Friday, July 28, 2017

हल्द्वानी के किस्से - 5 - बाईस



भीमदा के अड्डे पर समाप्त हुई दावत को पूरी तरह समाप्त होने में दो घंटे और लगे. अपने काव्य-पराक्रम के चलते महेसिया फिलहाल परमौत का यार बन गया था. खोखे से बाहर आते हुए उसने परमौत का हाथ थाम लिया और उत्साहपूर्वक बोला – “आदमी तुम बड़िया हुए यार परमौद्दा. मजा आ गया साला.”

परमौत के प्रतिक्रिया देने से पहले ही हरुवा भन्चक बोल पड़ा – “अबे आदमी तो बड़िया ही हुआ अपना भतीजा. अब अल्मोड़े की रंगत-हंगत बी तो दिखानी हुई ऐसे बड़िया आदमी को. जगतदा गुर्जी के यहाँ चलते हो कि ... अरे मजा आ जाएगा यार कह रहा हूँ ...”

परमौत ने अगली सुबह बागेश्वर जाने की बात कहकर कुछ ना-नुकुर सी की लेकिन गिरधारी लम्बू ने हरुवा के प्रस्ताव का अनुमोदन करते हुए कहा – “कौन सा रोज-रोज अल्मोड़ा आ रहे हुए तुम यार परमौद्दा ... हरुवा कका दिखा रहे हैं तो देख ही लेते हैं साली यहाँ की रंगत जरा... क्यों महेसदा, क्या कैते हो अब?”

“अरे जैसी पंचूं की राय होती है यार”

बहुमत रंगत की मौज लूटने के पक्ष में था. ग्यारह बजने को था. जगतदा गुर्जी के घर जाना तय पाया गया. डगमगाते-लुढ़कते चारों चर्च के सामने तक पहुँच चुके थे. परमौत ने हल्की थकान महसूस की सो वह पैरापिट पर बैठ गया. बाकी तीनों ने उसका अनुसरण किया. पुरानी विक्टोरियाई पेंटिंग का आभास दे रही चर्च की इमारत के पीछे चाँद नज़र आ रहा था. चुपचाप बैठे वे उसे देखने लगे. खामोशी महेसिया की बर्दाश्त से बाहर होती इससे पहले वह बोल उठा – “... अपना क्या हुआ ... भिसौण हुए शाले अधराती मशाण के. क्या हरदा ...? गजब सीन होने वाला हुआ रात में. जब शब शाले शो जाने वाले ठैरे तब अपना कार्यक्रम सुरू होने वाला हुआ ...”

“यार वो गाना ही सुना दे महेसिया भाई जो परसों ब्राइटन से लौटते बखत गा रहा था तू ...”

“अच्छा वो वाला .... तुमको तो वैशे भी भौत पशंद आने वाला हुआ वो गाना हरदा गुरु...” दो-तीन सेकेण्ड का ब्रेक लेकर महेसिया फल्लास ने धीमे-धीमे गाना शुरू किया जैसे कोई रहस्योद्घाटन कर रहा हो – “रात्त अकेली है ... टिंग ठिंग... बुझ गय्ये दिए ... टिंग ठिंग ...”

भीमदा के अड्डे पर उदरस्थ किये गए रसायन का असर हो गया था और बिना किसी प्रस्तावना के हरुवा भन्चक ने खड़े होकर ठुमका लगाना शुरू कर दिया. सीट छोड़ते हुए महेसिया ने अपनी आवाज़ थोड़ी ऊंची करते हुए गाना आगे बढ़ाया – “... आक्के मेरे पाश ... टिंग ठिंग ... ढिन्चिक ... ढिढिन्ग...” ठुमकते हुए हरुवा ने अपना चेहरा महेसिया के नज़दीक करते हुए उसके साथ गाना शुरू किया – “कानूं में मेरे... ढिन्ग ढिन्ग ढिन्ग ढिन्ग ... जो बी चाहे कहिये ...” अचानक दोनों के भीतर जैसे एक साथ देवता ने प्रवेश किया और ‘कहिये’ की ‘ये’ को उन्होंने सांस उखड़ जाने तक खींचा और सड़क पर बाकायदा डांस करना शुरू कर दिया. गाने की रफ़्तार बढ़ा कर उन्होंने रिपीट किया -“रात्त अकेली है ... ढिन्ग ढिन्ग ढिन्ग ढिन्ग ... बुझ गय्ये दिए ...ढिन्ग ढिन्ग ढिन्ग ढिन्ग ...” फिर से ‘कहिये’ के आते ही उन्होंने लंबा आलाप लिया और एक दूसरे के हाथ थाम कर बेतरतीब बॉल-डांस शुरू कर दिया. परमौत और गिरधारी कुछ देर असमंजस में खड़े रहे लेकिन मौज का तकाजा था कि वे भी इस उत्सव में सम्मिलित हों सो उन्होंने भी खड़े होकर हल्द्वानी की बारातों में सीखा हुआ ट्विस्ट चालू किया.

