Monday, May 1, 2017

मैं तैनूं फेर मिलांगी - कबाड़खाने की 5000 पोस्ट्स

यह मेरी दोस्त शायदा बानो के ब्लॉग उनींदरा की पहली पोस्ट है. बल्कि इसे उनकी  पहली चार पोस्ट्स को इकठ्ठा कर बनाया गया है. 2008 के अगस्त की यह पोस्ट जैसे किसी बहुत पुराने समय की बात लगती है जब हिन्दी में नई-नई शुरू हुई ब्लॉगिंग को लेकर अभूतपूर्व उत्साह था. न फेसबुक था न ट्विटर.

शायदा के लेखन  का मैं तब भी फैन था आज भी हूँ. मीठी उदासी और गहरे अपनेपन से भरे अवसाद में डूबी उनके उनींदरे की भाषा हिन्दी में अद्वितीय है. यह अलग बात है कि उन्होंने ब्लॉग पर लिखना लम्बे समय से बंद किया हुआ है और मैं उनसे एकाधिक बार इसे पुनर्जीवित करने की दरख्वास्त कर चुका हूँ. कबाड़खाने की 5000 पोस्ट पूरी होने के मौके पर उनकी यह पोस्ट यहाँ पेश करता हुआ मैं उनसे इस निवेदन को यह कहते हुए दोहरा रहा हूँ कि हमें आपका लिखा सारा कुछ याद है और हमें उसकी बहुत याद आती है. हम आपके नए लफ़्ज़ों को पढ़ने के इंतज़ार में हैं.

इमरोज़ और अमृता

मैं तैनूं फेर मिलांगी

हम ऑनलाइन थे, लेकिन निरुपमा को अपनी बात कहने के लिए फोन करना ठीक लगता है. बताया ... इमरोज़ आ रहे हैं. सात तारीख़ को दोपहर में तुम भी आ जाओ. पहुंची, तो देखा पूरा घर अमृता की पेंटिंग्स और स्केचेज़ से सजा था. जैसे बारात आई हो निरुपमा के घर और दूल्हा बने बैठे हों इमरोज़. तक़रीबन पंद्रह बरस के बाद देखा था उन्हें. लगा, जैसे उनका चेहरा अमृता जैसा होता जा रहा है, प्रेम का संक्रमण ऐसा भी होता है क्या ... थोड़ी देर में ही निरुपमा दत्त का घर दोस्तों से भर गया. इमरोज़ ने नज़्म पढ़ना शुरू किया. एक के बाद एक, पढ़ते गए. हाथ में फोटोस्टेट किए पचास से ज़्यादा काग़ज़ थे. सबमें अमृता. वो उसके अलावा कुछ और सोच सकते हैं क्या, मुझे लगा नहीं और कुछ सोचना भी नहीं चाहिए उन्हें. 

एक थी अमृता ... कहने से पहले ही इमरोज़ टोक देते हैं. फिर दुरुस्त कराते हैं - कहो एक है अमृता. हां, उनके लिए अमृता कहीं गई ही नहीं. कहने लगे - एक तसव्वुर इतना गाढ़ा है कि उसमें किसी ऐसी हक़ीक़त का ख़याल ही नहीं कर पाता, जिसमें मैं अकेला हूं. हम उस घर में जैसे पहले रहते थे, वैसे ही अब भी रहते हैं. लोग कहते हैं, अमृता नहीं रही ... मैं कहता हूं-हां, उसने जिस्म छोड़ दिया, पर साथ नहीं. ये बात कोई और कहता, तो कितनी किताबी-सी लगती. उनके मुंह से सुना, तो लगा जैसे कोई इश्कि़या दरवेश एक सच्चे कि़स्से की शुरुआत करने बैठा है. उन्होंने सुनाया- प्यार सबतों सरल इबादत है ...सादे पाणी वरगी. हां, ऐसा ही तो है, बिलकुल ऐसा ही, हम कह उठते हैं. लेकिन ये सादा पानी कितनों के नसीब में है... इस पानी में कोई न कोई रंग मिलाकर ही तो देख पाते हैं हम. वो ताब ही कहां है, जो इस पानी की सादगी को झेल सके. 

