Tuesday, January 24, 2017

हल्द्वानी के किस्से - 5 - बारह


(पिछली क़िस्त से आगे)

परमौत की प्रेम कथा - भाग बारह

चाभी के नब्बू डीयर के पास रह जाने के दुर्योग के लिए हरुवा के भन्चकत्व को ज़िम्मेदार बताने के उपरान्त परमौत ने रात के काफ़ी हो जाने और नब्बू डीयर के घर जाने में आने वाली दिक्कतों का हवाला देते हुए मोबाइल पाल्टी करने का प्रस्ताव दिया जिसे तुरंत मान लिया गया. मोबाइल पाल्टी का मतलब होता था गली-गली घूमकर नगर का अनुसंधान करना और मौज काटना. परमौत हरुवा द्वारा ऑलरेडी खोल ली गयी बोतल देखकर थोड़ा सा भड़का लेकिन गिरधारी ने यह कहकर मामला सम्हाल लिया कि उसका मंगल का व्रत था और वह पीने का इरादा नहीं रखता अर्थात उन दोनों के लिए पर्याप्त कोटा बचा हुआ था.

सब्ज़ीमंडी से लगी गली से बाहर आते ही उन्हें राका टकरा गया. ये सज्जन नाहिद पिक्चर हॉल के आगे दिन में आलू-छोले और शाम को मीट-भात का ठेला लगाते थे. मंगल होने के कारण उनकी शाम की छुट्टी थी. परंपरानुसार हल्द्वानी के मीटखोर उस दिन हनुमान जी के नाम पर नगर के मुर्गों-बकरों को एक दिन और जी लेने की मोहलत देकर अपना परलोक सुधारा करते हैं. परमौत को देखते ही राका उसके गले से लग गया. फिर वह गिरधारी लम्बू से लिपटा. उस पर पिछले चार महीने से मसालों की बकायेदारी ड्यू थी और उसने इस बाबत अपनी माली हालत और समाज में व्याप्त कलयुग के हवालों से परमौत की सहानुभूति पाने का प्रयास करना शुरू किया लेकिन पिरियाविरहग्रस्त परमौत की दिलचस्पी फिलहाल न राका से उगाही करने में थी न बिजनेस की बात करने में. वह सीधे मुद्दे पर आया - "पिएगा?"

"पिक्चर देखेगा परमौद्दा?" राका ने प्रस्ताव के उत्तर में प्रस्ताव प्रस्तुत किया.

"रात के ग्यारह बजे कौन सा पिक्चर हॉल जो खुल रहा होगा अभी ..." हरुवा भन्चक का अभी तक राका से परिचय नहीं करवाया गया था लेकिन किसी भी वार्तालाप में घुस जाने की उसे आदत थी.

राका ने हरुवा की तरफ एक उड़ती सी नज़र डाली और सवालिया तरीके से परमौत की तरफ देखते हुए पूछा - "ये दाज्यू कौन हुए?"

"अबे दाज्यू नहीं कका हैं कका. हरुवा कका."

"ओहो नमस्कार कका. मैं राका हुआ. छोटा-मोटा बिजनस चलने वाला ठैरा अपना परमौद्दा की दया से ... और पिक्चर हॉल भी अपना ही लगाओ ...." कहते हुए उसने अपनी कमीज़ के पेट के भीतर हाथ डालकर भीतर अड़ाया हुआ एक वीडियो कैसेट निकाला.

"कौन सी है राका भाई?"

"रामायण है और कौन सी." उसने आँख मारते हुए कहा. चेहरे पर हरामियत लाते हुए उसने जोड़ा - "वोई वाली है. मंगल के दिन यई चलने वाली हुई ... " 

यह धर्मसंकट की वेला थी. परमौत ने अभी-अभी बाजार में आई और सिर्फ वीसीआर में चलने वाली इस रामायण की बाबत नब्बू डीयर की रसीली रिपोर्टिंग सुन रखी थी और उसे देखकर आने वाली मौज को लेकर उसके मन में अभी असमंजस था. अलबत्ता गिरधारी दो-तीन बार इस कृत्य को कर चुका था. दोनों मन ही मन सोच रहे थे कि काश हरुवा भन्चक साथ न होता. राका का प्रस्ताव पर्याप्त ललचाने वाला था लेकिन रिश्ते के चाचा के साथ बैठकर दूसरी वाली रामायण देखना असुविधाजनक और अटपटा लगता. वे कुछ कह पाते उसके पहले ही हरुवा बोल पड़ा - "अहा रे. ये तो भीसीआर वाली कैसिट है. चल यार परमोदौ
, पिक्चर ही देख आते हैं ..."