अल्मोड़े की रात अब अकेली नहीं रह गयी थी. पांचेक मिनट तक चले सुगम-संगीत व नृत्य के इस एक्सटेम्पोर कार्यक्रम ने चारों को प्रफुल्लित कर दिया था और गिरधारी लम्बू ने धन्यवाद-ज्ञापन करते हुए मोहर लगाई – “मजा आ गया पैन्चो...”

मद्यप-टोली का अगला ठिकाना पोखरखाली मोहल्ले में रहनेवाले जगतदा गुर्जी का डेरा था. रास्ते में चली ठिठोली के दौरान परमौत और गिरधारी को गुर्जी की संक्षिप्त जीवन-कथा से परिचित करवाया गया और आश्वासन दिया गया कि अगर वे मूड में होंगे तो और अधिक मौज के लिए तैयार रहें.

जगत गुर्जी के डेरे का प्रवेशद्वार भगौती बुआ के घर जितना ही पेचीदा निकला – अँधेरे में दीवार वगैरह की टोह लेते, ढपकते-ठोकर खाते जस-तस वे एक जर्जर जुगाड़ दरवाज़े के सामने पहुंचे जो पहले से ही खुला हुआ था. अन्दर से हारमोनियम की प्वां-प्वां के साथ जुगलबंदी करती एक मरियल आवाज़ आ रही थी. आवाज़ को सुनकर अनुमान लगा सकना मुश्किल था कि गायक स्त्री है अथवा पुरुष.

“श्श...” महेसिया ने चुप रहने का संकेत किया और धीमे स्वर में बोला – “गुर्जी की शाधना चल रही ... अब जूते-फूते खोलकर अन्दर चलकर चुपचाप बैठे रहने का काम हुआ हाँ! और जब तक गुर्जी आँख नहीं खोलते एक्क आंखर नहीं निकालना हुआ मूं से ... शमज गए?”

जगतदा गुर्जी साठ –पैंसठ के फेरे में लिपझे हुए एक सींकिया निकले. वे पट्टे का धारीदार घुटन्ना और जेब वाली बंडी धारण किये थे. सफ़ेद भंवों और सफ़ेद मूंछों के अतिरिक्त उनकी ठोड़ी पर दाढ़ी का भरम देने की नीयत से पाला गया सौ-दो सौ बालों का एक लम्बा झब्बा लटक रहा था. कुल मिलाकर वे महेसिया फल्लास और हरुवा भन्चक जैसे चेलों के आदर्श गुरुजी लग रहे थे. आगंतुकों ने गुर्जी के सामने एक ज़मीन पर धरे एक मटियल बोरेनुमा गलीचे पर आसन ग्रहण किया. आंखें बंद किये गुरुजी हारमोनियम की संगत में शास्त्रीय रियाज़ कर रहे थे– “बिरजि में होली कैसे खेलूँ री मैं सांवरिया के संगि”.

मई-जून के महीने में होली गाये जाने का कोई मतलब परमौत और गिरधारी लम्बू की समझ में नहीं आया और वे मौज लेते हुए दबी मुस्कान के साथ एक दूसरे को देखने लगे. महेस और हरुवा की आंखें मुंदी हुई थीं और वे गुर्जी के स्वर की लय पर मुंडी हिलाते घुटनों पर थाप देते हुए अपने आप को वाजिद अली शाह जैसा कोई नवाब संगीत-मर्मज्ञ समझ रहे थे.

परमौत इस गीत को अपने घर हर साल आयोजित होने वाली महिलाओं की होली में बचपन से सुनता आया था. गीत के बोल उसे अनायास रटे हुए थे. गुर्जी की कमज़ोर किन्तु सधी हुई आवाज़ से वर्षों तक सांवरिया के संग होली खेल चुकने का कॉन्फिडेंस टपक रहा था. स्वर-लहरियां कमरे की हर वस्तु पर गिर रही थीं -

“अबीरि उड़िता गुलालि उड़िता
उड़िते सातों रंग
भरि पि‍चकारी सनिमुखी मारी
अँगि‍या हो गई तंग”