घर के बाहर बरसात थी और अंदर भी. नज़्मों और रूह से गिरते उन आंसुओं की, जो कइयों को भिगो रहे थे. पहली मुलाक़ात का जि़क्र हमेशा से करते आए हैं, एक बार फिर सुनाने लगे- उसे एक किताब का कवर बनवाना था. मैंने उस दिन के बाद सारे रंगों को उसी के नाम कर दिया. जहां इमरोज़ बैठे थे, ठीक पीछे एक ब्लैक एंड व्हाइट फोटो रखा था. एक रेलिंग के सहारे हाथ में हाथ पकड़े उन दोनों को देखकर मैंने पूछा, ये कहां का है. उन्होंने बताया- जब हम पहली बार घूमने निकले, तो पठानकोट बस स्टैंड पर ये फोटो खिंचवाया था. इमरोज़ को रंगों से खेलना अच्छा लगता है, लेकिन अपनी जि़ंदगी में वे बहुत सीधे तौर पर ब्लैक एंड व्हाइट को तरजीह देते हैं. यहां तक कि अपने कमरे की चादरों में भी यही रंग पसंद हैं उन्हें, जबकि अमृता के कमरे में हमेशा रंगीन चादरों को देखा गया. 

ये सोचना कई बार मुश्किल होता है कि क्‍या रब ने अमृता-इमरोज़ को इसी दुनिया के लिए बनाकर भेजा था ... फिर ये भी लगता है कि दुनिया में प्‍यार का नाम बाक़ी रहे इसके लिए उसे कुछ न कुछ तो करना ही था न. पर क्‍या इन्‍हें बनाने के बाद रब ने सांचा ही तोड़ डाला ... अगर नहीं, तो क्‍यों नहीं दिखते, और कहीं अमृता-इमरोज़...! मेरी सोच गहरी हो जाती, तो वे टोक कर कहते, मेरी नज्‍़मां नईं सुनदी ... मैं फिर सुनने लगती ध्‍यान से. बताने लगे "हम एक बार ऐसे ही घूम रहे थे कि अमृता ने पूछा- पैलां वी किसी दे नाल तुरयां ए (पहले भी कभी किसी के साथ घूमे हो) मैंने कहा-हां तुरयां हां, पर जागा किसे दे नाल नईं (हां, घूमा हूं लेकिन जागा किसी के साथ नहीं). इसके बाद उसने मेरा हाथ ज़ोर से पकड़ लिया और इस तरह चल पड़ी जैसे सारी सरहदें पार करके आगे जाना हो." इमरोज़ ने अपनी जाग को फिर कभी ऊंघने नहीं दिया, अमृता के सो जाने के बाद भी.

अमृता-साहिर.इमरोज़ ... ये त्रिकोण होकर भी तिकोना नहीं दिखता. ... कैसी अजीब बात है. इसके कोनों को किसने घिसकर इतना रवां कर दिया कि वे किसी को चुभते ही नहीं. क्‍या था ऐसा. ... इमरोज़ बताते हैं - साहिर उसकी मुहब्‍बत था, मैं उससे कैसे इन्‍कार करता. बरसों से जो वो दिल में रखे थे उसे निकाल फेंकने की कू़वत मुझमें नहीं थी, शायद सच्‍चा इश्‍क़ करने वाले किसी भी इंसान में ऐसी कू़वत नहीं होती. वो तो बस सबकुछ सौंप देता है आँख बंद करके, फिर सामने वाले की मर्जी़, वो चाहे जो करे. अमृता की किताबों में दर्ज कि़स्‍से को दोहराते हुए उन्‍होंने कहा "एक बार वो कहीं इंटरव्यू दे आई कि जब वो स्‍कूटर पर पीछे बैठती है तो मेरी पीठ पर उंगली से साहिर-साहिर लिखती रहती है. ये बात मुझे पता नहीं थी. इंटरव्यू आने के बाद लोग मुझसे सवाल करने लगे. मेरा जवाब था- लिखती है तो क्‍या हुआ. ... ये पीठ भी उसकी है और साहिर भी उसीका, वो चाहे जो करे". क्‍या सचमुच इतना आसान रहा होगा इसे सहना. ... उन्‍होंने कहा - हां बिलकुल, मैंने उससे मिलने के बाद ही जाना कि अपने आप को सौंपते वक्‍़त किसी तरह की जिरह की कोई गुंजाइश उठाकर नहीं रखी जाती. खु़द को देना होता है पूरा का पूरा. कुछ भी बचाकर नहीं रखा जाता. कितना सच था इस बात में, वाक़ई कुछ उठाकर रख लेने से ही तो बदनीयती आती है.