"छोड़ यार कका, टाइम भौत लग जाएगा पिक्चर में. मुझे काम है सुबे-सुबे. काठगोदाम जाना है ..." मौके की नज़ाकत समझता हुआ बात टालने की नीयत से परमौत बोला.

"छोड़ यार ... जाता रहेगा काठगोदाम-हाठगोदाम. चलते हैं. येई दाज्यू के वहां जाके बैठते हैं. आराम से पाल्टी भी होगी और भीसीआर में रामायण भी देखी जाएगी. आज तो वैसे भी भौत्ती सुभ दिन ठैरा. ऊपर से ये बोतल भी चुभने लग गयी अब ..." हरुवा ने अपने पेट की तरफ इशारा करते हुए प्रतिवाद किया.

"तो निकालता क्यों नहीं बाहर साली को ... कोई पव्वा जो क्या पैदा हो रहा उसको पेट में अड़ाके रखने से. रात का टाइम हुआ. कौन साला देख रहा हमारी बोतल ... जरा दिखा तो एक मिनट ..."

हरुवा भन्चक ने बोतल बाहर निकालकर परमौत को दी. अपने चेहरों को यथासंभव विकृत बनाते हुए बारी-बारी से सबने उसमें से एक-एक नीट खेंचा और कुछ देर को पिक्चर पुराण बैकग्राउंड में चला गया. चारों की चाल में आत्मविश्वास की मात्रा में इजाफ़ा हुआ और वे राका के निर्देशन में खरामा-खरामा भुक्खन हलवाई वाले चौराहे की तरफ अग्रसर हुए.

रात के समय इस इलाके को देखना परमौत को सदैव आकर्षित करता था. दिन भर इस संकरी सड़क पर रिक्शों, स्कूटरों, साइकिलों, ग्राहकों, फल-सब्ज़ी-मसाले-चूरन-टॉर्च-लत्ते वगैरह बेचनेवालों और गाय-कुत्ते-सांडों के महती प्रयासों द्वारा जिस दृश्य की सर्जना होती थी उसे देखकर लगता था कि समूचे एशिया की आबादी को मार्शललॉ लगाकर यह आदेश दिया गया था कि वह दिन में कम से कम एक बार इस सड़क का फेरा लगाए.

फिलहाल सड़क पर फलों की पेटियों से निकली हुई फूस, सड़े-गले टमाटरों-सब्जियों और कीच की डेढ़-दो इंची बहार पसरी हुई थी. गतिविधि के नाम पर कोई आधा दर्ज़न कुत्तों की कुलेल और दिन भर की थकान के बाद खुद को उक्त कीच में स्थापित कर चुकी आराम करती गायों की पूँछें और कान थे. सार्वजनिक सुविधा के लिए खम्भों पर लगाए गए बल्बों को रात्रिचर मद्यपों और चोट्टों की सुविधा के लिए महात्माओं द्वारा गायब कर लिया गया था और समूचा इलाका उसी नीमअँधेरे की आगोश में था जो उर्दू के शायरों को सबसे ज्यादा पसंद आता है.

बोतल के बाहर आने के साथ ही वीसीआर की बात अपने आप दरकिनार हो गयी थी और भुक्खन हलवाई वाले चौराहे से लगे मुख्य रोड वाले अगले चौराहे तक आते आते बोतल को आधे से ऊपर निबटाया जा चुका था. देहों की हल्की उड़ान दे देने वाली मस्ती ने चारों के भीतर प्रवेश करना शुरू कर दिया था और वे बेबात ठहाके लगाने लगे. चौराहे पर एक दूकान की कुर्सी लगाए ऊंघता पुलिसवाला दिखा तो हरुवा ने हड़बड़ी में बोतल को वापस पेट में अड़ाने का प्रयास करना शुरू किया.

"कका डर किस से रहे हो यार फालतू में. दिल्ली-फिल्ली जो क्या है साली. हल्द्वानी है हल्द्वानी और यहाँ चलनेवाला हुआ तुम्हारे भतीजों का राज ... जरा लाओ तो ..."  कहकर राका ने बीच चौराहे पर बोतल खोली और एक लंबा खेंचकर "हंहो दीवानज्यू लगाते हो एक ..." कहकर पुलिसवाले को संबोधित किया. पुलिसवाले ने आँखें फैलाईं और श्रमपूर्वक राका को पहचाना.