वे एक-एक शब्द, एक-एक वाक्य को दर्ज़नों दफा गा रहे थे. मन ही मन साथ गा रहा परमौत जब अंगिया के तंग हो चुकने तक पहुँचता वे अबीर गुलाल में अटके रहते. दो-तीन मिनट में परमौत बाकायदा चट गया और उसने आदतन अपने तात्कालिक परिवेश का जायजा लेना शुरू किया. गुर्जी जिस आसन पर विराजमान थे उसकी पृष्ठभूमि में सुतली से बंधे किताबों-मैगजीनों के चट्टे धरे हुए थे. एक तरफ कमरे के आर-पार रस्सी टंगी हुई थी और उनके कपड़ों के लिए ओपन कबर्ड का काम कर रही थी. किताबों का एक रैक, गुर्जी के सोने की पटखाट, पटखाट के नीचे घुसाई गयी असंख्य वस्तुएं, कोने में खड़ा तानपूरा, मेज़ पर तमाम तरह की आयुर्वेदिक दवाइयों की शीशियाँ, एक टेपरिकार्डर और कुछ कैसेट वगैरह बतलाते थे कि गुर्जी संतोषी और कलाप्रेमी इंसान हैं.

लोकल इंस्पेक्शन के पूरा होते न होते गुर्जी अंगिया के तंग होने तक पहुँच गए थे और इस काव्यात्मक छवि में निहित अश्लीलता से अचानक मुदित हुआ गिरधारी परमौत के कान में कुछ अनर्गल फुसफुसाने लगा.

गुर्जी का गाना ख़त्म हुआ और उन्होंने आंखें खोलते ही हरुवा भन्चक को संबोधित किया मानो खुद अपनी संगीत साधना के निबटने का इंतज़ार कर रहे हों – “जा भगत, भोग लगाता है तो रसोई से बोतल निकाल ला तो. गिलास भी ले आना हाँ जग भर पानी के साथ ...”

हरुवा के उठने पर गुर्जी से परमौत और गिरधारी का परिचय करवाया गया. गुर्जी ने सीधे मुद्दे पर आते हुए कहा – “खाने-हाने का कुच्छ नहीं बचा है हाँ और तुम्हारा पिछली बार का हिसाब भी किलियर नहीं हुआ है अभी ...”

गुर्जी आर्मी के रिटायर्ड दोस्तों से महीने भर में कोई तीस-पैंतीस बोतलें जुगाड़ कर लेते थे और आधी रात के बाद आने वाले भक्तों को सस्ते रेट पर दारू मुहैया कराते थे. यही उनकी इनकम थी और इसी से उनके संगीतमय जीवन का ब्रेड एंड बटर चला करता था.

हरुवा अन्दर से सामान ला कर उसे धरा पर स्थापित कर चुका था. महेसिया ने नाटकीय अंदाज़ में ढक्कन पर हथेली से चार-पांच बार थाप जैसी मारी और बोतल को इस अंदाज़ से खोलने लगा जैसे पंचर हो गए टायर के नट-बोल्ट खोल रहा हो. गुर्जी ने दोहराया – “... वो मैं कह रहा था भगत कि तुम्हारा पिछली बार का हिसाब जरा होना रह गया था हाँ ...” उन्होंने पटखाट के सिरहाने धरे तकिये के नीचे से एक कापी निकाल ली और अंगूठे में थूक लगाकर पन्ने पलटने लगे. यह देखते ही महेसिया ने गिलास बनाने का कार्यक्रम मुल्तवी किया और पैंट की चोर जेब से सौ-सौ के दो नोट निकाल कर मंदिर में चढ़ावा चढ़ाने की अदा से गुर्जी के सामने रख दिए.

गुर्जी ने “अल्लख निरंजन ... शम्भो... शम्भो...” जैसा कुछ कहते हुए नोट बंडी की जेब के हवाले किये और शान्ति से आँख मूंदते हुए आदेश जैसा दिया – “कार्यक्रम प्रारम्भ हो भगत ...”

इस संक्षिप्त घटनाक्रम प्रत्यक्षदर्शी बन चुकने के बाद परमौत के मन में गुर्जी के लिए स्नेह और आदर उत्पन्न होने लगा. इज्ज़त से रोटी कमाने का इससे अच्छा क्या साधन हो सकता था कि तीस-चालीस रुपये में मिलनेवाली घोड़िया रम की बोतल को दो सौ के दाम पर बेचा जाय और वो भी अपनी तड़ी पर और अपने घर से. बिजनेस परमौत की पारिवारिक पृष्ठभूमि था और किसी भी तरह के ऐसे धंधे को वह स्पृहणीय मानता था जिसमें व्यापारी के आबोदाने में उसका अपना जलवा बरकरार रहे. गुर्जी एक सफल व्यापारी थे - ग्राहक उनके भगत थे और संगीत उनका जीवन.