वे एक साथ हौज़ ख़ास वाले घर में रहे. मैं अंदाजा लगाना चाहती थी इस प्रेम के भौतिक स्‍वरूप का. उन्‍होंने भांपा और बोले-जब शरीर के साथ उस घर में मेरे साथ थी तो हम दोनों मिलकर ख़र्च करते थे. किचन का सामान भरते और साथ मिलकर ही बाक़ी ख़र्च चलाते. कभी पैसे को लेकर कोई सवाल आया ही नहीं. मुझे याद है कि जब मैं इंश्‍योरेंस करवा रहा था तो एजेंट ने पूछा नॉमिनी कौन? मेरा उसके सिवा कौन था जो नाम लेता, कहा अमृता, एजेंट ने पूछा रिश्‍ता बताओ, मैंने वहां लिखवाया दोस्‍त. क्‍योंकि उस जगह को भरने के लिए एक शब्‍द की ज़रूरत थी. हमारा रिश्‍ता इस शब्‍द का मोहताज नहीं था पर क़ाग़ज़ का पेट भरना ही पड़ा. एजेंट मेरी तरफ़ देखकर हैरान था कि क्‍या दोस्‍त को भी कोई नॉमिनी बनाता है. उसे मेरी बात समझ आनी नहीं थी इसलिए समझाया भी नहीं. बाद में जब वो पॉलिसी मेच्‍योर हुई उसका पैसा हमने साथ मिलकर ख़र्च किया. इमरोज़ फिर सुनाने लगे - दुनिया विच कोई प्राप्ति बणदी ... जे मुहब्‍बत कामयाब न होवे ...

सच को दूर से देखो तो उस पर सहज ही विश्वास हो जाता है. सामने आकर खड़ा हो जाए तो उसे छूकर, परख लेने का जी होता है. शायद हम तसल्ली कर लेना चाहते हैं कि सच को छूना ऐसा होता है, उसे जान लेना ऐसा होता है. अमृता-इमरोज़ का प्रेम ऐसा सच है जो पूरा का पूरा उजागर है. कहीं कुछ छिपा हुआ नहीं दिखता ... तो भी इमरोज़ को सामने पाकर इच्छा होती है जान लेने कि फलां बात कैसे शुरू हुई थी, फलां वक़्त क्या गुज़री थी उनपर. यही वजह थी दोपहर से लेकर शाम तक इमरोज अमृता की ही बातें करते रहे. ये सारी बातें वही थीं जो हम अब तक कई बार पढ़ चुके थे, सुन चुके थे. 

इमरोज़ सुनाने लगे- उड़दे क़ाग़ज़ ते मैं उसनूं नज्मां लिखदा रहंदा हां, जदों वी कोई पंछी आके मेरे बनेरे ते आ बैठदा, मैं जवाब पढ़ लेंदा हां ... नज़्मों का अमृता तक जाना और उसके जवाब का आ जाना ... ये बात शायद किसी के लिए एक ख़याल भर हो सकती है, लेकिन इमरोज़ के लिए उतना ही सच है, जितना उनके आंगन में खिले वो हरे बूटे जिन्हें पानी देते हुए वे अक्सर 'बरकते...' कहकर अमृता को पुकारा करते थे. उनमें से कुछ पौधों ने उन्हें साथ देखा ही होगा न, और उस बनेरे ने भी... जिस पर आकर पंछी बैठते हैं. मुझे लगा कि उन्हें साथ देखकर ही किसी दिन पंछी और बनेरे के बीच तय हुआ होगा इस संदेस के ले जाने और लाने का मामला. 

इमरोज़ उस घर में रहते हैं जहां अमृता का परिवार है. जब मैंने पहली बार वो घर देखा तो ऊपरी तरफ़ कुछ विदेशी लड़कियां किराए पर रहती थीं. और नीचे की जगह में 'नागमणि' का दफ़्तर था. अब वहां क्या है...? इमरोज़ बताते हैं- अब नीचे भी किराए पर दे दी है जगह. अपनी जेब से इमरोज़ काग़ज़ का पैकेट सा निकालते हैं. पता चला वे चमड़े का बटुवा नहीं रखते. एक काग़ज के लिफ़ाफे़ में पैसे रखकर उस पर कुछ टेलीफोन नंबर लिखते हैं जिन्हें इमरजेंसी में कॉल किया जा सके. ये नंबर उनके हैं जो अमृता के बच्चे हैं. इमरोज़ और अमृता के नहीं. इतना साथ, इतना प्यार, इतना समर्पण, तो इन दोनों के बच्चे क्यों नहीं? इमरोज़ बताते हैं- अमृता तो पहले ही दो बच्चों की मां थी. हमने मिलकर तय किया था कि इनके अलावा हम और कुछ नहीं सोचेंगे. लेकिन क्या तय कर लेना भर काफ़ी था, अपनी इच्छाओं के आगे...? उन्होंने कहा- काफ़ी नहीं था पर हमने इसे मुमकिन कर लिया था. एक बार मैंने उसे कहा- अगली बार जब मिलेंगे, तो हम अपने बच्चे पैदा करेंगे... बस इस बार तू मुझसे पहले ही ब्याह मत कर लेना. अमृता ने जाते-जाते भी मुझसे यही कहा है न - मैं तैनूं फेर मिलांगी...

इमरोज़ उस तस्वीर को देख रहे थे जिसमें अमृता उनके हाथ में खाने की थाली पकड़ा रही हैं. तस्वीर का सच उनके चेहरे पर उतर कर आ बैठा था. मानो कह रहा हो, कितने मूर्ख हो तुम सब, जो इस रिश्ते को परिभाषा में बांधने की बात करते हो. इस तस्वीर को देखो और दुनिया की किसी भी पतिव्रता के चेहरे से उसका मिलान कर लो, कहीं भी कोई भाव को उतार पाएगी क्या, जो अम्रता की आंखों में नजर आ रहा है. अमृता दाएं हाथ से थाली पकड़ा रही हैं और इमरोज़ दोनों हाथों से उसे स्वीकार कर रहे हैं. ये महज तस्वीर नहीं है, इसमें एक फ़लसफ़ा नज़र आ रहा है. किसी को खुद को सौंप देने का, किसी का उसे दोनों हाथों से स्वीकार कर लेने का, हमेशा-हमेशा के लिए. ग़ौर से देखेंगे, तो आप भी पाएंगे कि वहां रखे पतीले और चमचे से लेकर हर छोटी-बड़ी चीज़ बुलंद आवाज़ में बता रही है कि यहां किसी ऐसे सीमेंट की ज़रूरत नहीं है, जो इन दोनों को पक्के जोड़ में जकड़ दे. न ही किसी ऐसी भीड़ की ज़रूरत, जिसकी गवाही में इन दोनों को बताना पड़े कि हां हमें साथ रहना है अब. एक वक़्त की रोटी जब इस तरह साथ खाई जाती है, तो फिर जन्म भर क्या किसी और थाली से खाने की भूख रह जाती होगी..... इमरोज़ शायद इसीलिए कभी किसी और ठौर पर रोटी खाने नहीं गए होंगे. 

हम सब अपने-अपने इमरोज़ को ढूँढ रही हैं. परन्तु क्या इतने इमरोज़ इस संसार ने पैदा किये हैं?....ऐसे ही सवाल निरुपमा में घर में भी उठे थे उस दिन. लंबी बातचीत के बीच कभी कोई कह उठती हमें इमरोज़ क्यों नहीं मिला.. तो किसी ने कहा- हमारे हिस्से का इमरोज़ कहां है....? कहां है वो शख्स जो अपनी पीठ पर एक गै़र नाम की इबारत को महसूस करते हुए भी पीठ नहीं दिखाता? एक हाथ से दी गई थाली को दो हाथों से स्वीकार करते हुए अपने चेहरे पर एक शिकन तक आने नहीं देता... कहां है वो प्रेम जो खु़द को मिटा देने की बात करता है.... कहां है वो इंसान जो किसी के चले जाने के बाद भी उसके साथ होने की बात करता है? हम सब ढूंढती हैं पर वो कहीं नहीं दिखता. शायद इसलिए कि ऐसे इमरोज़ को पाने से पहले अमृता हो जाना पड़ता है. दुनियादारी की चादर को इस तरह तह करके रखकर भूल जाना होता है कि उसकी याद तक न आए. उस चादर को बिना बरते जिंदगी गुज़ार सकने की हिम्मत पैदा कर लेनी होती है. हो सकता है, बहुत सारे अमृता और इमरोज एक ही वक़्त पर एक ही जगह इसलिए भी न दिख पाते हों कि उन्हें याद ही नहीं रहा है दुनियादारी और दुश्वारियों की चादर को कैसे तह करके रखा जाता है. 

खै़र अपनी-अपनी चादरों की संभाल के बीच भी अपने-अपने इमरोज़ को ढूंढते रहा जा सकता है, क्योंकि ईश्वर अभी भी है कहीं ... मैंने उनसे इजाज़त ली और एक बार फिर ये नज़्म सुनाने को कहा -


            साथ

            उसने जिस्म छडया है, साथ नहीं 
            ओह हुण वी मिलदी है
            कदे बदलां छांवे
            कदे तारेयां दी छांवे
            कदे किरणां दी रोशनी विच
            कदे ख्यालां दे उजाले विच
            असी रल के तुरदे रैंदे वां.

            दुख-सुख, इक दूजे नूं वेख-वेख 
            कुझ कैंदे रैंदे आं 
            कुझ सुणदे रैंदे आं.
            बगीचे विच सानूं 
            तुरदेयां वेख के 
            फुल्ल हर वार सानूं बुला लेंदे हण 
            असी फुल्लां दे घेरे विच बैठ के
            फुल्लां नूं वी 
            अपणा-अपणा कलाम सुनादें आं.

            ओ अपनी अनलिखी कविता सुनांदी है
            ते मैं वी अपणी अनलिखी नज़म सुनांदा वा 
            कोल खड़ा वक्त 
            एह अनलिखी शायरी सुनदा-सुनदा 
            अपणा रोज दा 
            नेम भुल जांदा ए.
            जदों वक्त नूं 
            वक्त याद आंदा ए
            कदे शाम हो गई होंदी है 
            कदे रात उतर आई होंदी है
            ते कदे दिन चढ़या आया होंदा है.

            उसने जिस्‍म छडया है साथ नहीं.



शायदा बानो

2 comments:

शायदा said...

वाह पांडे जी। हम तो तक़रीबन भूल चले थे सब। आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया टाइप्स हो रहा है फ़िलहाल हाल। ख़ैर, सच तो ये है कि आप ही हैं जो ये कर सकते थे। दूर बैठा कोई दोस्त आपके लिए इतना सोच रहा हो, कर रहा हो ये क्या कम अचरज है आज के समय में।
बने रहिए। बहुत शुक्रिया।
बहुत बधाई 5000 पोस्ट की। ये सचमुच आपके सिवा कोई नहीं कर सकता।

Unknown said...

बहुत सुंदर कविता है साथ।