"घर जाओ रे घर सालो." कहकर उसने हमें इशारे से अपने नज़दीक बुलाया. ज़ाहिर तौर पर राका पुलिसवाले का अन्तरंग पूर्वपरिचित था. इसकी पुष्टि करते हुए दोनों ने एक दूसरे का अभिवादन '' वाली गाली से किया. पुलिसवाले को ऐसा व्यवहार करता देखकर हरुवा की बंधी हुई घिग्घी खुल गयी और वह हैरान होकर राका द्वारा दीवानजी को बोतल पेश किया जाता देख रहा था.

"कहीं हमारी कम न पड़ जाए परमोदौ यार" हरुवा भन्चक ने फुसफुसाकर कान में कहा तो परमौत ने झिड़की लगाई - "रात भर जित्ती कहेगा उत्ती ले आऊँगा ... कोई गाँव जो क्या है यहाँ तेरा ...."

पुलिसवाला सज्जन और धर्मपरायण गृहस्थ निकला. उसने मंगलवार होने का हवाला देते हुए दारू पीने से मना कर दिया और राका समेत चारों को दुबारा से घर जाने की सलाह दी और सबसे हाथ भी मिलाया. इस संक्षिप्त लेकिन मानीखेज घटनाक्रम ने हरुवा भन्चक को राका के अच्छे खासे प्रभाव में ला दिया. जो आदमी पुलिस वाले के साथ गाली-गुप्ता कर सकता हो वह महामानव से कम नहीं था.

पांचेक मिनट के भीतर वे तेल मिल वाली गली में घुस गए. इस गली के बीच में एक दुमंजिला घर था जिसमें मीनानाम्नी गिरधारी लम्बू की काल्पनिक प्रेमिका रहती थी. हम लोगों ने मोबाइल पाल्टी के दौरान इस घर के बाहर दो बार सीटी बजाने का रिवाज़ कायम किया हुआ था जिसे परमौत और गिरधारी ने टूटने नहीं दिया. राका और हरुवा की समझ में कुछ नहीं आया तो गिरधारी ने तनिक झेंप के साथ कहा - "परमौद्दा की बहू का घर है वो उप्पर वाला."

गिरधारी द्वारा परमौत की बहू अर्थात अपनी होने वाली शरीके-हयात का ज़िक्र किये जाने से हरुवा भन्चक इमोशनल होता हुआ और गिरधारी को छेड़ता हुआ बोला - "मल्लब तू भी लभर ... गज्जब यार! लेकिन कौन सा वाला - पतंगा टाइप कि भौंरा टाइप? ...."  गिरधारी वाकई में छिड़ गया और शर्माता हुआ "छोड़ो यार चचा, कहाँ लगे हो ..." कहकर अपना पिंड छुड़ाने लगा..

पेट में घुसे जीवनजल ने राका के ज्ञानचक्षु भी खोल दिए थे और वार्तालाप में निहित गहराई समझकर वह खुद को शामिल होने से न रोक सका - "मैं तो एक बात जानता हूँ यार परमौद्दा. कुछ नहीं होने वाला हुआ साला ये प्यार-फ्यार. खाली आदमी को चूतिया बनाने का जुगाड़ बनाया ठैरा भगवान ने. मेरा तो तुमको मालूम ही हुआ वो स्कूल वाला. अभी तक चल रहा है साला. कभी हाँ कहने वाला हुआ अगले दिन फिर ना. फिर हाँ कहेगा फिर ना. कोई बात जो क्या ठैरी ... बताओ ..."

राका ने अपनी प्रेमिका का ज़िक्र पुल्लिंग में किया. यह भी नगर के शोहदों द्वारा स्थापित की गयी एक पुरातन परम्परा थी. खैर. राका की बात सुनते ही परमौत बोल उठा - "अबे वो मास्टर की लौंडिया ... अभी भी मल्लब ... तेरी तो शादी होने वाली थी बल उससे ..."

"घंटा शादी होती है यार परमौद्दा! बाबू नहीं मान रहे कहती है हर महीने ... तीन साल से चूरन काट रखा है पैन्चो ..."

"मतलब तेरी उससे बात होती है?"

"ल्ले ... बात क्यों नहीं होगी. बात तो हर हफ्ते. बस बाबू नहीं मान रहे, बाबू नहीं मान रहे कहने वाली हुई ..."      

राका जैसे बेमतलब इंसान के जीवन में एक ठोस प्रेमिका की उपस्थिति होने की सूचना ने परमौत को विह्वल कर दिया. उसे पिरिया की याद आने लगी थी और वह घर जाकर अपनी और पिरिया की पिक्चर को देखना जारी रखना चाह रहा था जिसे वह हरुवा भन्चक के चक्कर में बीच में छोड़ आया था.

"राका गुरु, वो रामायण का क्या करते हो कहा ...?" गिरधारी ने अपनी लपलप करती इच्छा के आगे परास्त होते हुए फिर से वीसीआर प्रकरण छेड़ दिया.

"अब जैसा परमौद्दा कहता है ... मेरे यहाँ तो सब व्यवस्था ठैरी ही मल्लब ..."

परमौत का विह्वल मन अब लालच की तरफ झुकने लगा. "चले तो जाते पर हरुवा चचा जाने क्या समझेगा ..."

"ल्ले ... क्या सोचता है हरीसचन्न. मैं तो कब से कै रा हूँ कि चलते हैं रामायण देखने ... "

"अरे यार चचा ये वैसी वाली रामायण नहीं है ..." हिम्मत करते हुए परमौत ने बोल दिया.

"अब वैसी वाली नहीं है तो फिर कैसी वाली हुई रामायण?" हरुवा ने विस्मय के साथ पूछा.

"मल्लब ... तुमारे मल्लब की नहीं है ... "

"मेरे मल्लब की नहीं है मल्लब?"

"अरे यार चचा, बड़ों वाली पिक्चर है वो अठार साल से जादे वाली ..."

"तो यार परमोदौ मैं तुझसे तो तीन-चार महीने बड़ा हुआ ... तू देख सकने वाला हुआ तो मैं क्यों नहीं ..."

"वो बात जो क्या कै रहा हूँ ... मल्लब गंदी वाली पिक्चर है यार चचा ... अब समझ लो"

"फिर क्या हुआ. पिक्चर तो पिक्चर ही हुई ..."

उर्दू में इस स्थिति को हमाम में सबका एक साथ नंगा हो जाना कहा जाता है. तो सब कुछ तय हो जाने के बाद जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाकर एक बार पुनः घंटी दबाकर एक और बोतल समझी गयी, रोडवेज़ जाकर एक-एक बन-आमलेट सूता गया और पर्याप्त मात्र में चना-चबेना लेकर चारों ने रामायण-सत्संग के उद्देश्य से राका गुरु के आस्ताने का रुख किया.

राका की खोली रहने की कम, रसद के भंडारण की जगह ज़्यादा थी. दीवार से लगाकर एक तरफ को आलू-प्याज के तीन-चार बोरे खड़े किये हुए थे, जिनकी बगल में आटा-बेसन और मसालों के कट्टे व्यवस्थित थे. एक कोने पर तेल और कालिख में सनी गैस-भट्टी थी. गैस भट्टी से सटाकर एक बड़ी सी मेज़ लगी थी जिस के ऊपर दुनिया भर की भांग बिखरी हुई थी. इस भांग के बीच धूल खाए और कांच लगे एक फ्रेम में मधुबाला जैसी दिखने वाली अलबत्ता तनिक ढैंणी अर्थात भैंगी अर्थात एलएलटीटी लड़की का फोटो चस्पां था. एक दीवार पर करीब दस लाख खूँटियाँ टंगी हुई थीं जिनपर तमाम पोंछे, गंदे तौलिये और राका की लॉन्जरी सजाये गए थे. राका की प्लास्टिक की निवाड़ वाली फोल्डिंग खाट ने खोली का अच्छा खासा क्षेत्रफल घेरा हुआ था जिसपर पड़ी बेतरतीब मटमैली रज़ाई  भुक्खन हलवाई की दुकान के आगे बैठी रहने वाली बछिया की तरह लग रही थी. खाट के नीचे से असंख्य लकड़ी-गत्ते की पेटियां और छोटी-बड़ी फांची-फुन्तरियाँ अर्थात पोटलियाँ आगंतुकों को बहुत लाड़ के साथ देख रही थीं.

पहली निगाह में ही यह खोली रामायण देखने के लिए आदर्श जगह नज़र आती थी.

(जारी)

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