“पहले से ही कहीं मुंह काला कर के आये दिख रहे हो भगत ...” कह कर गुर्जी ने एक ठहाका जैसा मारा और अपना गिलास थामा. इस गिलास की डबुल-तिरभुल कीमत भी भक्तों जेब से वसूली जानी थी. परमौत थोड़ा और इम्पप्रेस्ड हुआ. थोड़ी देर तक यूं ही औपचारिक बातचीत चलती रही फिर अचानक गुर्जी को कुछ याद सा आया और वे पटखाट के नीचे हाथ घुसा कर कुछ खोजने लगे. उन्होंने एक पोटली जैसी निकाल ली और उसकी गाँठ खोलते हुए बोले – “महेस भगत ... तुम्हारी तो जो है चल रही है साढ़े साती ... राहू अलग से ढैय्या मार के बैठा है तीसरे घर में... और उप्पर से तुम दोनों की कुण्डली मिल नहीं रही ... मल्लब परम खड़काष्टक का योग बना है ...”

पोटली में से उन्होंने पुराने कागज़ की लिपटी हुई दो कुण्डलियां निकाल कर अलग कीं और पोटली को यथावत बाँध कर पटखाट के नीचे सरकाया. गिरधारी और परमौत इस नए कारनामे से तनिक चकित हुए – ईश्वर की तरह जगतदा गुर्जी मिनट-मिनट पर अपने नए-नए आयाम दिखला रहे थे. हरुवा और महेसिया आगे खिसक गए ताकि गुर्जी की कही कोई बात सुनने से छूट न जाये.

“...त्तो ये तो है भगत तुम्हारी कुण्डली” सामने महेसिया फल्लास की जन्म-कुण्डली खोली जा चुकी थी और दूसरी को खोला जा रहा था – “और... ये जो है ... ये हुई कन्या की कुण्डली ...”

ठीक-ठाक पी चुकने के बाद भी परमौत और गिरधारी तुरंत समझ गए कि गुर्जी महेसिया के ज्योतिषी का काम भी करते हैं और यह भी कि कोई लोचा है जिसके चलते महेसिया और किसी कन्या का ब्याह संपन्न हो सकने में अड़चन आ रही है. टॉपिक सार्वभौमिक दिलचस्पी का था सो सिर्फ गुर्जी बोल रहे थे. अपने गिलास थामे चारों ग्राहक-कम-श्रोता-कम-क्लायंट सामने बनी ज्यामितीय आकृतियों की डीकोडिंग कर रहे गुर्जी के एक-एक शब्द को आत्मसात कर लेना चाहते थे.

कोई पांच-सात मिनट तक जगतदा गुर्जी ने सप्तम-अष्टम, गृह-नक्षत्र, सिंह-कर्क, राहू-बृहस्पत, सप्तमेश-राशि, उच्च स्थान-निम्न स्थान जैसे शब्दों का इतनी बहुतायत में प्रयोग किया कि चारों ने अपने को निपट गंवार समझते हुए घनघोर अन्धकार के गर्त में धंसता हुआ महसूस किया. जब सारा काम गृह-नक्षत्रों ने ही करना है तो फिर पल भर में ख़ाक बन जाने वाले आदमी की क्या औकात!

गुर्जी ने कुण्डलियाँ लपेटकर महेसिया को थमाईं और गला खंखार कर डराने वाले स्वर में कहा – “देखो महेस भगत ... शास्त्रों में साफ़-साफ़ लिखा है कि अगर जो है पुरुस की कुंडली की षष्ठ और अष्ठम की राशि कन्या के जन्म की राशि हो तो दंपत्ति में आजीवन कलह-कलेस रहेगा ... बल्की ... पुरुस की तो जो है मौत का भी मल्लब चांस हुआ ... त्तो ... मैं तो कह रहा हुआ कि जो है इस कन्या से विवाह का विचार तो त्याग ही दो ... और हरीस भगत जरा पानी कम डालना हाँ हो मेरे वाले में अब से ...”

अचानक काठ मारा उल्लू बना हुआ महेसिया फल्लास कभी अपने हाथ में थमी कुंडलियों को देखता कभी जगतदा गुर्जी को और कभी हरुवा को – “मल्लब कोई चांस तो होगा यार गुर्जी ... जैसे कि सादी नहीं करी जाए और भगा के गंधर्व विवाह टाइप का कुछ कर लिया जाए तब तो नहीं होगा ना वो क्या कह रहे हुए आप खड़काष्टक-हड़काष्टक का योग...”

गुर्जी के कुछ भी कहने से पहले ही हरुवा बोल पड़ा – “अरे जरूरी हो रहा है साला उसी पन्थ्याणी से ब्या करना यार महेसिया ... एक तो मैं तुम्से कब शे कै रा कि उसका चक्कर वो कपड़े की दुकान वाले देसी लौंडे से भी चल रा ... मेरी बात नईं  मानता है तो कोई बात नहीं गुर्जी की बात ई मान ले ... जब वो कैरे हैं कि खड़काष्टक है तो इसका मल्लब ये हुआ कि इधर तुम्हारा लगन हुआ उधर दो हप्ते में तुमारा किरिया करम करने हमें जाना पड़ने वाला हुआ बिशनाथ ...” हरुवा भंचक ने अल्मोड़ा के भूतिया विश्वनाथ घाट का ज़िक्र किया तो महेसिया फल्लास के शरीर में झुरझुरी सी मची और उसने चेहरे पर उदासी की एक और परत चढ़ाते हुए गहरी सांस भरी.

परमौत और गिरधारी इस तरह की स्थिति से पहली बार रू-ब-रू हो रहे थे और किसी भी तरह की तात्कालिक प्रतिक्रिया करने से लाचार थे. महेसिया ने आवेश ने आते हुए जेब से अपना बटुवा निकाला और उसमें लगी फोटो को सार्वजनिक करते हुए कहा - "यार चार शाल से धो-धो करके यहाँ तक बात पौंचाई कि शाला लौंडिया के बाप ने कुण्डली देने को हाँ कहा कि जा के मिला लो कर के और अब जब कुण्डली मिल गयी तो गुर्जी कैरे कि सादी नहीं हो शकती ... देखो गुर्जी तुमको सकल से ऐशी लग रही ये क्या कैते हो आप कन्या कि अपने आदमी की तो क्या किसी चींटी की भी हत्या कर शकेगी ..."

गुर्जी ने बटुवे में कन्या की फोटो को कुछ पल गौर से देखने के उपरान्त परमौत को पास ऑन किया. फोटो में उक्त कन्या अर्थात पन्थ्याणी अर्थात महेसिया फल्लास की गर्लफ्रेंड अनुपम सुन्दर लग रही थी. जिस तरह उस रात परमौत को राका की गर्लफ्रेंड होने के तथ्य ने बेचैन किया था कुछ वैसी ही हरारत उसे महसूस हुई. राका और महेसिया जैसे बेशऊर, निर्धन और गोबर जैसे थोबड़े वाले लोग पब्लिक में अपने गर्लफ्रेण्ड-सुविधा प्राप्त होने का डंका पीट सकते थे जबकि वह अपनी पिरिया से इस कदर मोहब्बत करने के बावजूद मोहब्बत के संसार में एक अनाथ से ऊपर के स्टैटस से बस थोड़ा ही आगे जा सका था. हाँ पिरिया को उसने हाल ही में अपनी मोपेड पर बिठाकर कुछ देर सवारी की थी लेकिन किसी भी ऐसे दिन का तसव्वुर उसके लिए असंभव था जब वह पिरिया के बाप से मिलान के वास्ते उसकी बेटी की जन्म-कुण्डली मांगने की हैसियत वाला बन सकेगा या उस राका जैसा जो अपनी मास्टरपुत्री प्रेमिका का कम से कम फोटो तो तड़ी के साथ डिस्प्ले कर सकता था. परमौत के मन में एक साथ बहुत सारे विचार आये लेकिन उसने उन्हें पार्श्व में धकेला और हरुवा की दिशा में बटुवा बढ़ाते हुए गौर से महेसिया को देखना शुरू किया जो खुद मुर्दनी शकल बनाए अपने गिलास को फिर से भर रहा था. महेसिया का चेहरा इस वक़्त सचमुच गोबर से पाथा हुआ जैसा लग रहा था.

बटुवे को हाथ में लेते ही हरुवा भन्चक ने अपनी बात पर कायम रहते हुए कहा - "ठीक हुआ ... ठीकी हुआ ... देखने में लग रही हुई रेखा-फेखा टाइप की लेकिन बिशनाथ की याद कर लेना यार महेसिया फिर मत कैना कि ददा लोगों ने पैले नहीं कहा कर के ..."

गुर्जी ने हारमोनियम पर उंगलियाँ फिराते हुए एक और होली गाना शुरू कर दिया - "जलै कैसे भरूं, जमुना गहरी ..."


(जारी)

No comments: