चाहता हूँ जिसका उपयोग हम सबको अपने-अपने विषय में करना चाहिये, उसके अनुसार तो मैं अवश्य कहूँगा कि उनसेतो अभी मैं दूर हूँ.

आश्रम साबरमती
26 नवम्बर, 1925


No comments: